Friday, March 14, 2025

शून्यकाल | राजिंदर सिंह बेदी की फिल्म ‘फागुन’ और होली का समाजशास्त्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम- शून्यकाल
शून्यकाल
    राजिंदर सिंह बेदी की फिल्म ‘फागुन’ और होली का समाजशास्त्र
       - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       होली रंगों, उमंगों और उत्साह का त्योहार है। फिल्मकारों को भी होली का दृश्य दिखाना बड़ा अच्छा लगता है। ऐसी अनेक हिन्दी फिल्में हैं जिनमें होली के गाने सिर्फ़ इसलिए रखे गए ताकि वह फिल्म दर्शकों में लोकप्रिय हो सके। कई फिल्में अपने होली के गानों के दम पर ही स्मृति में जगह बनाए रखती हैं जिनमें एक उल्लेख तो पुरानी फिल्म ‘‘नवरंग’’ का उस गाने का किया जा सकता है-‘‘आया होली का त्योहार...’’ और दूसरा अमिताब बच्चन की फिल्म ‘‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली...’’। इनके अतिरिक्त फिल्म ‘‘शोले’’ का गाना ‘‘होली के दिन दिल मिल जाते हैं’’ भला कौन भुला सकता है? लेकिन आज जब टीवी के पर्दे पर कलाकार नए चाकाचक सफेद कपड़े पहन कर होली खेलते दिखते हैं तो याद आ जाती है राजिन्दर सिंह बेदी की फिल्म ‘‘फागुन’’ और उसका समाजशास्त्र। 

      धर्मेन्द्र और वहीदा रहमान की फिल्म ‘‘फागुन’’ पहली बार सिनेमाघऱ में उस आयु में देखी थी जब फिल्म की कहानी तो समझ में नहीं आई थी लेकिन होली का दृश्य धुंधला-धुंधला याद रह गया था। फिर कई वर्ष बाद जब मैं राजिन्दर सिंह बेदी के बारे में पढ़ रही थी तो पता चला कि फिल्म ‘‘फागुन’’ की कहानी उन्होंने लिखी थी। राजेन्द्र सिंह बेदी ने एक से बढ़ कर एक कहानियां लिखीं। वे कहानीकार, डायलाग राईटर, स्क्रीनप्ले राईटर, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर भी थे। उनकी सुपरहिट फिल्में थीं ‘बड़ी ‘बहन’, ‘दाग’, ‘मिर्जा गालिब’, ‘देव दास’, ‘गर्म कोट’, ‘मिलाप’, ‘बसंत बहार’, ‘मुसाफिर’, ‘मधूमती’, ‘मेम दीदी’, ‘आस का पंछी’, ‘बंबई का बाबू’, ‘अनुराधा’, ‘रंगोली’, ‘मेरे सनम’, ‘बहारों के सपने’, ‘अनुपमा’, ‘मेरे हमदम मेरे दोस्त’, ‘सत्य काम’, ‘दस्तक’, ‘ग्रहण’, ‘अभिमान’, ‘फागुन’, ‘नवाब साहब’, ‘मुट्ठी भर चावल’, ‘आंखन देखी’ और ‘एक चादर मैली सी’। इनमें से कुछ फिल्में मैंने टीवी पर देखी तो कुछ यूट्यूब पर। राजिन्दर सिंह बेदी को सन 1956 में  ‘गर्म कोट’ के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्म फेयर अवार्ड दिया गया था और दूसरा फिल्म फेयर अवार्ड उनको ‘मधुमती’ के बेहतरीन संवादों के लिए और फिर तीसरा 1971 में ‘सत्यकाम’ के संवाद के लिए दिया गया था। राजिन्दर सिंह बेदी की कहानियों को पढ़ने और ‘एक चादर मैली सी’ फिल्म देखने के बाद मुझे लगा कि उनकी फिल्म फागुन में जरूर कोई विशेष बात रही होगी। फिर मैंने इंटरनेट पर इस फिल्म को ढूंढ निकाला और कई-कई बार देखा। इस फिल्म को जितनी बार देखा, उतनी बार फिल्म भारतीय सामाजशास्त्र का विश्लेषण करती दिखाई दी।  

  सन 1973 में रिलीज हुई फिल्म फागुन की कहानी कुछ इस प्रकार है- फिल्म की नायिका शांता धामले अपने पिता शमराव और मां अनसूया के साथ मुंबई में रहती है। उसका परिवार आर्थिक रूप से समृद्ध है। उसकी अमीरी भरी जीवनशैली में एक निम्न मध्यमवर्गीय युवक कौतूहल बन कर आता है। गोपाल नामक वह युवक अति संवेदनशील लेखक है। शांता को गोपाल से प्रेम हो जाता है और वह जिद कर के उससे शादी कर लेती है। शांता का पिता गोपाल को घरजवाईं बना लेता है और उसे अपमानित करता रहता है। फिर भी गोपाल शांता के प्रेम के कारण चुप रहता है। लेकिन होली के अवसर पर कुछ ऐसी घटना घटती है जिससे वह विचलित हो जाता है। दरअसल होली पर उसे पता चलता है कि उसकी नई किताब ‘‘अगला कदम’’ प्रकाशित हो गई है। इस खुशी में उसे ध्यान नहीं रहता है और वह अपनी पत्नी शांता को रंग-गुलाल लगाने लगता है। उस रंग-गुलाल से शांता की कीमती साड़ी खराब हो जाती है और वह गुस्से से भर कर कह उठती है कि एक मंहगी साड़ी तो ला नहीं सकते मगर मेरी यह साड़ी खराब कर दी। शांता की यह बात गोपाल को चुभ जाती है और वह उसी पल घर छोड़ कर चला जाता है। उस समय शांता गर्भवती थी। गोपाल नाम बदल कर संतोष के छद्म नाम से लिखना शुरू कर देता है। शांता उसका पता लगा कर उससे संपर्क करना चाहती है लेकिन गोपाल अपना नाम बदलकर पहले विवेक और फिर चित्रांग रख लेता है। इस प्रकार वह शांता से दूर भागता रहता है। यद्यपि उसे यह पता रहता है कि उसकी एक बेटी है। चार साल बाद जब होली से एक दिन पहले, उसने पर्याप्त धन, कई महंगी साड़ियां, अपनी बेटी के लिए एक गुड़िया इकट्ठा कर ली है और वापस लौटने के लिए तैयार है, लेकिन उसका घर और सारी साड़ियां जल जाती हैं। वह एक बार फिर टूट जाता है। इधर शांता अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद अपनी बेटी संतोष को अकेले ही पालती है और सुनिश्चित करती है कि उसे अच्छी शिक्षा मिले। संतोष एक अनाथ डॉ. सुमन से मिलती है और दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं। शांता सुमन से मिलती है, उसे स्वीकार करती है और उनकी शादी तय करती है। सुमन और संतोष के उसके घर में रहने के बाद, शांता भी अपनी बेटी और दामाद के साथ रहने लगती है।

       यहां से कहानी एक नया मोड़ लेती है। ऑफिस जाते समय जो टिफिन पत्नी को लगा कर देना होता है वह सास तैयार कर के पकड़ाने लगती है। दामाद के जूते, मोजे, रूमाल और कपड़ों का खयाल भी सास रखने लगती है। इस तरह शांता अपने पति की देखभाल न कर पाने की अधूरी रह गई इच्छा के वशीभूत अपने दामाद की सेवा में इस तरह जुट जाती है कि जैसे वे सारे दायित्व उसके अपने हों। वह भूल जाती है कि यह दायित्व भरी खुशियां उसकी बेटी को मिलनी चाहिए और उनके उसका कोई अधिकार नहीं है। जिससे दामाद और बेटी को उससे खीझ होने लगती है। तब तक शांता को अहसास हो चुका होता है कि उसके एक छोटे से ताने ने उसका पूरा जीवन किस तरह तबाह कर दिया। अंत में गोपाल और शांता का फिर मिलन हो जाता है किन्तु युवावस्था के वे सुनहरे दिन लौट कर आने वाले नहीं थे जो दोनों की भूल के कारण नष्ट हो गए। शांता से यह भूल हुई थी कि उसने रंगों से अपनी कीमती साड़ी खराब होने पर कटु वचन कह दिए थे, वहीं गोपाल मात्र इस हठ में शांता से दूर भागता रहा कि वह एक दिन ढेर सारा धन और साड़ियां ले कर लौटेगा और शांता की बात को झुठला देगा जिसमें वह कभी सफल नहीं हो सका। किस्मत ने उसे भी अपनी भूल का अहसास करा दिया। वस्तुतः गोपाल भी उस स्थिति को नहीं समझ सका जिसमें एक गरीब से शादी करने के एवज में शांता को भी प्रतिदिन ताने सुनने पड़ रहे थे। यदि वह शांता को साथ ले कर घर छोड़ता तो शायद वे दोनों एक साथ रह कर सुखी जीवन बिता पाते।    

      पारिवारिक जटिलताओं को जमीनी सच्चाई के साथ सामने रखने में माहिर लेखक राजिन्दर सिंह बेदी ने फिल्म ‘‘फागुन’’ की कहानी में होली के त्योहार के माध्यम से भारतीय समाजशास्त्र के पूरे ढांचे को सामने ला खड़ा किया। भारतीय समाज में घरजवाईं का सम्मान नहीं किया जाता है, प्रेम विवाह को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है, पति-पत्नी के रिश्ते आपसी प्यार और सम्मान पर टिके होते हैं, तानों और अपमान पर नहीं। दामाद और सास का रिश्ता उस सीमा तक ही घनिष्ठ रहे तो उचित होता है जहां तक वह बेटी के पत्नीत्व के अधिकारों में हस्तक्षेप न करे। इस गंभीर पारिवारिक कहानी का आधार होली के त्योहार को बनाते हुए राजिन्दर सिंह बेदी शायद यह संदेश भी देना चाहते थे कि भले ही होली पर कहा जाता है कि ‘‘बुरा न मानो होली है’’, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि होली की आड़ में कोई भी असहनीय बात कह दी जाए। 

      राजिंदर सिंह बेदी द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म ‘‘फागुन’’ में धर्मेंद्र, वहीदा रहमान, जया भादुड़ी और विजय अरोड़ा ने अभिनय किया था। धर्मेन्द्र लेखक गोपाल के रोल में, वहीदा रहमान उसकी प्रेमिका और पत्नी की भूमिका में, जया भदुड़ी ने गोपाल और शांता की बेटी तथा विजय आरोड़ा शांता के दामाद का भूमिका अदा की थी। 

        1 सितंबर 1915 को लाहौर में जन्मे राजिन्दर सिंह बेदी अपनी कहानियों पर बहुत मेहनत करते हैं। अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में बेदी का कहना था कि ‘‘मैं कल्पना की कला में विश्वास करता हूं। जब कोई वाकिया निगाह में आता है तो मैं उसे विस्तारपूर्वक बयान करने की कोशिश नहीं करता बल्कि वास्तविकता और कल्पना के संयोजन से जो चीज पैदा होती है उसे लेखन में लाने की कोशिश करता हूं। मेरे खयाल में वास्तविकता को व्यक्त करने के लिए एक रूमानी दृष्टिकोण की जरूरत है बल्कि अवलोकन के बाद, प्रस्तुत करने के अंदाज के बारे में सोचना स्वयं में किसी हद तक रूमानी तर्ज-ए-अमल है।’’ ठीक यही किया उन्होंने ‘‘फागुन’’ का स्क्रीनप्ले लिखने में। एक बार मंटो ने बेदी से कहा था, ‘‘तुम लिखने को ले कर सोचते बहुत हो। लिखने से पहले सोचते हो, लिखने के दौरान सोचते हो और लिखने के बाद सोचते हो।’’ इसके जवाब में बेदी ने हंस कर उत्तर दिया था कि ‘‘सिख कुछ और हों या न हों, कारीगर अच्छे होते हैं।” उनकी इसी कारीगरी ने होली के त्योहार में वह समाजशास्त्र रच दिया जिसने  फिल्म “फागुन” को विशिष्ट बना दिया।   
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