Friday, March 28, 2025

शून्यकाल | रांगेय राघव की संवेदनाओं को समझने का प्रवेश द्वार है रिपोर्ताज़ “तूफानों के बीच” | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
रांगेय राघव की संवेदनाओं को समझने का प्रवेश द्वार है रिपोर्ताज़ “तूफानों के बीच”
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
        यह रिपोर्ताज बंगाल के काल की भीषणता को बखूबी सामने रखता है। रांगेय राघव का रिपोर्ताज़ “ तूफानों के बीच” उनके कथेत्तर साहित्य कि वह निधि है जो हिंदी साहित्य के कथेत्तर साहित्य को समृद्ध करती है। यदि रांगेय राघव की संवेदनाओं को भली-भांति समझना है तो इस रिपोर्ताज को पढ़ना जरूरी है। इससे होकर गुजरने के बाद उनके उपन्यास तथा अन्य कथा साहित्य की संवेदनात्मकता और अधिक निकट महसूस होती है। यदि शिल्प की दृष्टि से देखा जाए तो इसे रिपोर्ताज़ लिखने वालों के लिए एक “गाइड बुक” भी कहा जा सकता है। यह रिपोर्ताज बताता है की कठोर से कठोर और भयानक यथार्थ को किस प्रकार साहित्यिकता के साथ सामने रखा जा सकता है जिससे पढ़ने वाला उसे घटना की दृश्यात्मकता को आत्मसात कर सके साथ ही, उसकी कटु सच्चाई से भी अवगत हो सके। 
रांगेय राघव की मातृभाषा तमिल थी।  उनका नाम मूल नाम था तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य। किंतु उन्होंने “रांगेय राघव” के नाम से अपना समस्त साहित्य लिखा। उनके पूर्वज आंध्र प्रदेश मे तिरुपति के निवासी थे लेकिन उनका जन्म 17 जनवरी 1923 को आगरा में हुआ था। कई बार यह स्थिति देखने को मिलती है कि हिंदी भाषी लोग हिंदी भाषी क्षेत्र में जन्म लेकर जीवन यापन करते हुए भी हिंदी को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाते हैं किंतु रांगेय राघव का जन्म ही शायद दो भाषाओं के बीच एक सौहार्दय-सेतु के रूप में हुआ था इसीलिए उन्होंने तमिल भाषी परिवार में जन्म लेकर भी अपने पूरे जीवन भर हिंदी की ही सेवा की। हिंदी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में उनके अवदान अद्वितीय है।  यद्यपि उनका जीवनकाल अधिक नहीं रहा। 12 सितंबर 1962 को कैंसर से उनका निधन हो गया। लेकिन अपने 39 वर्ष के छोटे से जीवन काल में उन्होंने लगभग 100 किताबें लिखीं। जिनमें फिक्शन उपन्यास, जीवनीपरक उपन्यास, कहानी, जीवनी, रिपोर्ताज़ आदि शामिल है। उस पर विशेष बात यह है कि उनकी किसी भी कृति को अपरिपक्व को नहीं कहा जा सकता है। उनकी सभी कृतियां पूर्णतया परिपक्व तथा ठहर कर, विचारपूर्वक और पूरी गंभीरता से लिखी गई हैं। अपनी हर विधा के प्रति उन्होंने पूरा-पूरा न्याय किया है। जब रांगेय राघव के उपन्यासों को कोई व्यक्ति पढ़े तो उसे यही लगता है कि वे एक श्रेष्ठ उपन्यासकार थे, जब उनकी कहानियों को कोई पढ़ता है तो उसे लगता है कि वे एक उत्कृष्ट कहानीकार थे। वहीं, जब उनके रिपोर्ताज़ को पढ़ा जाए तो ऐसा लगता है कि वह उच्चकोटि के पत्रकार और यथार्थवादी साहित्यकार थे। अब यदि उनके सीमित जीवन काल 39 वर्ष की अवधि से किशोरावस्था में पहुंचने तक की 14 वर्ष की आयु घटा दी जाए तो बचते हैं कल 25 वर्ष। इस 25 वर्ष को उनके लेखन कला की अवधि माना जा सकता है। यद्यपि कानून वाली होने की आयु 18 वर्ष मानी जाती है किंतु साहित्य के सृजन के लिए किशोरावस्था से भी गणना की जा सकती है। मात्र 25 वर्ष में 100 पुस्तके वह भी विविध विधाओं में यानी मल्टीडाइमेंशनल क्रिएटिविटी का इतना अनुपम उदाहरण हिंदी में प्रायः देखने को नहीं मिलता है। यदि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रांगेय राघव का जन्म ही साहित्य सृजन के लिए हुआ था विशेष रूप से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के लिए। यदि उन्हें धूम्रपान की लत यानी चैन स्मोकिंग की आदत नहीं होती तो शायद वे और अधिक समय इस दुनिया में रहते और साहित्य की ओर अधिक सेवा करते। किंतु 100 पुस्तकों के बाद शायद उनका दायित्व समाप्त हो गया था और इस दुनिया में उनकी अवधि समाप्त हो गई थी, यही सोच कर संतोष करना पड़ता है।

रिपोर्ताज विधा अपने आप में एक विशिष्ट विधा है । वैसे रिपोर्ताज़ शब्द हिंदी का नहीं है यह फ्रांसीसी शब्द है जो हिंदी में आत्मसात कर लिया गया है।  जिसका अर्थ है "रिपोर्ट" या "विवरण”। 
रिपोर्ताज में, पत्रकार या लेखक किसी घटना को अपनी भाषा और शैली में, कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है, ताकि पाठक को घटना का निकटता से अनुभव हो सके।

हिंदी में रिपोर्ताज लेखन की शुरुआत 1940 के आस-पास हुई। हिंदी में रिपोर्ताज विधा का जनक शिवदान सिंह चौहान को माना जाता है जिन्होंने “लक्ष्मीपुरा”, “मौत के खिलाफ जिंदगी की लड़ाई” जैसे रिपोर्ताज लिखे। रिपोर्ताज़ लेखन की अपनी कुछ शर्ते हैं। जिनमें से प्रमुख हैं - 1.किसी विशेष घटना को अपनी मानसिक छवि में बदलते हुए उसे लेखकीय रूप में प्रस्तुत करना। 2.रिपोर्ट में कल्पना का इस्तेमाल आटे में नमक बराबर किया जाता है। जिस घटना अपने पूर्ण प्रभाव के साथ प्रस्तुत हो सके किंतु उसकी वास्तविकता पर प्रभाव न पड़े। 3.रिपोर्ताज घटना प्रधान होने के कारण ही कथा तत्व से भी युक्त होना चाहिए। 4.रिपोर्टर्स लेखक को पत्रकार और साहित्यकार दोनों की संतुलित भूमिका निभानी चाहिए अर्थात साहित्यिक शब्दों में यथार्थ को प्रस्तुत करना रिपोर्ताज का मूल होना चाहिए। 5. यदि बात रिपोर्ताज के कला पक्ष की जाए, तो उसमें वास्तविक पात्र, कथात्मकता, चरित्र, संवाद और विवरण शैली की प्रमुखता होती है। 6.रिपोर्ताज़ कथेत्तर साहित्य की विधा की श्रेणी में आता है। इसमें घटना की कथा तो होती है किंतु इसका प्रस्तुतिकरण काल्पनिक कथा के समान न होकर यथार्थ रिपोर्ट की भांति होता है किंतु साहित्यिक शैली में।

     रांगेय राघव का रिपोर्ताज़ “तूफानों के बीच” इन सारे बिंदुओं पर खरा उतरता है। “तूफानों के बीच” सन 1943 में पड़े बंगाल के काल पर आधारित है। इस अकाल के संबंध में हमेशा यह बात सामने आई कि वह अकाल की स्थिति प्राकृतिक के बजाय सरकारी असहयोग एवं अव्यवस्था के कारण उत्पन्न हुई। उसे समय लंदन में विंटर चर्चिल प्रधानमंत्री थे। जिन्होंने बंगाल में पड़े अकाल के प्रति संवेदनशीलता दिखाई। जिसके कारण बंगाल में हजारों लोगों की मौत हुई और एक विभीषिका के रूप में वह समय इतिहास में दर्ज़ है।
      रांगेय राघव ने बंगाल के काल के सच को पूरी गंभीरता और सच्चाई के साथ अपने रिपोर्ताज में प्रस्तुत किया है।
      रिपोर्ताज़ की जो यह विधा है उसका यथार्थ बोध सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। जब मैंने अपना पहला उपन्यास पिछले पन्ने की औरतें लिखा तो उसमें यथार्थ का चित्रण करते हुए मात्र उन पात्रों के नाम मैंने परिवर्तित किया जिनके सम्मान की रक्षा करना भी मेरा दायित्व था। किंतु उस समुदाय, जिसकी महिलाओं के जीवन पर मेरा यह उपन्यास आधारित है, उनके सच और पीड़ा भरे यथार्थ को सामने रखना भी मेरा लेखकीय बोध था। इसीलिए मैंने अपने उसे उपन्यास को रिपोर्ताज़िक उपन्यास कहा और वरिष्ठ आलोचकों ने इसे हिंदी उपन्यास विधा का एक “टर्निंग पॉइंट” माना।
      संभावित इसीलिए  “तूफानों के बीच” को पढ़ते समय मैं उसकी विधागत तत्वों से स्वयं को घनिष्ठता से जोड़ पाई। 
     एक कारण और भी था इस रिपोर्ताज के प्रति मेरे आकर्षण का कि मैं एक इतिहास की विद्यार्थी रही हूं, आज भी हूं। और, मैंने एक जीवनीकार के रूप में जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जीवनी लिखी तो बंगाल के अकाल के दौरान उनके द्वारा किए गए सहायता कार्य एवं प्रयासों के बारे में पढ़ते समय मुझे बंगाल के उस काल की भयावहता का भी अनुभव हुआ। इसके बाद मैं बीबीसी द्वारा लिए गए हुए साक्षात्कार पढ़े और देखें जो उन्होंने काल से बच गए लोगों को जो साक्षात्कार तक चरम वृद्धावस्था में पहुंच चुके थे उनके अनुभव को आत्मसात करने का कंपा देने वाली अनुभूति हुई। उस दौरान मुझे रांगेय राघव का रिपोर्ताज़ “तूफानों के बीच” याद आने लगा, जिसमें लगभग वही दृश्य अक्षरशः से मौजूद हैं।

      “तूफानों के बीच”  जिसका 1946 ई., 'हंस' पत्रिका में बंगाल के अकाल से संबंधित इस रिपोर्ताज़  का पुस्तकाकार संकलन किया गया। यह चार भागों में लिखा गया है - बांध मांगे दाओ, एक रात, मरेंगे साथ जियेंगे साथ, अदम्य जीवन।
        
        सन 1942 से 44 के बीच जब बंगाल में भीषण अकाल पड़ा उसे समय रांगेय राघव आगरा में निवास कर रहे थे और उनकी आयु मात्र 19 वर्ष थी उसे समय आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ के द्वारा एक प्रतिनिधि दल बंगाल भेजा गया ताकि वहां की स्थिति का सही पता चल सके इस दल में एक रिपोर्टर के रूप में रांगेय राघव भी शामिल थे। जब बंगाल पहुंचकर रांगेय राघव ने वहां की भीषण स्थिति को दिखा तो उनका युवा मन कांप उठा। उन्होंने “तूफानों के बीच” की भूमिका में लिखा है-
   “बंगाल का अकाल मानवता के इतिहास का बहुत बड़ा कलंक है। शायद क्लियोपैट्रा भी धन के वैभव और साम्राज्य की लिप्सा में अपने गुलामों को इतना भीषण दुख नहीं दे सकी जितना आज एक साम्राज्य और अपने ही देश के पूँजीवाद ने बंगाल के करोड़ों आदमी, औरतों और बच्चों को भूखा मारकर दिया है।"
    उसे समय बंगाल में स्थित यह थी की अपना पेट भरने के लिए लोगों को अपने बच्चों को बेचना पड़ रहा था इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता था। दुख और भाग के लिए लोग आपस में लड़ पड़ते थे। गांव के गांव भुखमरी से मौत के शिकार हो गए थे। देश की विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं एवं समाजसेवी आगे बढ़कर वहां के लोगों की मदद कर रहे थे किंतु ब्रिटिश सरकार गोया उनकी मौत का तमाशा देख रही थी। दूसरे राजनीतिक उद्देश्यों पर डटे हुए महात्मा गांधी ने उसे काल की स्थिति पर अधिक ध्यान नहीं दिया जिसके लिए उन पर हमेशा प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। क्योंकि वे ऐसे सशक्त व्यक्ति थे जिनके पहल करने पर ब्रिटिश सरकार को मामले को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। वही श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे राष्ट्रवादी व्यक्तित्व आगे बढ़कर बंगाल के लोगों की सहायता कर रहे थे।
     यह रिपोर्ताज बंगाल के काल की भीषणता को बखूबी सामने रखता है। रांगेय राघव का रिपोर्ताज़ “ तूफानों के बीच” उनके कथेत्तर साहित्य कि वह निधि है जो हिंदी साहित्य के कथेत्तर साहित्य को समृद्ध करती है। यदि रांगेय राघव की संवेदनाओं को भली-भांति समझना है तो इस रिपोर्ताज को पढ़ना जरूरी है। इससे होकर गुजरने के बाद उनके उपन्यास तथा अन्य कथा साहित्य की संवेदनात्मकता और अधिक निकट महसूस होती है। यदि शिल्प की दृष्टि से देखा जाए तो इसे रिपोर्ताज़ लिखने वालों के लिए एक “गाइड बुक” भी कहा जा सकता है। यह रिपोर्ताज बताता है की कठोर से कठोर और भयानक यथार्थ को किस प्रकार साहित्यिकता के साथ सामने रखा जा सकता है जिससे पढ़ने वाला उसे घटना की दृश्यात्मकता को आत्मसात कर सके साथ ही, उसकी कटु सच्चाई से भी अवगत हो सके। 
    रांगेय राघव ने जिस प्रकार अपने सृजन से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है वह तो अद्वितीय है ही, साथ ही, उन्होंने यथार्थ लेखन को जिस तरह अपने रिपोर्ताज “तूफानों के बीच” द्वारा रेखांकित किया है वह भी अद्वितीय है।
*(डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय की हिंदी विभाग द्वारा आयोजित "इतिहास कथाश्रित हिन्दी कथा लेखन और रांगेय राघव का अवदान" विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम सत्र में कथेत्तर साहित्य पर मेरे द्वारा दिए गए व्याख्यान का अंश)*
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1 comment:

  1. रांगेय राघव के योगदान और उनकी प्रतिभा पर प्रकाश डालता सुंदर व्याख्यान

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