Friday, March 7, 2025

शून्यकाल | आज के माहौल को सही दिशा दे सकता है महाराजा छत्रसाल का स्त्रीविमर्श | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम- शून्यकाल
       आज के माहौल को सही दिशा दे सकता है महाराजा छत्रसाल का स्त्रीविमर्श
       - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       वर्तमान में जिस तरह से स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ते जा रहे हैं और उनके प्रति चिन्ता व्यक्त की जा रही है वह अत्यंत विचारणीय है। स्त्रियों के प्रति अपराध करने वालों को किस प्रकार का दण्ड दिया जाना चाहिए या इन अपराधों में दोष किसका है? इस तरह के प्रश्न मन में बार-बार उठते हैं। इस संदर्भ में यदि इतिहास के पन्ने पलटे जाएं और महाराज छत्रसाल के स्त्री विमर्श को देखा जाए तो सभी प्रश्नों के उत्तर स्वतः मिल जाएंगे। इस प्रश्न का भी कि समाज में स्त्रियों के प्रति कैसा आचरण होना चाहिए।
      स्त्रियों के संदर्भ में महाराज छत्रसाल ने अपने चारित्रिक मापदण्ड को सदा ऊंचा बनाए रखा और यही अपेक्षा उन्होंने अपनी प्रजा और अपने सिपाहियों से भी की। इस बारे में एक और घटना सुनाता है कि जब गढ़ाकोटा के किलेदार इख़लास खां और महाराजा छत्रसाल के बीच युद्ध हुआ जिसमें इख़लास खां मारा गया तो छत्रसाल का गढ़ाकोटा के किले पर अधिकार हो गया। छत्रसाल के कुछ सिपाही जीत की खुशी में मदिरापान करने लगे और नशे में वे अपने राजा के आदेश को भूल गए। उन सिपाहियों ने इख़लास खां के परिवार की कुछ औरतों और लड़कियों को बुरे इरादों से बंदी बना लिया। महाराज छत्रसाल यह सूचना पा कर आगबबूला हो उठे और वे ललकारते हुए नंगी तलवार ले कर सिपाहियों के पास पहुंचे। महाराज छत्रसाल ने सिपाहियों से पूछा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? तो सिपाहियों ने कहा कि शत्रु की स्त्रियां तो बंादी या लूट के सामान की भांति होती हैं। यह सुन कर छत्रसाल तमतमा उठे -‘चुप रहो निर्लज्ज! ये सब तुम्हारी माताओं और बहनों के समान हैं! चलो, इनसे माफ़ी मांगो!’
         महाराज का रौद्र रूप देख कर सिपाही डर गए और उन्होंने उन बंदी औरतों से क्षमा मांगी और महाराज से भी क्षमा मांगने लगे। तब छत्रसाल ने कहा कि-‘‘ऐसी ग़लती के लिए हम छत्रसाल बुन्देला कभी क्षमा नहीं कर सकते....इस धरती पर जो भी स्त्रियों का अपमान करता है वो हमारा सबसे बड़ा शत्रु है.....और शत्रु का सिर काटे बिना हमारी तलवार अपनी म्यान में कभी वापस नहीं जाती हैे!’’ छत्रसाल ने अपनी तलवार से उन सिपाहियों के सिर धड़ से अलग कर दिए। 
      यह देख कर वे औरतें दंग रह गईं और उन्होंने छत्रसाल से पूछा कि जब सिपाहियों ने हमसे माफी मांग ली थी तो फिर उन्हें क्यों मारा? इस पर छत्रसाल ने उत्तर दिया कि-‘‘ये दण्ड तो उन्हें मिलना ही था। हमारे राज्य में जो भी इंसान औरतों से बदसलूकी करने के बारे में सोचेगा उसे इसी तरह कठोर दण्ड दिया जाएगा। यह बात हमारे सभी सिपाहियों और हमारी प्रजा को भी याद रखनी चाहिए। हमने उन्हें आप लोगों से माफ़ी मांगने का मौका इसलिए दिया था कि वे मरने से पहले अपनी गलती का अहसास कर सकें और अपनी गलती  के लिए सिर झुका सकें।’’ 
       यह सुन कर वे औरतें भावविभोर हो उठीं और छत्रसाल को दुआएं देते हुए बोलीं, ‘‘आपने जब इख़लास खां को मौत के घाट उतार कर गढ़ाकोटा का यह किला अपने कब्ज़े में किया तो हमें अफ़सोस हुआ था लेकिन इस वक़्त हमें फ़ख्र महसूस हो रहा है कि यह किला सही हाथों में गया है।’’ 

      महाराज छत्रसाल गुणों के आधार पर स्त्री और पुरुष को बराबर मानते थे। अपने इस विचार को उन्होंने अपने जीवन पर भी लागू किया और उन्होंने अपनी रानियों के गुणों को विकसित होने का समुचित अवसर प्रदान किया। महाराज स्वयं तो कवि थे ही, उनकी रानी कमलापति भी विदुषी कवयित्री थीं। वे उदगवां नोनेर के पंवारों की पुत्री थीं। महाराज उनकी कविताओं के बहुत बड़े प्रशंसक थे।  एक बार महाराज छत्रसाल किसी सैनिक अभियान पर गए थे। उस दौरान भगवत नाम के एक कवि उनके दर्शन करने मऊ पधारे। बहुत दिन तक जब महाराज नहीं लौटे तो कवि ने निराश हो कर महाराज के महल के दरवाजे पर खड़े हो कर ऊंची आवाज़ में एक दोहा पढ़ा। दोहा इस प्रकार था-
चल ‘भगवत’ चलिए जहां, शीतल झिरियन नीर।
बड़ी  समुद्र  का  सेइये, प्यासन मरियत तीर।।
संयोगवश अटारी पर बैठी रानी कमलापति को कवि का यह दोहा सुनाई पड़ गया। उन्होंने तत्काल हाथों कुछ धन के साथ उत्तर में एक दोहा लिख भेजा। वह दोहा इस प्रकार था-
भगवत गति जानी नहीं, का झिरियन को नीर।
बड़ौ समुद्र  ना छोड़िये, निकसत रतन गंभीर।। 

       महाराज छत्रसाल मानते थे कि इस पुरुषप्रधान समाज में पहला उत्तरदायित्व पुरुष है कि वह संयम रखे और स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करे। इस संबंध में एक रोचक घटना है कि महाराज छत्रसाल ने स्वयं विचलित हुए बिना एक स्त्री की भावनाओं का किस प्रकार सम्मान किया। यह बात उस समय की है जब वीर बुंदेले छत्रसाल युवा थे। एक दिन, ग्रीष्म ऋतु का दोपहर का समय था। ऐसे ही समय में छत्रसाल अश्व पर सवार होकर अपने चार साथियों के साथ कहीं जा रहे थे, यदाकदा वे स्वयं भी शत्रु की खोज खबर लेने को निकला करते थे। छत्रसाल घोड़े को दौड़ाते आगे ही बढ़ते चले गए। उनका घोड़ा जिसे वे ‘‘भलेभाई’’ के नाम से पुकारते थे, वह भी बुरी तरह से हांफ रहा था। भलेभाई की दशा देखकर छत्रसाल को तरस आ गया। महाराज ने वहीं रुक कर एक पेड़ की छांव में उसे बांध दिया। अपने साथियों सहित स्वयं विश्राम करने के लिए दूसरे पेड़ की छाया मंे लेट गए। उनकी आंख लग गई। पर वीर योद्धा की नींद कभी इतनी गहरी नहीं होती है कि उसे किसी आहट का पता ही न चले। नींद में ही उन्हें पायल की ध्वनि सुनाई दी। पायल की आवाज़ सुन कर छत्रसाल जाग गए। आंखें खुली तो उन्होंने देखा कि एक रूपवती युवती उनके पास खड़ी थी और उनको एकटक निहारे जा रही थी। वे हड़बड़ा कर उठ बैठे। उनके साथी भी जाग गए। 
‘देवी आप कौन हैं और आप यहां क्या कर रही हैं?’ छत्रसाल ने चकित स्वर में पूछा। उस स्त्री ने बताया कि उसका नाम सुन्दरी है और वह चाहती है कि महाराज उसका वरण कर लें। महाराज छत्रसाल यह सुन कर चकित रह गए। फिरभी उन्होंने पूछाकि वह क्यों ऐसा चाहती है? तब उस स्त्री ने लजाते हुए कहा कि ‘‘मेरी इच्छा हैकि आप के जैसा वीर पराक्रमी मेरा पुत्र हो। बस, इसीलिए मैं चाहती हूं कि आप मुझसे विवाह कर लें।’’ 
महाराज छत्रसाल उसकी बात सुन कर नाराज नहीं हुए, बल्कि उन्होंने झुक कर उस स्त्री के पांव छुए और कहा,‘‘आप मेरे जैसा पुत्र चाहती हैं न? तो मेरे जैसा क्यों? मुझे ही अपना पुत्र स्वीकार कीजिए माता! मैं आज आपको यह वचन देता हूं कि मैं सदा आपको अपनी माता का मान दूंगा और आज से आप मेरी ‘बऊआ जू’ कहलाएंगी!’’ वह स्त्री महाराज छत्रसाल की सच्चरित्रता देख कर गदगद हो गई। वहां उपस्थित सभी सिपाहियों ने महाराज के जयकारे लगाए। 

      विचारणीय है कि राजाशाही समय में सुन्दर स्त्रियां राजाओं और राजपरिवारों के हाथों का खिलौना बना दी जाती थीं, उस युग में महाराज छत्रसाल ने एक सुन्दर, युवा स्त्री को अपनी माता का दर्ज़ा दे कर वह आदर्श प्रस्तुत किया जिसने बुन्देला राज्य के प्रत्येक पुरुष का मार्गनिर्देशन किया। महाराज छत्रसाल ने समस्त पुरुषों के लिए एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जो इससे पहले कभी किसी राजा ने प्रस्तुत नहीं किया था। उन्होंने अपने पौरुष का अनुचित लाभ नहीं लिया बल्कि उस स्त्री को माता मान कर उसके स्त्रीत्व को सम्मान दिया। यदि कोई स्त्री स्वयं आग्रह कर रही हो तो पुरुष के लिए संयम रखना कठिन हो जाता है किन्तु महाराज छत्रसाल ने सिद्ध कर दिया कि स्त्री के प्रति भावनाओं की स्वच्छता किसी भी प्रकार के चारित्रिक पतन को रोक सकती है। जब समाज पुरुषप्रधान है तो पुरुषों को भी आत्मनियंत्रण साधना होगा तभी समाज में स्त्रियां सुरक्षित रह सकती हैं। यही तो मूलमंत्र है महाराज छत्रसाल के स्त्रीविमर्श का।
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