Tuesday, February 22, 2022

पुस्तक समीक्षा | लौकिक-अलौकिक अनुभवों का रोचक संस्मरणात्मक आख्यान | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 22.02.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक श्री आनन्द कुमार शर्मा की पुस्तक "महाकाल के अद्भुत प्रसंग" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
लौकिक-अलौकिक अनुभवों का रोचक संस्मरणात्मक आख्यान
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - महाकाल के अद्भुत प्रसंग
लेखक - आनन्द कुमार शर्मा
प्रकाशक- सर्वत्र पब्लिकेशन, द्वितीय तल, उषा प्रीत काॅम्प्लेक्स, 42 मालवीय नगर, भोपाल-462003
मूल्य   - 225 रुपए
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‘‘महाकाल के अद्भुत प्रसंग’’- इस पुस्तक के लेखक हैं आनन्द कुमार शर्मा जो वर्तमान में मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी हैं तथा पूर्व में विभिन्न उच्च प्रशासनिक पदों पर रह चुके हैं। पुस्तक में एक स्थान पर उन्होंने अपने बारे में लिखा है कि वे ‘‘नास्तिक प्रकार के आस्तिक हैं।’’ अर्थात् वे धार्मिक प्रवृति के हैं किन्तु आडंबरों पर विश्वास नहीं करते हैं। यही कारण है कि महाकाल की अपनी अलौकिक अनुभूूतियों को उन्होंने किसी धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं लिखा है वरन् अनुभव एवं अनुभूतिजनित घटनाओं का विवरण दिया है जिन्हें वैज्ञानिक कसौटी पर कसना आवश्यक नहीं है। कई बार जीवन में ऐसे प्रसंग आते हैं जब असंभावित लगने वाला कार्य सुगमता से पूरा हो जाता है और तब हमारी चेतना हमसे कहती है कि कोई तो अलौकिक शक्ति है जिसने हमारी सहायता की। अपनी इस संस्मरणात्मक पुस्तक में आनन्द कुमार शर्मा ने महाकाल की नगरी उज्जैन में सन् 1995 से 2000 तक विभिन्न पदों में रहने के दौरान हुए लौकिक-अलौकिक अनुभवों का रोचक संस्मरणात्मक आख्यान प्रस्तुत किया है। दरअसल, स्मृतियां मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी होती है। इस पूंजी को वह सुना कर या लिख कर पुनः जी सकता है। स्मृति के आधार पर किसी विषय पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख ‘‘संस्मरण’’ कहलाता है। संस्मरण को अं्रगेजी में ‘मेमोयर’ कहते हैं जिसे फ्रांसीसी शब्द ‘मेमोइरे’ और लैटिन के ‘मेमोरिया’ कहते हैं। सन् 314-394 ई. में प्राचीन ग्रीस और रोम में यह माना जाता था कि ‘मेमोज़’ लेखन के वे टुकड़े होते हैं जिनकी सहायता से लेखक अपनी विशेष कृतियों को पूरा करता है। पाश्चात्य विद्वानों ने माना है कि संस्मरण में उसके लेखक की स्मृतियां भावुकता के साथ सामने आती हैं, किन्तु यह कोरी भावुकता नहीं होती है, इसमें तत्कालीन यथार्थ की अनेक पर्तें होती हैं। जैसे- हिकमेन के संस्मरण ‘‘अक्टूबर स्काई’ या ‘राॅकेट ब्वाय’, ‘कोलवुड वे’ आदि। आधुनिक विश्व साहित्य में अनेक लेखक और लेखिकाओं के संस्मरण लोकप्रिय हुए हैं। जैसे- जुंग चेंग का ‘वाइल्ड स्वान’, हेडा मार्गोलुइस का ‘अंडर ए क्रुएल स्टार’, हेलेन ऐपेस्टाइन का ‘व्हेअर शी केम फ्राॅम’।  

हिन्दी में संस्मरण विधा का आरम्भ द्विवेदी युग से माना जाता है। परंतु इस विधा का असली विकास छायावादी युग में हुआ। इस काल में ‘सरस्वती’, ‘सुधा’, ‘माधुरी’, ‘विशाल भारत’ आदि पत्रिकाओं में संस्मरण प्रकाशित हुए। इसके बाद संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति माना गया। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियां तथा संवेदनाएं संस्मरण का ताना-बाना बुनती हैं। संस्मरण लेखक एक निबन्धकार की भांति अपने स्मृतियों को गद्य के रूप में बंाधता है और एक इतिहासकार के रूप में तत्संबंधित काल को प्रदर्शित करता है। कहने का आशय है कि संस्मरण मूलतः निबंध और इतिहास का मिश्रित साहित्यिक स्वरूप होता है और जिसका मूल संबंध संस्मरण लेखक की स्मृतियों से होता है।

हिन्दी में संस्मरणात्मक लेखन की शुरुआत पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से मानी जाती है। हिन्दी में आरंभिक संस्मरण लेखकों में बनारसीदास चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा तथा रामवृक्ष बेनीपुरी आदि हैं। बनारसीदास चतुर्वेदी के ‘संस्मरण’ तथा ‘हमारे अपराध’, महादेवी वर्मा की ‘स्मृति की रेखाए’ तथा ‘अतीत के चलचित्र’ एवं रामबृक्ष बेनीपुरी का ‘माटी की मूरतें’ को आरम्भिक संस्मरणों में गिना जा सकता है। प्रभाकर माचवे, विष्णु प्रभाकर, राजेन्द्र यादव, कृष्णा सोबती, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथसिंह और काशीनाथ सिंह ने संस्मरण विधा को पर्याप्त गति दी। कृष्णा सोबती की ‘हम हशमत’, राजेन्द्र यादव की ‘औरों के बहाने’, दूधनाथसिंह की ‘लौट आओ धार’, काशीनाथ सिंह की ‘काशी के अस्सी’, विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी की ‘नंगातलाई का गांव’ आदि को हिन्दी की संस्मरण विधा के विकास के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन हिंदी संस्मरण विधा को एक विशेष रोचकता और अनूठापन देने का श्रेय जाता है कांति कुमार जैन को।

संस्मरण मानस में अवस्थित रहते हैं जो समय आने पर लिपिबद्ध रूप में सामने आते हैं। इस संबंध में लेखक आनन्द कुमार शर्मा ने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि ‘‘कोई भी रचना चाहे वह कविता हो, कहानी हो या संस्मरण, मानव के अंतस में सबसे पहले उपजती है। कई बार मुझे यह भी लगता है कि जैसे यह पूर्व से ही अंतस में बसी हुई रहती है। आदमी उसको बाद में जान पाता है या कई बार जान भी नहीं पाता और बिना जाने उसका संवाहक हो जाता है, यह सब एक रहस्य की तरह हैं।’’
लेखक आनन्द कुमार शर्मा एक कवि हैं, यात्रावृत्तांत लेखक हैं और एक स्तम्भकार भी हैं। इस पुस्तक को पढ़ने से पूर्व उनके स्तम्भ लेखों में उनके संस्मरण पढ़ती रही हूं और उन्हीं लेखों के आधार पर यह दावे से कहा जा सकता है कि आनन्द कुमार शर्मा एक सिद्धहस्त संस्मरण लेखक हैं और अब इस पुस्तक के रूप में एक प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित है। लेखक आनन्द कुमार जब किसी घटना का विवरण प्रस्तुत करते हैं तो वह इतना जीवन्त होता है कि मानो सब कुछ आंखों के सामने घटित हो रहा हो। वस्तुतः आनन्द कुमार शर्मा का लेखन एक टाईम मशीन की तरह है जिसके पोर्टल पर पहुंचते ही पाठक उनके विवरणों के जरिए अतीत के निश्चित कालखण्ड में पहुंच कर विचरण करने लगता है। सारे दृश्य आंखों के आगे किसी चलचित्र की भांति चलायमान हो उठते हैं। यह लेखक की लेखन कला में मौजूद बारीकियों का कमाल है।

इस पुस्तक में कुछ ऐसी घटनाओं का विवरण है जो चौंकाती हैं। जैसे लेखक को उज्जैन में उस दिन ज्वाइनिंग का अवसर मिला जिस दिन सुबह महाकाल मंदिर में भगदड़ से कुछ लोगों की जानें चली गई थीं। इसके बाद लेखक को मंदिर के प्रशासक पद का भार दिया गया। मानो स्वयं महाकाल ने अपनी सेवा के लिए उन्हें बुलाया था। क्योंकि उज्जैन के पूरे सेवाकाल में उन्हें तीन और पदस्थापनाएं मिलीं किन्तु मंदिर प्रशासन उन्हीं के हाथों में रहा। उन्होंने प्रशासक के पद का दायित्व निभाते हुए मंदिर में सुरक्षा और साज-संवार के लिए जो भी संभव था वह सब कुछ किया। इस दौरान कई दिलचस्प घटनाएं घटीं। जिनमें से एक उनके नाबालिग भांजे का काम की तलाश में जबलपुर से मुंबई भाग जाना। इस घटना को ले कर लेखक ने महाकाल को उलाहना दिया। जबकि बाद में पता चला कि मुंबई में भांजे की एक टैक्सी ड्राईवर ने न केवल सहायता की अपितु भांजे को उसकी गलती का अहसास भी करा दिया। मायानगरी मुंबई में ऐसा व्यक्ति मिलना एक चमत्कार की भांति लगना स्वाभाविक है।

एक और घटना है कि लेखक ने जब मंदिर प्रशासन का भार सम्हाला था तब मंदिर की आय कुल 33 लाख थी। लेखक को लगा कि यह आया कम से कम एक करोड़ होनी चाहिए और तीन पदस्थापनाओं के बाद जिस दिन मंदिर की आय एक करोड़ से ऊपर पहुंची उस दिन लेखक का उज्जैन से स्थानान्तरण हो गया। मानो उनका संकल्प पूरा हो गया था। इसी प्रकार दो संतानों के बाद मेडिकली समस्या होने के बावजूद पुत्र का जन्म संभव होना, महाकाल मंदिर की सज्जा के लिए चांदी और सोने की स्वतः व्यवस्था होते जाना आदि पुस्तक में अनेक रोचक घटनाओं का विवरण है। एक घटना ऐसी भी है जो लेखक के स्वाभिमान से परिचित कराती है। यह स्वभिमान लेखक का निजी होने के साथ ही महाकाल की प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ था। मंदिर में रुद्रयंत्र के जीर्णोद्धार के लिए चांदी की आवश्यकता थी और समयानुसार व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। तब किसी ने लेखक को सलाह दी कि दिल्ली के कनाॅट प्लेस में एक सेठ का ऑफिस है जहां सेठ से मिल कर चांदी की व्यवस्था की जा सकती है। लेखक एक पुजारी के साथ सेठ के पास पहुंचे। सेठ ने लेखक से पूछा-‘‘बताइए आपके महाकाल को कितनी चांदी चाहिए?’’ लेखक के ही शब्दों में -‘‘पता नहीं क्यों इन शब्दों को सुन कर ही मेरे तन-बदन में आग लग गई। मैं गुस्से से उठा और मैंने कहा महाकाल को तो कुछ भी नहीं चाहिए, पर तुमको यदि कुछ देना हो तो मंदिर में आ जाना। और बिना कुछ आगे बोले मैं दफ़्तर की सीढ़ियां उतरते नीचे चल पड़ा। पुजारी जी अवाक मेरे पीछे-पीछे लपक लिए। नीचे आ कर मुझसे बोले, आप क्यों गुस्सा हो गए, ये बड़ा सेठ था। अपने को अच्छी चांदी मिल सकती थी। मैंने कहा कि मुझे इस तरह के दानदाताओं की ज़रूरत नहीं है।’’ संयोग यह कि अप्रत्याशित रूप से समय रहते चांदी की व्यवस्था अन्य स्रोत से हो गई और लेखक का स्वाभिमान एवं महाकाल का सम्मान सुरक्षित रहा। इस पुस्तक में पौराणिक कथाओं के साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है जैसे मराठा माहद जी सिंधिया की पानीपत युद्ध में पराजय और फिर महाकाल की कृपा से विजय। यह भी इतिहास का एक रोचक प्रसंग है।  

पुस्तक के कलेवर से हट कर एक तथ्य और उभर कर सामने आता है कि लेखक में हठधर्मिता नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि पुस्तक में कुल सत्रह लेखात्मक अध्याय हैं और इन प्रत्येक अध्यायों के आरम्भ में उपनिषद्, रामचरित मानस और मेघदूत आदि से श्लोक दिए गए हैं। लेखक ने प्राक्कथन में स्पष्ट उल्लेख किया है कि ये सभी श्लोक उन्हें ओ.पी. श्रीवास्तव, अपर सचिव मुख्यमंत्री कार्यालय ने सुझाए। जबकि आजकल लेखको में यह प्रवृत्ति देखी जाती है कि एक तो वे सुझाव सुनना या मानना ही नहीं चाहते हैं और यदि कहीं सुझाव पर अमल कर लिया तो वे उसे अपने खाते में दर्ज़ करके अपनी पीठ थपथपाते नज़र आते हैं। किन्तु आनन्द कुमार शर्मा ने सहजता से उल्लेख किया है सुझाव देने वाले का। इसे एक लेखकीय संस्कार एवं शालीनता कह सकते हैं जो लेखक की लेखन-प्रतिबद्धता के प्रति आश्वस्त करती है। पुस्तक में महाकाल मंदिर के रंगीन छायाचित्र हैं जिनमें अमिताभ बच्चन, गोविंदा जैसे अभिनेताओं द्वारा पूजनअर्चन के दृश्य हैं।

लेखक आनन्द कुमार शर्मा भाषाई क्लीष्टता में नहीं पड़े हैं वरन उन्होंने आम बोलचाल की भाषा अपनाई है। जिससे पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई सामने बैठ कर अपने अनुभव सुना रहा हो। उनके लेखन में वाचिक स्वर हैं। यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि ‘‘महाकाल के अद्भुत प्रसंग’’ अत्यंत रोचक पुस्तक है और यह हर स्तर के पाठकों को रुचिकर लगेगी। इसके साथ ही यह पुस्तक संस्मरण विधा को पुष्पित, पल्लिवित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कृति मानी जा सकती है।
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