Thursday, April 20, 2017

पिंक, मातृ और मॉम .... सोचने को विवश करती फिल्में - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
"#पिंक, #मातृ और #मॉम .... सोचने को विवश करती #फिल्में "मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 19.04. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
 
चर्चा प्लस
पिंक, मातृ और मॉम .... सोचने को विवश करती फिल्में
- डॉ. शरद सिंह
नायिका के बिना भारतीय सिनेमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कई फिल्में नायिका प्रधान ही बनाई जाती रही हैं। लेकिन ऐसी फिल्मों में महत्व रहता है स्त्रीपक्ष के प्रति गंभीरता और उसके प्रस्तुतिकरण का। साथ ही इसका भी कि वे स्त्री की दशा के किस पक्ष की ओर संकेत कर रही हैं। इस लेख में ‘इंसाफ का तराजू’ के आधार पर ‘पिंक’, ‘मातृ’ और ‘मॉम’ के बहाने भारतीय सिनेमा और स्त्री की दशा को संक्षेप में खंगाला गया है, जिसका निष्कर्ष अत्यंत चौंकाने और चिन्तित करने वाला है।

भारतीय सिनेमा में अकसर भड़कीले आईटम चरित्रवाली या फिर निरा परम्परावादी चरित्र की कहानियां परोसी गई हैं। ऐसी कम फिल्में आई हैं जिनमें औरतों के पक्ष को, उनकी समस्याओं को, उनकी पीड़ा को बखूबी और बारीकी से रखा गया हो। ‘मदर इंडिया’ जैसी फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो औरतों को अधिकतर पुरुषाश्रित ही फिल्माया जाता रहा है। यदि उन्हें शक्तिशाली दिखाया भी गया तो या तो ‘हंटरवाली’ के रूप में या फिर ‘डाकूरानी’ के रूप में। समाज में औरतों की स्थिति का इसे सही चित्रण नहीं कहा जा सकता। किन्तु ऐसा भी नहीं है कि भारतीय सिनेमा ने स्त्रीजीवन की सच्चाइयों से हमेशा नज़रें चुराई हों। कई निर्माता निर्देशक ऐसे भी है जिन्होंने निर्माण और हानि के तमाम जोखिम उठाते हुए स्त्रीजीवन को उसकी पूरी कड़वाहट भरी सच्चाई के साथ फिल्माया। बहुत पुरानी बात न करते हुए यदि सन् 1980 की बात की जाए तो उस वर्ष एक फिल्म रिलीज़ हुई थी-‘इंसाफ का तराजू’। बी. आर. चोपड़ा के द्वारा निर्देशित इस फिल्म की भारतीय स्क्रिटिंग की थी शब्द कुमार ने। वस्तुतः यह फिल्म हॉलीवुड की एक प्रसिद्ध मूवी ‘लिपिस्टिक’ पर आधारित थी। कहानी नायिका प्रधान थी और बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय पर आधारित थी। सौंदर्य प्रतियोगिता में सफल रहने वाली एक सुंदर युवती पर एक अय्याश पूंजहपति का दिल आ जाता है और वह यह जानते हुए भी कि युवती किसी और की मंगेतर है, उसके साथ बलात्कार करता है। वह युवती पुलिस में रिपोर्ट लिखाती है। मुक़द्दमा चलता है और भरी अदालत में प्रतिवादी का वकील अमानवीयता की सीमाएं तोड़ते हुए युवती से अश्लील प्रश्न पूछता है और अंततः युवती को बदचलन ठहराने में सफल हो जाता है। पीड़ित युवती उस शहर को छोड़ कर दूसरे शहर में जा बसती है। उसका जीवन ग्लैमर से दूर एकदम रंगहीन हो जाता है। फिर भी वह अपनी छोटी बहन के लिए जीवन जीती रहती है। दुर्भाग्यवश कुछ अरसे बाद उसकी छोटी बहन भी नौकरी के सिलसिले में उसी अय्याश पूंजीपति के चंगुल में फंस जाती है और बलात्कार का शिकार हो जाती है। एक बार फिर वहीं अदालती रवैया झेलने और अपनी छोटी बहन को अपमानित होते देखने के बाद वह युवती तय करती है कि अब वह स्वयं उस बलात्कारी को दण्ड देगी। 
 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

‘इंसाफ का तराजू’ पर यह आरोप हमेशा लगता रहा कि एक संवेदनशील मुद्दे को व्यावयासिक ढंग से फिल्माया गया। दूसरी ओर ‘चक्र’, ‘दमन’, ‘बाज़ार’ जैसी फिल्में पूरी सादगी से और अव्यवसायिक ढंग से स्त्री-मुद्दों को उठा रही थीं। लेकिन ‘इंसाफ का तराजू’ की अपेक्षा इनकी दर्शक संख्या न्यूनतम थी। ये फिल्में बुद्धिजीवियों और अतिसंवेदनशील दर्शकों की पहली पसंद बन पाई जबकि ‘इंसाफ का तराजू’ ने बॉक्स आफिस पर रिर्कार्ड तोड़ दिया।
कुछ महिला फिल्म निर्देशकों ने समय-समय पर स्त्रीजगत के पक्षों को बारीकी के साथ सेल्यूलाईड पर उतारा जिनमें प्रमुख नाम हैं- मीरा नायार, दीपा मेहता, अपर्णा सेन, कल्पना लाजमी और अनुषा रिजवी। इन्होंने अपनी फिल्मों के द्वारा कथानकों की विविधता को प्रस्तुत किया किन्तु उन सबके मूल था स्त्री चरित्रों एवं सामाजिक सरोकार का गहन दायित्वबोध। क्या कोई पुरुष निर्देषक ‘फायर’ को इतनी संवेदनषील तटस्थता के साथ फिल्मा पाता? शायद नहीं। क्या मीरा नायर का ‘चंगेज खान’ पात्र इतने आत्ममंथन के साथ रूपहले पर्दे पर आ पाता? शायद नहीं। लेकिन इन फिल्मों की संख्या न्यून है।
पिछले दशकों में बीच-बीच में कुछ फिल्में आईं जिन्होंने स्त्री-अस्मिता के सामाजिक परिवेश को यथार्थवादी तरीके से सामने रखा। जेसिका लाल एवं आरुषी मर्डर केस पर बनी फिल्मों ने भी अपनी ओर ध्यान खींचा। लेकिन अनिरुद्ध रॉय चौधरी की ‘पिंक’ ने जिस जोरदार ढंग से स्त्री-अस्मिता और बलात्कार के मुद्दे को उठाया, उसने दर्शकों के मन को झकझोर दिया। ’अनुरानन’ और ’अंतहीन’ जैसी एक से बढ़कर एक बंगाली फिल्में डायरेक्ट करने के बाद पहली बार डायरेक्टर अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने हिंदी फिल्म ’पिंक’ का डायरेक्शन किया। फिल्म की स्क्रिप्ट रितेश शाह ने बहुत ही सरल लेकिन सोचने पर विवश करने वाली लिखी। स्क्रिप्ट लिखने से पहले र्प्याप्त रिसर्च वर्क किया गया। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, दर्शकों और पात्रों के बीच रिश्ता बनने लगता है। पात्रों का चित्रण भी बखूबी किया गया। अमिताभ बच्चन की अदाकारी ने फिल्म को उसकी समूची आत्मा के साथ उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया जो ऊंचाई उस कथानक को मिलनी चाहिए थी। ‘पिंक’ दिल्ली में किराए पर रहने वाली तीन वर्किंग लड़कियों मीनल अरोड़ा, फलक अली एंड्रिया तेरियांग की कहानी है। एक रात एक रॉक कॉन्सर्ट के बाद पार्टी के दौरान जब उनकी मुलाकात राजवीर और उसके दोस्तों से होती है तो रातों-रात कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी वजह से मीनल, फलक और एंड्रिया डर-सी जाती हैं, और भागकर अपने किराए के मकान पर पहुंचती हैं, वहीं से बहुत सारे ट्विस्ट और टर्न्स शुरू हो जाते हैं, कहानी और दिलचस्प तब बनती है जब इसमें वकील दीपक सहगल के रूप में अमिताभ बच्चन की एंट्री होती है। तीनों लड़कियों को कोर्ट जाना पड़ता है और उनके वकील के रूप में दीपक उनका केस लड़ते हैं। कोर्ट रूम में वाद विवाद के बीच कई सारे खुलासे होते हैं। ‘पिंक’ उस पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ एक कड़ा संदेश देती है, जिसमें महिला और पुरुष को अलग-अलग पैमानों पर रखा जाता है। इस फिल्म की कहानी बताती है कि यदि कोई पुरुष ताकतवर परिवार से होता है तो किस तरह से पीड़ित महिला के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना कठिन हो जाता है। मूवी समाज की उस सोच पर सवाल खड़े करती है, जो लड़कियों की छोटी स्कर्ट और पुरुषों के साथ ड्रिंक करने पर उनके चरित्र को खराब बताती है। फिल्म यह भी बताती है कि भले ही कोई महिला सेक्स वर्कर हो या फिर पत्नी हो, लेकिन यदि वह ’न’ कहती हो तो किसी भी पुरुष को उसे छूने और उसके साथ जबरदस्ती करने का अधिकार नहीं है।
अभिनेत्री रवीना टंडन की फिल्म ‘मातृ’ भी स्त्रीअस्मिता के मुद्दे को उठाती है। इस फिल्म में रवीना एक ऐसी मां की भूमिका में हैं जिन्हें उनकी बेटी के सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद इंसाफ नहीं मिलता। पुलिस यहां तक कि उसका पति भी साथ छोड़ देता है, ऐसे में वह मां गुनहगारों को अपने तरीके से सबक सिखाती है और अपनी बेटी के कातिलों को सज़ा दिलाती है। अश्तर सैयद के निर्देशन में बनी यह फिल्म व्यवस्था के प्रति एक बार फिर कई प्रश्न खड़े करती है। ‘मातृ’ के ट्रेलर के अनुसार फिल्म की नायिका विद्या (रवीना टंडन) दिल्ली में रहती है। वह अपनी बेटी के साथ कहीं जा रही होती है तभी कुछ गुंडे उन्हें पकड़ लेते हैं। इसके बाद गुंडे विद्या की बेटी के साथ बलात्कार करते हैं जिससे उसकी मौत हो जाती है। जब विद्या कानून का दरवाजा खटखटाती है तो उसे पुलिस से मदद नहीं मिलती और फिर अपनी बेटी के कातिलों से बदला लेने का फैसला करती है। ट्रेलर में रवीना एक्शन करती हुई भी दिखाया गया है। इस फिल्म के निर्देशक हैं अश्तर सैयद। लेकिन इस फिल्म को दर्शकों तक पहुंचने से पहले सेंसरबोर्ड की कैंची से हो कर गुज़रना पड़ा है। कुछ दिन पहले ’लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ को सेंसर बोर्ड ने ’असंस्कारी’ बताते हुए सर्टिफिकेट नहीं दिया था और अब रवीना टंडन की ’मातृ’ भी सेंसर ने आपत्ति जताई। बेशक़ यह फिल्म देश में बढ़ते हुए बलात्कार को लेकर है किन्तु सेंसरबोर्ड ने इसके हिंसक रेप सीन पर ऐतराज किया।
फिल्म ’इंग्लिश-विंग्लिश’ में अपनी बेहतरीन अदाकारी से दर्शकों का दिल जीतने वाली श्रीदेवी की फिल्म ’मॉम’ का टीजर लॉन्च किया गया है। श्रीदेवी अपनी फिल्म ’मॉम’ के साथ फिर पर्दे आने को तैयार हैं। ’मॉम’ की स्टोरी एक मां के कॉन्फिलिक्ट की कहानी है। जी स्टूडियो की इस फिल्म के डायरेक्टर हैं रवि उद्यावर, मॉम इनकी पहली फिल्म है। अपराध आधारित कहानी ’मॉम’ में सौतेली मां का अपनी बेटी के साथ संघर्ष की कहानी है। अक्षय खन्ना भी इस फिल्म में निगेटिव किरदार में नजर आ रहे हैं। इस फिल्म में श्रीदेवी के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी महत्वपूर्ण किरदार में नजर आएंगे. रवि उदयवार के डायरेक्शन में बनी ’मॉम’ को श्रीदेवी के पति बोनी कपूर प्रोड्यूस किया हैं। इस फिल्म की शूटिंग दिल्ली और जॉर्जिया की लोकेशन पर की गई है।
इन फिल्मों के कथानकों का यदि निष्कर्ष देखा जाए तो जो सच्चाई सामने आती है वह चिन्ता में डालने को र्प्याप्त है कि ‘इंसाफ का तराजू’ से ‘पिंक’, ‘मातृ’ और ‘मॉम’ तक देश के हालात में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है, देश तेजी से प्रगतिपथ पर बढ़ रहा है लेकिन बलात्कार जैसे गंभीर अपराध के विरुद्ध न्याय मिलने के बदले स्त्री को स्वयं जूझना पड़ता है और अपने ढंग से दण्डित करने को विवश होना पड़ता है, बशर्ते उसमें इसका साहस हो। यानी सामाजिक दबाव और दोहरेपन के चलते स्त्री को अभी भी न्याय नहीं मिल पा रहा है।
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