Tuesday, March 4, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुन्देली बसंत : परंपराओं की सतत पोषक एवं संरक्षक वार्षिक पत्रिका | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 04.03.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - 
पुस्तक समीक्षा
       बुन्देली बसंत : परंपराओं की सतत पोषक एवं संरक्षक वार्षिक पत्रिका
      - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पत्रिका        - बुन्देली बसंत 2025
संपादन        - डाॅ. बहादुर सिंह परमार
प्रकाशक        - बुन्देली विकास संस्थान, महल परिसर, छतरपुर म.प्र.-471001         
मूल्य           - 200/-
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        परंपराएं तभी जीवित रह पाती हैं जब उन्हें सतत प्रवाहमान रखा जाता है, उन्हें संरक्षित, पोषित और संवर्द्धित किया जाता है। विशेष रूप से लोक परंपराएं जिनमें लोकभाषा, लोक संस्कार, लोक साहित्य, लोककलाएं आदि सभी निहित होती हैं, उनका संरक्षण एवं विकास उसी स्थिति में संभव हो पाता है जब उन्हें निरंतर चर्चा में बनाए रखा जाए, उन्हें स्थायित्व देने का प्रयास किया जाए, उन पर मनन-चिंतन के अवसर उपलब्ध कराए जाएं। यह सभी कार्य कर रहा है मध्यप्रदेश के छतरपुर में स्थित बुन्देली विकास संस्थान। इस संस्थान के द्वारा प्रति वर्ष एक पत्रिका प्रकाशित की जाती है। इस पत्रिका का संपादन कार्य इसके आरंभ से ही डाॅ. बहादुर सिंह परमार सम्हाल रहे हैं। पत्रिका के संरक्षक हैं शंकर प्रताप सिंह बुन्देला ‘‘मुन्ना राजा’’। ‘‘बुन्देली बसंत 2025’’ अंक में सह संपादक डाॅ हरिसिंह घोष तथा संपदन सहयोग शिवभूषण सिंह गौतम का है।
विगत 25 वर्ष से अधिक समय हो गया है ‘‘बुन्देली बसंत’’ को निरंतर प्रकाशित होते हुए। समय के उतार-चढ़ाव पर भी यह डिगी नहीं। किसी अव्यवसायिक पत्रिका का निरंतर यूं प्रकाशित हो पाना अपने आप में विशेष बात है क्योंकि विगत कुछ वर्षों में बड़ी-बड़ी पत्रिकाएं जिनका व्यवसायिक धरातल था, या जो साहित्य एवं संस्कृति के लिए समर्पित थीं, उनका प्रकाशन बंद हो गया अथवा उनके स्वामित्व बिक गए और परिणामतः उनका स्वरूप ही बदल गया। ऐसे दुरूह समय में ‘‘बुन्देली बसंत’’ प्रति वर्ष 150 से 200 पृष्ठों में अपना आकार पाती रही। वर्ष 2025 अर्थात् इस वर्ष की ‘‘बुन्देली बसंत’’ 160 पृष्ठों की है। 
इस अंक में बुंदेली साहित्य, संस्कृति, परंपराओं एवं विविध कलाओं से संबंधित प्रचुर सामग्री है जिन्हें प्रमुख पांच खण्डों में बांटा गया है। पहला खंड है भाषा, साहित्य एवं आलोचना। दूसरा खंड है इतिहास, परंपरा और संस्कृति। तीसरे खंड में बुंदेली गद्य रखा गया है। चौथे खंड में बुंदेली काव्य और पांचवें खंड में अन्य लेख हैं। 
प्रथम खंड भाषा साहित्य एवं आलोचना में जो कुल 30 लेख एवं समीक्षाएं दी गई हैं उनमें डॉ गंगा प्रसाद बरसैयां का  ‘‘आश्रमी संत आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल‘‘, सुरेंद्र कुमार श्रीवास्तव सुमन का  ‘‘श्याम का बुंदेली साहित्य सृजन‘‘, सुधा रावत क्षमा का ‘‘सोजा बारे वीर‘‘ डॉ नाथूराम राठौर का ‘‘बुंदेली काव्य में श्याम रंग’’, पंडित जुगल किशोर गंगेले का ‘‘बुंदेली के कुछ गायब होते शब्द और उनके हिंदी मायने‘‘, प्रोफेसर आनंद प्रकाश त्रिपाठी का समीक्षात्मक लेख ‘‘आम नागरिक की चेतना को झंकृत करती बुंदेली गजलें‘‘, डॉ बारेलाल जैन का ‘‘बुंदेलखंड की विभूति महात्मा हरिराम व्यास‘‘, डॉक्टर कामिनी का ‘‘ईसुरी काव्य मीमांसा ग्रंथ का वैशिष्ट्य‘‘, डॉ सरोज गुप्ता का ‘‘भारतीय सांस्कृतिक चेतना के उद्भावक आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल‘‘ तथा  डॉ राम नारायण शर्मा का ‘‘कीर्तिशेष डॉ परशुराम शुक्ल विरही‘‘ आदि हैं।
  द्वितीय खंड में इतिहास परंपरा और संस्कृति से संबंधित 21 लेख रखे गए हैं। इनमें कुछ प्रमुख लेख हैं खजुराहो कला में ‘‘चंदेल शासको का रूपांकन‘‘ डॉ कन्हैया लाल अग्रवाल, ‘‘वीर सपूत बखतबली शाह‘‘ हरगोविंद तिवारी, ‘‘देवल दे - अनूठा व्यक्तित्व‘‘ श्रवण सिंह सेंगर, ‘‘बेड़िया समुदाय की कला परंपरा‘‘ ओमप्रकाश चैबे, ‘‘बुंदेलखंड में श्रवण संस्कृति‘‘ डॉ के एल जैन, ‘‘बुंदेलखंड की बलिदानी बेटियां‘‘ सुरेंद्र अग्निहोत्री, ‘‘ने भूलों के बुंदेलखंड को बीज्जन कम न हतो जलियांवाला से‘‘ डॉ (सुश्री) शरद सिंह, ‘‘लोकनायक लाला हरदौल- पूजित देव अपेक्षित चबूतरे‘‘ शिवम शर्मा, ‘‘बुंदेलखंड के लाल महाराज छत्रसाल‘‘ डॉ प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार तथा ‘‘बुंदेली लोक कलाओं की उपयोगिता‘‘ श्रीमती वंदना शुक्ला आदि।
बुंदेली गद्य खण्ड में ‘‘लोक ज्ञान‘‘, ‘‘संत बसंत‘‘ (लोक कथा),‘‘काकी‘‘ कहानी, ‘‘समोसे में भगवान‘‘ (लघुकथा), ‘‘अब का हुइए ‘‘ (कहानी) ‘‘व्यंग लघु कथाएं‘‘, “ओरछा की गणेश कुंवर के रामराजा (उपन्यास अंश),‘‘एक दिया तुमाए काजैं‘‘ जैसी कुल 8 गद्य रचनाएं रखी गई हैं।
       बुंदेली काव्य खंड में कुल 34 रचनाएं हैं जिनमें गीत गजल कविताएं आई शामिल है। इस खंड में डॉ राज गोस्वामी, पं. राजकुमार पुजारी, डॉ प्रेमलता नीलम, पं. बाबूलाल द्विवेदी मानस ‘मधुप’, वृंदावन राय ‘सरल’, कमलेश सेन, स्वामी प्रसाद श्रीवास्तव, डॉ गणेश राय, प्रेम प्रकाश चौबे, डॉ के. एल. वर्मा बिंदु, सुरेंद्र तिवारी, सुनील केशव देवधर, महेश कटारे ‘सुगम’, दौलत राम प्रजापति, देवदत्त द्विवेदी ‘सरस’, भजनलाल लोधी, डॉ महावीर प्रसाद चंसौलिया, डॉ मालती घोष आदि की काव्य रचनाएं हैं
अन्य के अंतर्गत नई पुस्तकों की जानकारी 25 में बुंदेली उत्सव 2024 का प्रतिवेदन तथा अंकेक्षण प्रतिवेदन के अतिरिक्त डॉ के.बी.एल पांडे से राज नारायण बोहरे की बातचीत सहेजी गई है। 
पत्रिका के संपादक डाॅ. बहादुर सिंह बुन्देली संस्कृति, परंपराओं एवं बुन्देलखण्ड की दशाओं से भली-भांति परिचित हैं। इसीलिए उन्होंने अपने सारगर्भित संपादकीय में जहां बुन्देलखण्ड के सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं ऐतिहासिक वैभव का स्मरण कराया है वहीं इस अंचल की समस्याओं को भी रेखांकित किया है। प्राकृतिक संपादाओं से सुसम्पन्न बुन्देलखण्ड को बेरोजगारी की जिस समस्या से जूझना पड़ रहा है उसे श्रमिकों के पलायन के रूप में देखा जा सकता है। डाॅ. बहादुर सिंह परमार ने संपादकीय में इस दशा का स्पष्ट उल्लेख करते हुए साहित्यकारों से यह आग्रह किया है कि वे वर्तमान समस्याओं पर भी अपनी लेखनी चलाएं जिससे इन समस्याओं का हल निकल सके। उन्होंने लिखा है कि ‘‘बुन्देलखण्ड अंचल में रोजगार की विकट समस्या है। इसके समाधान के लिए कृषि तथा ग्रामीण परिवेश आधारित पांरपरिक लघु उद्यमों की ओर अपने युवाओं को अग्रसर करने के लिए प्रयत्न करना होंगे। समाज की वर्तमान दशा और दिशा पर रचनाकारों को साहित्य रचना चाहिए। आज की स्थिति में सुधार के लिए क्या समाधान हो सकता है? यह बताने का नैतिक दायित्व बुद्धिजीवियों का है। अतः हम सबको इस ओर सोचना चाहिए।’’
‘‘बुन्देली बसंत’’ की यह परम्परा रही है कि वर्ष भर में सदा के लिए बिछुड़ने वाले विद्वानों को श्रद्धांजलि अर्पित करती है। इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए संपादक डाॅ बहादुर सिंह ने लिखा है- ‘‘इस विगत एक वर्ष में हम से भारतीय साहित्य अकादमी से सम्मानित बुंदेली ललित निबंधकार आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल, समर्थ आलोचक डॉ. लखनलाल खरे, डॉ. परशुराम शुक्ल ‘‘विरही’’ तथा डॉ. अयोध्या प्रसाद गुप्त ‘‘कुमुद’’ जैसी विभूतियां कायिक रूप से बिछुड़ी हैं। इनकी रचनायें हमारी प्रेरणा स्रोत रहेंगी। इन्हें बुंदेली बसंत परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।’’ 
वस्तुतः किसी भी क्षेत्र की लोक परंपराएं उस क्षेत्र की विशेषताएं होती हैं। उनमें उस क्षेत्र विशेष की जातीयता मौजूद होती है। परंपरा का मतलब है किसी विशेष संस्कृति या समाज की मूल विचारधारा। यह एक समुदाय द्वारा अपनी संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज और अन्य सामाजिक मान्यताओं का आदर्श माना जाता है.दर्शन, चिंतन, नैतिकता, आदर्श, परंपराएं, लोकाचार आदि संस्कृति के ही घटक हैं। लोकगाथा लोक साहित्य का एक अलग रूप है। वीर गीत, नृत्य गीत तथा आख्यान गीत आदि को लोक-गाथा माना जा सकता है। मनुष्य के सांस्कृतिक विकास के सोपानों में लोक-गाथाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। लोक साहित्य एवं परंपरा अपने तत्कालीन समय की पहचान होती है। लोक साहित्य और लोक संस्कृति मूलतः व्यापक समाज की संपदा होते हैं। समाज जड़ नहीं होता, बल्कि समय के साथ बदलता चलता है। लोक साहित्य की विशेषता यह है कि यह हमें युगों-युगों से मौखिक परंपरा से प्राप्त होता है, इसके रचयिता का भी पता नहीं चलता और समस्त लोक उसे अपनी ही रचना समझता है। एक ही तरह के लोक-गीत या लोक कथा के कई-कई रूप मिलना ही लोक साहित्य की विशेषता है। 
यदि इतिहास का संदर्भ लें तो समय परिवर्तन के साथ इतिहास धुंधला पड़ने लगता है, यदि हम उसे याद न रखें तो। अतीत में घटित अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं गल्प प्रतीत होने लगती हैं। इन्हें इनकी वास्तविकता के साथ अपनी स्मृति में बनाए रखने के लिए इनका लेखन, पुनर्लेखन दोनों आवश्यक है। इस दिशा में ‘‘बुंदेली बसंत’’ का यह अंक सम्पूर्ण उपादेयता से परिपूर्ण है। इस अंक की रचनाओं को पढ़ कर बुन्देलखण्ड के अतीत वर्तमान तथा भविष्य को भली-भांति समझा जा सकता है। इसमें सभी लेख गहन शोध से उपजे हैं तथा काव्य रचनाएं लोकमाटी की सुगंध समेटे हुए हैं। वहीं, कहानी एवं व्यंग्य बुन्देलखण्ड के लोकाचार एवं मूल चरित्र से परिचित कराने वाले हैं। सामग्री को पढ़ कर ही समझ में आ जाता है कि संपादक ने रचनाओं के चयन में हमेशा की तरह पूर्ण सावधानी एवं कठोरता बरती है। अनुपयोगी अथवा अर्थहीन रचनाओं को कोई स्थान नहीं दिया है। पत्रिका का मुखपृष्ठ प्रांजल कटारे ने अपने चित्रांकन से सजाया है जिसमें बुन्देलखण्ड की नृत्य परंपरा में ‘‘दुलदुल घोड़ी’’ के नृत्य को दर्शाया है, जिससे मुखपृष्ठ आकर्षक एवं अर्थवान बन गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘‘बुंदेली बसंत 2025’’ पठनीय एवं संग्रहणीय है।   
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