चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
अब नहीं बचा बड़ी-पापड़-अचार का समाजशास्त्र
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
बड़ी-पापड़-अचार का यूं तो सीधा संबंध है स्वाद से। भोजन की थाली में इन तीनों का होना भोजन की पूर्णता का द्योतक है। पहले हर उत्तर भारतीय घर में बड़ी, पापड़ और अचार बनाए जाते थे। आज बाज़ार ने इन्हें अपने कब्जे में कर लिया है। या कहा जाए कि महिलाओं ने इन्हें अपने कब्जे़ से अलग दिया है। जीवनशैली भी बदल गई है। अब कामकाजी महिलाओं के पास इतना समय ही कहां है कि वे ऐसी सामग्री बनाने में जुट सकें। लेकिन जो कामकाजी नहीं हैं वे? ख़ैर, वहीं बाज़ार घर का स्वाद देने का वादा करता है। यह वादा निभाया भी जाता है। यानी स्वाद तो बचा हुआ है लेकिन ऐसी वस्तुओं के घरों में न बनने से जो कुछ खोया है वह समाजशास्त्र का विषय है।
बड़ी हमेशा हरी सब्जी की भरपाई का एक अच्छा विकल्प रहा है। यह उस समय और अधिक महत्वपूर्ण था जब हर प्रकार की सब्जी बारहों महीने नहीं मिलती थी। अब तो कृषि शास्त्रियों ने ऐसी नई किस्में ईज़ाद कर लीं हैं कि हर मौसम में लगभग हर तरह की सब्जियों और फलों की उपलब्धता बनी रहती है। यह बात अलग है कि उसके स्वाद में अंतर रहता है किन्तु घर में सुखा कर रखी गई या बड़ी के रूप में सहेजी गई सब्जियों का भी स्वाद ताज़ा अथवा मौसमी सब्जियों से भिन्न होता रहा है। यहां सवाल सब्जियों के स्वाद का नहीं वरन उस अनुष्ठान का है जो घर में बड़ी बनाने के रूप में घूम-धाम से होता था। मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो मेरे घर में बड़ियां बनाने का काम किस तरह होता था। बड़ी वाला कुम्हड़ा जिसे हम लोग भूरा कुम्हड़ा कहते थे और जिसे पेठा कुम्हड़ा भी कहा जाता था, उन दिनों साप्ताहिक हाट में ही मिलता था। मां साप्ताहिक हाट से भूरा कुम्हड़ा और दालें खरीद कर रख लिया करती थीं। विशेषरूप से उड़द की दाल। भूरे कुम्हड़े की बड़ी उड़द की दाल के साथ बनाई जाती थी। जबकि मूंग की दाल की बड़ी अकेली बनती थी।
चूंकि मां शिक्षिका थीं अतः उन्हें ऐसे बड़े घरेलू कामों के लिए रविवार का दिन ही मिलता था। जिसके लिए तैयारी पहले से शुरू कर दी जाती थी। शुक्रवार की रात को उड़द की दाल भिगो दी जाती थी। शनिवार को खाना बनाने वाली महराजिन जिन्हें हम लोग बऊ कह कर पुकारते थे, सुबह का खाना पकाने के बाद दाल सिलबट्टे में पीसती थीं। उड़द की दाल सिलबट्टे पर पीसना हंसी-खेल नहीं होता था। जिसे आदत होती थी वह तो आसानी से पीस लेता था वरना हथेली में गट्ठे पड़ जाते थे। कंधे दुखने लगते थे। शाम को हम सभी बारी-बारी से किसनी में कददू को किसते थे। हम बच्चे मजे के लिए यह काम करते थे जबकि बड़े आपस में बांट कर यह काम करते थे। एक बड़े-से कददू को पूरा किसना हाथ दुखा देने वाला काम होता था। बस, यही से साझेदारी शुरू हो जाती थी। मां और बऊ मिल कर कद्दू किसतीं। फिर उस किसे हुए कद्दू को दाल में मिला कर अच्छे से फंेटा जाता। इसे ‘‘पिठी’’ कहा जाता था। फिर पिठी को रात भर फर्मंटेशन के लिए ढांक कर छोड़ दिया जाता था। दूसरे दिन सुबह यानी रविवार को धूप में पुरानी धुली चादरें बिछा दी जाती थीं। पिठी को फिर फेंटा जाता था, इतना कि वह पानी में डालने पर हल्की हो कर तैरने लगे। यही पहचान थी पिठी के तैयार हो जाने की। फिर उसमें जरूरी मसाले डाल कर बड़ी बनाने का काम शुरू होता था। बऊ की नातिन भी हाथ बंटाने के लिए आती थी। इस तरह मैं, दीदी, मां, बऊ और बऊ की नातिन हम पांच लोग बड़ियां बनाते थे। उस दौरान खूब सारी बातें होती थीं। बहुत मजा आता था। बऊ आदतन मोहल्ला-पड़ोस की खबरें सुनाती थीं जो हम लोगों को भी सुनने का मौका मिलता था। बीच-बीच में मां और बऊ हमें समझाती जाती थीं कि किस आकार में, किस तरह और कितने पास-पास बड़ियां रखनी हैं। यह एक अघोषित कक्षा होती थी जिसमें एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को पाक कला के साथ-साथ बहुत कुछ सिखा देती थी। जिन घरों में ढेर सारी बड़ियां बनती थीं वहां मोहल्ला-पड़ोस की महिलाएं भी बुला ली जाती थीं, जो उस काम में हाथ बंटाती थीं।
मजे की बात ये कि पिसी हुई कुछ दाल पहले ही पिठी से अलग बचा ली जाती थी जिसमें कद्दू नहीं मिलाया जाता था। उसके भी दो भाग किए जाते थे। एक भाग में तिल और कद्दू के बीज डाल कर बिजौरी या बिजौड़े बनाए जाते थे और दूसरे भाग के बड़े तले जाते थे। बड़ों को दही में डाल कर दही बड़े बनाए जाते थे। जो बड़ी बनाए जाने के बाद नाश्ते के रूप में साथ बैठ कर खाए जाते थे। शाम तक तेज धूप में रखे जाने के बाद बड़ियां चादर से निकालने लायक हो जाती थीं। सो, इसके बाद काम शुरू होता था बड़ियों को सही-सलामत चादर से अलग करने का काम। शर्त यही होती थी कि एक भी बड़ी टूटनी नहीं चाहिए। यह टेक्नीक भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सहज भाव से प्रवाहित होती थी। परिवार और समाज में शिक्षा की स्वाभाविक प्रक्रिया। किन्तु यह प्रक्रिया यहीं नहीं थमती थी। दो-तीन दिन तक बड़ियों को लगातार सुखाने के बाद जब बड़ियां डब्बों में बंद कर के रखने के योग्य तैयार हो जाती थीं तब उसमें से बऊ का हिस्सा अलग निकाल दिया जाता था। कुछ और परिचितों को भी देने के लिए कुछ बड़ियां अलग-अलग डब्बों में रख दी जाती थीं। यह सामाजिक व्यवहार की अर्थात मिल-बंाट कर खाने की शिक्षा थी। यह उसके प्रति विनम्रता ज्ञापन भी था जिसने दाल पीसने में अच्छे मन से हाथ बंटाया। यद्यपि दाल पीसने के लिए बऊ को मां अलग से भुगतान करती थीं लेकिन बड़ी के उपभोग में भी साझेदारी जरूरी मानी जाती थी।
पापड़ का बनना तो बड़ी से भी अधिक सामाजिक व्यवहार से गुज़रता था। पापड़ बेलने की कठिनाई और मेहनत से ही ‘‘पापड़ बेलना’’ मुहावरा बना है। जो पापड़ बेलता है, वही जानता है कि यह कितना कठिन और श्रमसाध्य काम है। मैंने भी अपने घर में पापड़ बेले थे अतः मैं अनुभव के आधार पर इस बात का समर्थन कर सकती हूं। दिन में पापड़ बेलने के बाद रात भर हथेलियों के गट्ठे दुखते थे। मूंग और उड़द के पापड़ सबसे अधिक मेहनत मांगते हैं। यह मेहनत ही सबको परस्पर जोड़ने का काम भी करती है। घर की महिलाएं मिल कर दाल पीसने का काम करती थीं। फिर जब पापड़ बेलने का समय आता था तो पास-पड़ोस की महिलाएं उस घर में जुट जाती थीं। नहा-धो कर पूरी स्वच्छता के साथ। अलग-अलग आसनियां बिछा दी जाती थीं। चकला, बेलन और तेल की कटोरियां आसनियों के साथ रख दी जाती थीं। महिलाएं अपने-अपने घरेलू कामों से निवृत्त हो कर पापड़ बनने वाले घर में एकत्र होती थीं और फिर शुरू होता था दौर पापड़ बेलने का। जितनी अधिक महिलाएं उतनी तेजी से काम। ढेर सारी बातें, बीच-बीच में चाय का दौर और अंत में भरपेट नाश्ता। नाश्ते के दौरान यह तय किया जाता था कि अब अगली बारी किसके घर की है? यानी एक के बाद एक हर घर में पापड़ बनने होते थे जिसे सभी महिलाएं इसी तरह मिल कर बनाती थीं। तब मध्यमवर्गीय परिवार में ‘किटीपार्टी’ का चलन नहीं था। यह सहयोग भावना ही थी जो सबको परस्पर जोड़े रखती थी। लड़कियां भी इसमें हाथ बंटाती थीं तथा अपने से बड़ी आयु की महिलाओं से बातों-बातों में जीवन के विविध पक्ष का ज्ञान पा जाती थीं। एकदम व्यवहारिक ज्ञान। पापड़ों के सूखने के बाद भी वही होता था कि कम से कम दस-दस पापड़ सभी सहयोगी महिलाओं के घर भेजे जाते थे। चूंकि इस चलन को सभी निभाती थीं अतः नुकसान में कोई नहीं रहती थीं। वहीं परस्पर सौहाद्र्य का बोनस सुरक्षित रहता था।
अचार का मामला तो और अधिक दिलचस्प है। इसमें भी अचार की मात्रा पर निर्भर होता था कि कितनी महिलाएं हाथ बटाएंगी। विशेष रूप से आम के अचार के मामले में। आम का अचार बनाने में सबसे पहला काम होता है आम को टुकड़ों में काटना और इसके लिए आवश्यकता होती है ‘‘आमकटना’’ की।एक विशेष तरह का हंसिया जिसमें लकड़ी का हत्था लगा होता है और जिसका आधार भी लकड़ी का होता है। आमकटना में आम काटना भी विशेष कला होती है। आम कट जाए मगर उंगलियां सलामत रहें। आमकटना के आधार पर जहां आम काटने को रखा जाता है, वहां सूती कपड़े का एक गोल पैड बना कर रखा जाता है। यह पैड उसी तरह का होता है जैसे सिर पर घड़ा रखने के लिए बनाया जाता है। उसी का लघु रूप। यह पैड आम को अपनी जगह पर टिकाए रखता है। इसी पैड पर टिका कर आम के टुकड़े काटे जाते हैं। विशेष बात यह कि पहले हर घर में आमकटना नहीं होता था। क्योंकि आम का अचार डालना एक वार्षिक आयोजन होता था अतः कई लोग सोचते कि एक दिन के काम के लिए आमकटना क्यों खरीद कर रखा जाए। लेकिन मोहल्ले में किसी एक घर में आमकटना जरूर होता था और यही आमकटना पूरे मोहल्ले में हर घर में घूमता रहता था। आमकटना की मालकिन से बाकायदा आमकटना मांगा जाता और फिर काम हो जाने पर उसे अच्छे से साफ कर के, घो-धा कर ईमानदारी से वापस कर दिया जाता था ताकि फिर अगले साल मांगा जा सके। आमकटना की मालकिन भी बिना किसी हीलहवाला के प्रसन्नतापूर्वक आमकटना दे दिया करती थी क्योंकि इससे मोहल्ले में उसकी पूछ-परख बढ़ती थी। इस तरह आम का अचार बनाने की प्रक्रिया भी सामाजिक व्यवहार गढ़ती थी। एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति करना, एक-दूसरे के काम आना, आपस में मिल कर काम करना, यही सब तो सिखाता था आम का अचार डालना।
देखा जाए तो अचार-बड़ी-पापड़ का एक गहरा समाजशास्त्र था। मध्यमवर्गीय परिवार की महिलाओं को यह परस्पर जोड़े रखता था। इस जुड़ाव पर पहले टेलीविजन ने व्यवधान पहुंचाया और फिर उस मानसिकता ने जो उच्चवर्ग के अंधानुकरण की ओर धकेलती चली गई। मध्यमवर्ग में किटीपार्टी जैसे चलन आम हो गए। महिलाएं पैसे का दांव लगाने, उसमें जीतने और हारने से उत्पन्न पारस्परिक मनमुटाव और दिखावे की जकड़ में कैद होती गईं। उनका स्वाभाविक कौशल बाज़ार की भेंट चढ़ गया। घर में बने सामानों की जो परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी, उस पर रोक लग गई। अब सिर्फ वही महिलाएं इन कामों से जुड़ती हैं जिन्हें रसोई के कामों में गहरी रुचि होती है, अन्यथा एक बटन दबा कर पिज्जा-बर्गर के आॅर्डर देना आज सभी जानती हैं। आज सोशल मीडिया पर पारंपरिक अचार अथवा व्यंजन बनाने की विधियों की अनेक साईट्स चल रही हैं क्योंकि आज की युवतियों को जो शिक्षा अपनी मां, परिवार, मोहल्ले और पड़ोस की महिलाओं से मिलनी चाहिए थी वह उन्हें नहीं मिल पा रही है। अब ग्रामीण अंचलों में या धुर पारंपरिक परिवारों में ही यह चलन बचा है अन्यथा अचार-बड़ी-पापड़ के समाजशास्त्र पन्ना अब अतीत की गाथा बन गया है।
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