Wednesday, March 26, 2025

चर्चा प्लस | महादेवी वर्मा रुदन की कवयित्री नहीं, अग्निधर्मा थीं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
     महादेवी वर्मा रुदन की कवयित्री नहीं, अग्निधर्मा थीं
       - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       ‘‘मैं नीर भरी दुख की बदली’’ या आंचल में है दूध और आंखों में पानी’’ जैसी अपनी पंक्तियों से अमरत्व पा गईं महादेवी वर्मा का जीवन अत्यंत उतार-चढ़ाव वाला रहा। किन्तु उन्होंने काव्य को अपना सहारा बना कर सारे झंझावत का डट कर सामना किया। आज महादेवी वर्मा का काव्य पाठ्य पुस्तकों के पन्नों में सिमट कर रह गया है क्योंकि साहित्य के प्रति रुझान की कमी ने महादेवी वर्मा के काव्य को भी अनेदेखा करना शुरू कर दिया है। जबकि उनका काव्य तत्कालीन स्त्री-दशा का काव्यात्मक इतिहास है।                                                     
      पद्मविभूषण महादेवी वर्मा जिन्हें ‘‘आधुनिक मीरा’’ कहा जाता है हिन्दी साहित्य जगत में अपने लेखन से गहरी छाप छोड़ गई हैं। उनका सृजन किसी सम्मान या पुरस्कार का माहताज़ नहीं था किन्तु पाठकों के साथ ही सरकार और फिल्मी दुनिया ने भी उनकी रचनाओं को सम्मान दिया। सन 1956 में उन्हें ‘‘पद्म भूषण’’ से सम्मानित किया गया। सन 1979 में उन्हें साहित्य अकादमी फैलोशिप प्रदान की गई। सन 1979 में ही प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्माता मृणाल सेन ने महादेवी वर्मा के संस्मरण ‘‘वो चीनी भाई’’ ,पर ‘‘नील आकाशेर नीची’’ नाम से बांगला में फिल्म का निर्माण किया । सन 1982 में उनके कविता संग्रह ‘‘यम’’ के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन 1987 में इलाहाबाद में उनका निधन हो गया तथा मरणोपरांत उन्हें सन 1988 में ‘‘पद्म विभूषण’’ प्रदान किया गया। 14 सितम्बर 1991 को भारत सरकार के डाकविभाग ने महादेवी वर्मा और जयशंकर प्रसाद के सम्मान में दो रुपए का डबल डाक टिकट जारी किया था।

महादेवी वर्मा को ‘‘आधुनिक मीरा’’ कहा जाना एकदम उचित है क्योंकि उनकी जीवनशैली एवं उनके सृजन में अपनी भावनाओं को ले कर एक निष्ठा भरा विद्रोह था। जो उन्हें मात्र दुख की कवयित्री मानते हैं वे महादेवी वर्मा को समझ नहीं सके हैं। महादेवी के के सृजन की भूमि मानवता है और मानवता रुदन का पर्याय कभी हो ही नहीं सकती है। मानवता में जागरण, विश्वास और आत्मसम्मान की आग होती है जो दीपक की लौ की भांति चेतना को निरंतर प्रकाशित करती रहती है। प्रभाकर श्रोत्रिय का भी यही मानना रहा कि ‘‘जो लोग उन्हें पीड़ा और निराशा की कवयित्री मानते हैं, वे नहीं जानते कि जीवन के सत्य को उजागर करने वाली उस पीड़ा में कितनी आग है।’’
महादेवी वर्मा महिलाओं की जागरूकता की पक्षधर थीं। वे स्त्रियों के लिए शिक्षा को आवश्यक मानती थीं। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे इसकी प्राचार्य भी रहीं। सन 1923 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘‘चांद’’ का कार्यभार सम्हाला। इससे भी आगे बढ़ कर सन 1955 में उन्होंने इलाहाबाद में साहित्यिक संसद की स्थापना की। वे चाहती थीं कि पुरुषों की भांति स्त्रियों की भी साहित्य में सहभागिता बढ़े। जाता है कि उन्होंने देश में महिला कवि सम्मेलनों के आयोजन आरंभ किए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान दिया। 

सन 1937 में महादेवी वर्मा ने उत्तराखंड में नैनीताल से 25 किलोमीटर दूर रामगढ़ में रहने गईं। वहां उन्होंने अपने घर का नाम ‘‘मीरा मंदिर’’ रखा। वे वहां दुट्टियां बिताने नहीं गई थीं। अपितु वे वहां के जीवन को समझने के लिए गई थीं। उन्हें महसूस हुआ कि उस अंचल में ग्रामीणों में शिक्षा की अत्यंत कमी है उन्होंने वहां शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य किया। उन्होंने विशेष रूप से महिला शिक्षा को अपने केन्द्र में रखा क्योंकि वे जानती थीं सुशिक्षित महिला आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ जी सकती है।
महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में सन 1907 में 26 मार्च होली के दिन हुआ था। उनके परिवार में लगभग सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः उनके बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ महिला थीं। महादेवी वर्मा की आरंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई और एम. ए. उन्होंने संस्कृत में प्रयाग विश्वविद्यालय से किया। बचपन से ही चित्रकला, संगीतकला और काव्यकला में उनकी अगाध रुचि रही। उन दिनों बालविवाह की प्रथा थी। अतः मात्र 9 वर्ष की आयु में महादेवी वर्मा का विवाह कर दिया गया। इससे उनकी शिक्षा में भी बाधा पड़ी। वे अपने वैवाहिक जीवन से समझौता नहीं कर पा रही थीं अतः अपने मायके वापस आ गईं और अपनी शिक्षा जारी रखी। महादेवी जी की शिक्षा इन्दौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। 1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चैहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चैहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― ‘‘सुनो, ये कविता भी लिखती हैं।’’ 1932 में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए. पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह ‘‘निहार’’ तथा ‘‘रश्मि’’ प्रकाशित हो चुके थे। 29 वर्ष की आयु तक वे एक प्रतिष्ठित कवयित्री बन गई थीं। सुमित्रानन्दन पन्त एवं सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ उनके मानस बंधु थे। वे जीवनपर्यन्त उन्हें राखी बांधती रहीं। 
भले ही महादेवी का वक्वाहिक जीवन सामान्य नहीं रहा किन्तु उनकी अपने पति के प्रति कोई वैमनस्यता भी नहीं रही। सन् 1916 में उनके बाबा बांके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। यह बालविवाह का दुष्परिणाम था कि महादेवी वर्मा अपने विवाहित जीवन को समझ ही नहीं सकीं। वे मायके लौट गईं किन्तु स्वरूप नारायण वर्मा को उन्होंने कभी दोषी नहीं ठहराया। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। कभी-कभी उनके पति इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। स्वरूप नारायण वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् 1966 में पति की मृत्यु के बाद वे स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं। 

महादेवी एक सजग रचनाकार थीं। सन 1943 में बंगाल के अकाल के समय उन्होंने बंगाल से सम्बंधित ‘‘बंग भू शत वंदना’’ नामक कविता भी लिखी थी। इसी प्रकार चीन के आक्रमण के प्रतिवाद में ‘‘हिमालय’’ नामक काव्य संग्रह का सम्पादन किया था। स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निन्दा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया।

महादेवी वर्मा के कविता संग्रह हैं- कविता संग्रह निहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1934), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), सप्तपर्णा (अनूदित-(1959), प्रथम आयाम (1974) और अग्निरेखा (1990)। उन्होंने रेखाचित्र भी लिखे- स्मृति की रेखाएं (1943) और‘‘अतीत के चलचित्र’’ (1949)। संस्मरण - ‘‘पथ के साथी’’ (1956) ‘‘मेरा परिवार’’ (1972)। उन्होंने कहानियां, बाल कविताएं और ललित निबंध भी लिखे।
यह माना जाता है कि महादेवी वर्मा रहस्यवाद और छायावाद की कवयित्री थीं। कई आलोचक मानते हैं कि उनकी कविताओं में आत्मा-परमात्मा के मिलन विरह तथा प्रकृति के व्यापारों की छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। साथ ही यह भी मानते हैं कि वेदना और पीड़ा महादेवी जी की कविता के प्राण रहे। उनकी वेदना को पूरी तरह न समझ पाने वाले उन्हें निराशावाद अथवा पीड़ावाद की कवयित्री कहते है। यह सच है कि उन्होंने स्वयं लिखा हैं कि ‘‘दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जिसमें सारे संसार को एक सूत्र में बांध रखने की क्षमता है।’’ लेकिन वहीं वे कहती हैं कि, ‘‘मुझे दुःख के दोनों ही रूप प्रिय हैं। एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बंधनों में बांध देता है और दूसरा वह, जो काल और सीमा के बंधन में पड़े हुए असीम चेतना का क्रंदन है।’’ इसीलिए डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तो उनके काव्य की पीड़ा को मीरा की काव्य-पीड़ा से भी बढ़कर माना। 
समस्त मानव जीवन को वे निराशा और व्यथा से परिपूर्ण रूप में देखती थीं। वे अपने को नीर भरी बदली के समान बतलाती किन्तु इसमें मात्र उनकी निजी पीड़ा नहीं वरन समस्त स्त्रियों की पीड़ा उसमें निहित है -
मैं नीर भरी दुख की बदली।
विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना।
परिचय इतना इतिहास यही- उमड़ी थी कल मिट आज चली।
‘‘अग्निरेखा’’ में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएँ लिखी गयी हैं। साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएँ हैं। महादेवी वर्मा मानती थीं कि अंधकार से सूर्य नहीं दीपक जूझता है-
रात के इस सघन अंधेरे में जूझता सूर्य नहीं, जूझता रहा दीपक!
कौन सी रश्मि कब हुई कम्पित, कौन आंधी वहाँ पहुँच पायी?
कौन ठहरा सका उसे पल भर, कौन सी फूंक कब बुझा पायी।।

महादेवी जी आरंभ में कुछ कविताएं ब्रजभाषा में लिखीं, फिर बाद का संपूर्ण रचनाएं खड़ी बोली में हुई हैं। महादेवी जी की खड़ी बोली संस्कृत-मिश्रित है। वह मधुर कोमल और प्रवाह पूर्ण हैं। वस्तुतः महादेवी वर्मा अपने युग की प्रतिनिधि कवयित्री कही जा सकती हैं। यद्यपि उनकी कविताओं को समुचित ढंग से व्याख्यायित किया जाना अभी शेष है कजसमें उनकी वेदना के साथ उनका अग्निधर्मा तत्व भी बराबरी से सामने आए।  
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1 comment:

  1. महादेवी वर्मा पर सुंदर आलेख, आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ मैथिली शरण गुप्त की लिखी रचना की पंक्ति है

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