Tuesday, July 29, 2025

पुस्तक समीक्षा | रोचक पड़ावों वाली एक गंभीर कथायात्रा है इस लघु उपन्यास में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 29.07.2025 को 'आचरण' में पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा
रोचक पड़ावों वाली एक गंभीर कथायात्रा है इस लघु उपन्यास में
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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लघु उपन्यास - देवास्वामिन
लेखक       - डाॅ. रामशंकर भारती
प्रकाशक     - बुंदेलखंड सांस्कृतिक अकादमी, दीनदयाल नगर, झांसी, उ.प्र.
मूल्य        - 99/-
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उत्तर प्रदेश के जालौन के क्योलारी गांव में एक साधारण कृषक परिवार में जन्मे डाॅ. रामशंकर भारती एक उत्साही रचनाकार हैं। वे पत्रकारिता करते हुए ‘‘बुंदेलखंड बुलेटिन का संपादन कर चुके हैं। वे बुंदेलखंड सांस्कृतिक अकादमी, झांसी के निदेशक हैं। उन्हें कई पुरस्कार, सम्मान एवं फैलोशिप भी मिल चुकी है। ललित निबंध की चार पुस्तकें, तीन कविता संग्रह के साथ ही उनके दो महत्वपूर्ण आलोचना ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है। ये आलोचना ग्रंथ हैं-‘‘डाॅ.विनय कुमार पाठक और इक्कीसवीं सदी के विमर्श’’ तथा ‘‘उत्तर प्रदेश का स्वतंत्रता संग्राम -जालौन’’। ‘‘देवास्वामिन’’ डाॅ भारती का प्रथम लघु उपन्यास है।
इस कृति के नाम से प्रथमदृष्टया ऐसा प्रतीत हुआ कि यह कोई पौराणिक कथानक पर आधारित होगी। किन्तु चंद पृष्ठों के बाद ही स्पष्ट हो जाता है कि यह आधुनिक पृष्ठभूमि की कथावस्तु समेटे हुए है। एक ऐसा कथानक जो हर मोड़ पर चैंकाता है और ठहर कर सोचने को विवश करता है। इसमें बहुत अधिक पात्र नहीं है अतः कथानक में एक कसाव है जिससे कहानी एक निरंतरता के साथ प्रवाहमान होती रहती है। यह कथा एक सामान्य स्त्री के प्रेमिका से सन्यासिन और फिर महामंडलेश्वर बनने की यात्रा की। देवयानी से देवास्वामिन बनने की कथा। यह एक वाक्य लिखने में जितना सरल प्रतीत हो रहा है, देवयानी की यात्रा उतनी ही उतार-चढ़ाव भरी है।
कृति का दूसरा पात्र स्वामी डाॅ. चैतन्य भारती है। यह नया नाम उसे देवास्वामिन ने दिया। उसके पुराने नाम से स्वयं देवास्वामिन का अतीत जुड़ा हुआ था। समय की करवटों को लेखक ने बखूबी साधा है। दोनों पात्रों का अंतद्र्वंद्व और तटस्थता को जीने का प्रयास पाठकों को निश्चित ही वैचारिक सागर में गोते लगवाएगा। वहीं अवधूतनुमा आश्रम का वातावरण एक सटीक दृश्यात्मकता रचता है। चिलम के नशे में डूबे सन्यासी ऐसे आश्रमों की यथा-कथा प्रतिबिम्बित करते हैं। जैसे एक स्थान पर लेखक ने वर्णन किया है-
‘‘ये अवधूत बम भोले के जयकारे ऊँचे स्वरों में बोले जा रहे थे -
‘‘अलख निरंजन!’’ 
‘‘अलख निरंजन !!’’
जिसने न पी गाँजे की चिलम!
उसके तो फूटे करम!!
अवधूती धूनी के पास में गड़े त्रिशूल के चारों ओर नईं-पुरानी फूल मालाएँ, पूजन सामग्रियाँ व सूखे नारियलों के ढेर लगे हुए थे, जो न जाने कबसे गंगाजी में फेंके जाने की मोक्षदायिनी प्रतीक्षाएँ कर रहे थे।’’
वैसे अवधूत आश्रम से ही कथा का वास्तविक आरम्भ होता है। जब एक सन्यासी कथा नायक को एक अन्य आश्रम जाने की सलाह देते हुए एक विजिटिंग कार्ड देता है-
‘‘मेरी लंबी-चैड़ी सुदर्शन कद-काठी देख उन अवधूतों के मुखमण्डल पर कुछ-कुछ सौमन्यता आ गई थी। जो शंकाएँ कुछ देर पहले उन किसीके मन में जन्मीं भी होंगी, वे अब धीरे-धीरे निर्मूल हो रहीं थीं। अवधूतों के मुझसे कुछ पूँछने के पहले ही, मैंनें उन्हें अपने विषय में बताया,  मैं आध्यात्मिक सुख की तलाश में यहाँ - वहाँ भटक रहा हूँ। साहित्यकार व शिक्षक हूँ और पत्रकारिता मेरे स्वभाव का अंग है, पेशा नहीं। आदि-आदि। मेरे चुप होते ही स्वामी अवधूत महाराज प्रवचन की मुद्रा में आकर बोलने लगे।
कुछ देर तक मैं उनके औघड़दानी प्रवचनों को सुनता रहा और फिर वहाँ से चलने के लिए उद्यत हुआ। मेरे स्थान छोड़ने से पहले ही आश्रम के स्वामीजी ने कौंड़ियों व छोटे शंखों से सजे-सँवरे अपने जूट के थैले से एक सुंदर-सा विजिटिंग कार्ड निकाला उसे मेरी ओर बढ़ाकर गुरु-गंभीर स्वर में कहा, आप इस आश्रम में चले जाइए, आपकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी।
मैंने बड़े गौर से विजिटिंग कार्ड पढ़ा। गेरू रंग के विजिटिंग कार्ड पर बड़े-बड़े श्वेत सुगंधित अक्षरों में लिखा था -
महामण्डलेश्वर साध्वी देवास्वामिन
सहज योग साधना केंद्र,
लक्ष्मण झूला मार्ग,
अखण्ड सरोवर, हरिद्वार।’’   
यह आश्रम वही स्थान था जहां कथा नायक की देवास्वामिन से भेंट होनी थी। लेखक ने अपने लेखकीय चातुर्य से कथा में सरसता बनाए रखी है। एक अज्ञात के प्रति उत्सुकता का जागना कथा के प्रभाव के लिए शुभ संकेत होता है। डाॅ रामशंकर भारती ने बड़ी सुंदरता से इन संकेतों को कथा में पिरोया है। कहानी के क्लाईमेक्स तक उत्सुकता बनी रहे और फिर क्लाईमेक्स में जा कर कथानक अचानक एक चैंका देने वाला मोड़ ले कर अपनी समाप्ति पर पहुंचे तो उस कथा से पाठक उसे आद्योपांत पढ़ने के बाद भी देर तक उससे जुड़ाव महसूस करता रहता है। यह कहना होगा कि डाॅ रामशंकर भारती ने अपनी इस कृति में रोचकता बनाए रखने में भरपूर सफलता पाई है। कथानायक की देवास्वामिन से पहली भेंट के बाद का दृश्य कई संभावनाओं को जन्म देता है जिससे ‘‘अब क्या होगा?’’ जैसे प्रश्न उपजते हैं। उदाहरण के लिए यह अंश -
‘‘मेरा परिचयात्मक वक्तव्य देवास्वामिन बड़े ध्यान से सुनती रही। फिर गंभीर मुखमुद्रा में कहा...
‘आज के यांत्रिक जीवन में सहज योग को समायोजित करके जीवन को सुंदर व व्यवस्थित बनाया जा सकता है। योग कोई कर्मकाण्ड नहीं। यह विशुद्ध शरीर विज्ञान है और ध्यान इसके बहुत आगे की ऊँची सीढ़ी है जिस पर चढ़ने की सिद्धता संयमित वाह्य एवं आंतरिक जीवन शैली से ही प्राप्त होती है। सभी को पता है धरती के नीचे अथाह जल है किंतु विरले होते हैं जो जमीन में कुआँ खोद मीठा पानी प्राप्त कर पाते हैं।’- योग को लेकर देवास्वामिन की मौलिक उद्भावनाएँ मुझे प्रभावित कर रहीं थी।’’
आश्रमों का एक परिचित सा संसार, सन्यासियों का आचार-व्यवहार, संयम से भरा जीवन लेकिन उस संयम के बीच पुराने प्रेम का बार-बार सिर उठाना जैसे कई ऐसे प्रसंग हैं जिनसे कथानक को भरपूर प्रवाह मिला है। आरम भी कई बार अपनी परिपाटी छोड़ कर नवाचार को अपनाने लगते हैं जिनमें संतुलन बनाए रखना सबके वश की बात नहीं होती। उनके पास धन की कमी नहीं होती लेकिन कर्म में शिथिलता आने लगती है। लेखक ने एक ऐसा ही विवरण सामने रखा है-
‘‘समय के बदलाव के साथ आश्रम में भी धीरे-धीरे बदलाव आने लगा था। भक्तों की उत्सवधर्मिता बढ़ने लगी थी। ‘हर दिन पावन’ की थीम पर कार्यक्रमों की बढोत्तरी होने लगी। शुकल बाबा की स्मृति में बनाए गए ‘स्वामी असीमानंद लोककल्याण न्यास’ अकूत धन-संपदा से भरपूर था। आश्रम में अनेकानेक जनकल्याण के कार्यक्रमों की चर्चाएँ तो खूब होंती लेकिन उन्हें असली जामा पहनाने का वक्त किसी के भी पास नहीं था। सभी हर पल धर्म-अध्यात्म की बातों में ही डूबे रहते।’’
लेखक रामशंकर भारती ने ‘अपनी बात’ के बदले ‘उसकी बात’ लिखते हुए ‘‘देवास्वामिन’’ पात्र के सृजन प्रक्रिया के बारे में विस्तार जानकारी दी है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘मेरी अपनी लंबी कहानी देवास्वामिन आप चाहें तो इसे लघु उपन्यास भी कह सकते हैं, की पृष्ठभूमि को लेकर कुछ खुलासे आपसे कर रहा हूं। वस्तुतः देवास्वामिन कहानी न होकर मेरे अंतर्मन की आह्लादिक ऋतंभरा गाथा है। देवास्वामिन के विराट व्यक्तित्व को सिरजते हुए मुझे एक विशिष्ट अनुभूति निरंतर समृद्ध करती रही है। देवास्वामिन कहानी विग्रह के रूप में मुझे दिसंबर 2019 में त्रिपुरा के वनांचल में विहार करते हुए अकस्मात् मिली। मैं उसके अनूठे व्यक्तित्व को आत्मसात् किए हुए सुपारियों के जंगलों, चाय के बागानों और धान के सुनहरे खेतों में अलमस्त होकर घूमता रहा। जैसे ही एक माह बाद त्रिपुरा-धलाई से वापस आने को हुआ तो देवास्वामिन मेरे संग-संग ही मेरे घर आ गई। देवास्वामिन मेरे अपने जीवन की निजी कहानी न होकर भी मेरी ही अपनी अकथ कथा है। सच कहूँ तो देवास्वामिन मेरे भाव जगत की प्रणयगाथा है। इसे संस्मरणात्मक कथा कहूँ या प्रेमाख्यान।’’
उपन्यास के कथानक पर अपना ‘अभिमत’ देते हुए उरई के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. लखनलाल पाल ने लिखा है कि ‘‘कहानी देवास्वमिन भौतिकता से अध्यात्म तक की यात्रा कहती चलती है। इस यात्रा के पड़ाव मन को सुकून पहुंचाते हैं। इस यात्रा में आपको कल-कल करती नदियां मिलेंगी, वन प्रदेश में फैले प्राकृतिक सौंदर्य के दर्शन होंगे। जीवन के तपते रेगिस्तान में भीगे बादलों की फुहार से मन और आत्मा को आह्लादित करती सुकूनता प्राप्त होगी। कहानी में देवास्वमिन और डॉ हर्ष उपाध्याय के बीच के सम्बन्ध जो नैसर्गिक है, पर उनमें नियमों की गांठ बांध दी गई है। नैसर्गिक होना स्वतंत्रता है पर उस स्वतंत्रता की सीमा में रहना मनुष्यता है। इसके बाद देवत्व की सीढ़ियां शुरू हो जाती है। ये मामूली सीढियां नहीं है इसमें फिसलन है, इसमें जकड़न है। फिसलन और जकड़न से बचकर निकल आना अध्यात्म है। कहानी इसी फिसलन और जकड़न को लेकर चलती है।’’
डाॅ रामशंकर भारती की भाषाई पकड़ अच्छी है। उन्होंने संस्कृतनिष्ठ शब्दों का बहुतायत प्रयोग किया है जो कि वातावरण को रेखांकित करने की दृष्टि से उचित भी है। यद्यपि इसमें कई ऐसे बिन्दु हैं जहां कथानक को विस्तार दिया जा सकता था जिससे यह एक बड़े उपन्यास का आकार पा सकता था। किन्तु यह लेखक का निर्णय होता है कि वह अपने कथानक को किस आकार तक ले जाना चाहता है। इतनी छूट तो लेखक को होनी ही चाहिए। यह कृति इस बात का तीव्र आग्रह करती है कि व्यक्ति को पता होना चाहिए कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है? फिर उसी के अनुरूप निर्णय लेना चाहिए। कुलमिला कर यह एक उत्तम औपन्यासिक कृति है। मुझे विश्वास है कि पाठकों को भी यह पसंद आएंगी।
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