आज 22.07.2025 को 'आचरण' में पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
महत्वपूर्ण हैं शुष्क होते समय में सरस भावपूर्ण ये श्रृंगार गीत
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - डाॅ. जड़िया के श्रृंगार गीत
कवि - पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया
प्रकाशक - शशिभूषण जड़िया, विनायक जड़िया, हरपालपुर, छतरपुर, म.प्र.- 471111
मूल्य - 200/-
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17 अगस्त 1948 को हरपालपुर में जन्मे कवि अवध किशोर जड़िया के माता-पिता श्रीमती बृजरानी वैद्य एवं राजवैद्य बृजलाल वैद्य ने भी नहीं सोचा रहा होगा कि उनके सपनों को पूर्ण करते हुए बी.ए.एम.एस में स्वर्ण पदक प्राप्त कर आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी तक का सफर तय करने वाले उनके पुत्र को एक दिन साहित्य सेवा के लिए ‘‘पद्श्री’’ से सम्मानित किया जाएगा। सन 1973 से मंचों पर धूम मचाने वाले एवं अपने पारंपरिक छंदों के लिए ख्यातिलब्ध पद्मश्री डाॅ. अवध किशोर जड़िया आज भी सृजनशील हैं तथा विविध काव्य विधाओं में रचनाएं लिख रहे हैं। अब तक उनकी छः कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इसी वर्ष प्रकाशित कृति ‘‘डाॅ. जड़िया के श्रृंगार गीत’’ में सरस श्रृंगार गीत हैं। पुस्तक की भूमिका में डाॅ. गंगा प्रसाद बरसैंया ने लिखा है कि ‘‘साहित्य में श्रृंगार-चित्रण की परम्परा अति प्राचीन है। बुन्देलखण्ड इसमें कहीं भी पीछे नहीं है। आदि कवि बाल्मीकि से लेकर जगनिक, तुलसी, केशव, बिहारी, पद्माकर, ठाकुर, पजनेश, बोधा, मान, दूलह, चैनराय से लेकर आधुनिक युग में यह परम्परा, मैथलीशरण गुप्त, रसिकेन्द्र, सेवकेन्द्र, रामचरण हयारण मित्र, भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ अग्रवाल आदि से जुड़कर बराबर चल रही है। ईसुरी, गंगाधर व्यास, ख्यालीराम, भुजबल, आदि पचासों आंचलिक कवियों के साथ जुड़कर यह परम्परा बुंदेली में भी गतिशील है। डॉ. अवध किशोर जड़िया बुन्देली की उसी परम्परा के समर्थ और सुपरिचित कवि हैं।’’ डॉ. बरसैंया आगे लिखते हैं कि “डॉ. जड़िया के श्रृंगार गीत’’ उच्चकोटि के हैं, जिनमें श्रृंगार का वायवी सौंदर्य ही नहीं अपितु अंतरंग भाव सौंदर्य भी सहजता के साथ अंकित किया गया है। बुंदेली मन की गहरी पहचान ये गीत कराते हैं। यह अवश्य है कि श्रृंगार के अतिरिक्त जीवन जगत का अन्य कोई भी व्यापार यहाँ स्थान नहीं पा सका।’’
इस काव्य संग्रह में गीतों को तीन खंडो में विभक्त किया गया है। प्रथम खंड है ‘‘गोरी देह गांठ हरदी की’’, द्वितीय खंड है ‘‘मेरे कमल नयन’’ तथा तीसरा खंड है ‘‘‘‘इधर आ गया रथ’’। संग्रह में संग्रहीत श्रृंगार गीतों के रचनाकाल के संबंध में डॉ. जड़िया ने लिखा है कि ‘‘वर्ष 1973 से वर्ष 2006 तक की दीर्घ अवधि में किसी न किसी छोटी घटना, दृश्य अथवा समीक्षा की स्थिति से उत्पन्न ये सारे गीत हैं।’’
प्रथम भाग ‘‘गोरी देह गांठ हरदी की’’ में बुंदेली की कविताएं व चैकड़ियाँ हैं। चैकड़ियों में बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विशेषता का परिचय देते हुए कवि ने बुंदेली स्त्रियों का नख-शिख वर्णन, उनकी दिनचर्या तथा उनके मनोरंजन के साधनों को भी पिरोया है। प्रथम गीत है ‘‘बुंदेलखण्ड की संस्कृति’’ -
आवें इतै पाहुनें तौ पलकन पै पारे जावें।
जौ लौ कछू न खा लें तौ लौ खालें उतर न पावें ।।
जीवन में भू-खन मरिवे कौ इतै भान न होवै।
इतै अन्न कौ समाधान तौ समाधान सें होवै।।
मुरका कुछ मुरका खट्टी करी का स्वाद देता है।
और बुंदेली बारा-बारी के बराबर नहीं है।
डाॅ जड़िया ग्रामीण अंचल को निकट से देखा और अनुभव किया है इसीलिए उनके गीतों में पनिहारिनों को सुंदर वर्णन मिलता है। इसी संग्रह में उनका एक गीत है ‘‘बुंदेली पनिहारी’’। वे बुंदेली पनिहारी का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि-
पनियां भरन जात कुअला पै बुंदेली पनिहारी
चाल नियारी चले और फिर गैल चलै अनियारी।
नूपुर की धुनि बसी करन में, वशीकरन सौ डारें।
घट अरु घूँघट कौ संघटु, पनघट कौ रूप निखारें ।।
चढ्यो कूप पै रूप जगत के नैना हरष उठे हैं।
और दूसरी ओर जगत के नैंना तरस उठे हैं।।
ग्रामीण अंचल में मेलों का बहुत महत्व रहता है। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो ग्रामीण स्त्रियों के जीवन में मेला वह अवसर है जब वे सज-धज कर मेला देखने जाती हैं और इसी बहाने वे अपने दैनिक कार्योंं से तनिक मुक्ति पा कर अपना मनोरंजन कर पाती हैं तथा घर से बाहर निकल कर कोलाहल का आनंद उठा पाती हैं। डाॅ. जड़िया ने ‘‘बुंदेली बाला का मेला’’ शीर्षक गीत में ऐसी ही एक युवती का वर्णन किया है जो श्रृंगार कर के मेला घूमने पहुंची है-
घेला डार कधेला डारें, धन्नो जाती मेला।
अलबेले जीवन में बगरो, जौवन वारौ मेला ।।
आँखें चपल हिंडोरा जैसी, बातन भरी मिठाई।
हमरी बातन से बाहर है, वा तनकी तरुणाई ।।
टिकुली तौ टिक ली ललाट पै, फेंक रई उजियारौ।
चुटिया छुटिया कसी कस्यो, आँखन में कजरा कारौ ।।
प्रथम खंड में ही एक मार्मिक गीत भी है जिसमें प्रिय की प्रतीक्षा में व्याकुल युवती का वर्णन किया गया है। गीत का शीर्षक है ‘‘प्रतीक्षा गीत’’। एक अंश देखिए-
अँखियन के कजरा में अगवानी कौ मंत्र सँवारें।
बेसुमार सुकुमार सजीली मार भरौ मन मारें ।।
भाई, तन बेचारा है, ज्वाला आती-जाती है।
दर्द उठता है, ब्रीडा उठता है, फिर चला जाता है।
दूसरे खण्ड ‘‘मेरे कमल नयन’’ में खड़ी बोली की रचनाएं हैं। इन गीतों में श्रृंगार का भाव होते हुए भी जीवन के विविध पक्षों को रेखांकित किया गया है। मानो कवि इस बात का स्मरण कराना चाहते हैं कि जीवन में श्रृंगार रंग भरता है किन्तु मात्र श्रृंगार से जीवन पूर्ण नहीं होता है पर श्रृंगार जीवन को सरस बनाता है। ‘‘हम थके थकाये आये घर’’ गीत में कवि ने स्पष्ट किया है कि यदि घर में प्रेम और अपनत्व हो तो बाहर की सारी थकान चुटकियों में उतर जाती है-
हम थके थकाये आये घर ।।
कुछ बोलो कुछ रस घोलो,
कुछ अन्तर के पट खोलो,
कुछ दिखाओ प्यार का असर।
हम थके थकाये आये घर।।
इसी खंड में एक और महत्वपूर्ण गीत है जिसमें साहित्य सर्जक का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि एक रचनाकार की नस्ल अक्षरों की होती है तथा वह स्वयं ब्रह्म की अनुपम कृति होता है। कवि ‘‘जाति न पूछो’’ शीर्षक गीत में कहते हैं-
तुम्हें क्या मालूम हम किस जाति के हैं।
अक्षरों की नस्ल के हम ब्रह्म की सौगात के हैं।।
जगत है परिवार अपना धर्म परहित धारणा है
विश्व में बंधुत्व दृढ़ हो ये प्रबल अवधारणा है।
संग्रह का तृतीय खंड ‘‘इधर आ गया रथ’’ श्रृंगार के संदर्भ में लौकिक अनुभूतियों से होता हुआ अलौकिक अनुभूतियों तक जा पहुंचा है। इसमें संग्रहीत गीत भावनात्मक परिपक्वता के द्वार पर स्पष्ट दस्तक की भांति ध्वनित हैं। उदाहरण के लिए एक गीत ‘‘बड़ी कृपा’’ की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है-
आज तलक न मैंने तेरा दिल से नाम जपा।
उस पर भी मेरे ऊपर है इतनी बड़ी कृपा ।।
हम तन के मन के व्यभिचारी हम अति अधमाधम,
अलग-अलग कथनी करनी के हम ठहरे संगम,
वर पाने के लायक कोई कार्य नहीं वरपा।
उस पर भी मेरे ऊपर है इतनी बड़ी कृपा ।।
इसी प्रकार ‘‘मैं’’ गीत नूतन शिल्प में दार्शनिक भावों को उंडेलते हुए कवि ने लिखा है कि -
मैं/ एक प्रयोग हूँ मैं, गात, इन्द्रिय, आत्मा, मन का सुखद सँयोग हूँ मैं/ एक प्रयोग हूँ मैं/कल्पना तेरी, मेरी घटना बनी/ आपका आदेश, वह रटना बनी/ सिंधु के बिंदु का विलगाव, एक वियोग हूँ मैं/ एक प्रयोग हूँ मैं/हर इशारे से दिशायें चल रहीं/ चल रहे हैं दिन निशायें ढल रहीं/ सब समय सम्राट के हैं भोग/ सो वह भोग हूँ मैं/एक प्रयोग हूँ मैं।
डाॅ. अवध किशोर जड़िया का गीत संग्रह “डॉ. जड़िया के श्रृंगार गीत’’ आज के शुष्क होते समय में सरस भावपूर्ण श्रृंगार गीतों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। वस्तुतः ऐसे गीतों की आवश्यकता आज और अधिक है। यह गीत संग्रह न केवल बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचल से जोड़ता है वरन प्रेम की निश्च्छलता का भी पुनर्पाठ कराता है। इस दृष्टि से यह संग्रह और अधिक महत्वपूर्ण हो उठा है।
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