प्रस्तुत है आज 07.05.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ श्यामसुंदर दुबे जी के नवगीत संग्रह "ठौर-कुठौर" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
ये नवगीत विगत धारा से आगे का आयाम रचते हैं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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नवगीत संग्रह - ठौर-कुठौर
कवि - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक - बिम्ब-प्रतिबिम्ब पब्लिेकेशंस, शाॅप नं.4, ट्रेकऑन कोरियर, फगवाड़ा, पंजाब-01
मूल्य - 350/-
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हिन्दी साहित्य जगत में डाॅ. श्यामसुंदर दुबे एक स्थापित नाम हैं। वे संस्कृतिविद हैं, प्रकृति के संवादी हैं और गद्य-पद्य दोनों विधा में समान अधिकार से सृजन करते हैं। वे अपने ललित निबंधों के लिए भी जाने जाते हैं। डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने नवगीत भी लिखे हैं। एक श्रेष्ठ नवगीतकार के रूप में भी उनकी पहचान है। ‘‘ठौर-कुठौर’’ उनका पांचवां नवगीत संग्रह है। इसमें वे नवगीत भी हैं जो कोरोनाकाल के बाद लिखे गए, इसलिए उनकी भावभूमि मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी है। नवगीत के उद्भव का उद्देश्य भी यही रहा है कि उसमें यथार्थ का अधिक समावेश हो किन्तु सम्पूर्ण कोमलता के साथ।
नवगीत को आधुनिक युग की काव्य धारा कहा जाता है। सन 1948 में अज्ञेय के संपादन में ‘‘प्रतीक’’ का ‘‘शरद अंक’’ आया, जिसमें अघोषित रूप से नवगीत विद्यमान थे। उस समय जो नए गीत आ रहे थे, वे पारम्परिक गीतों के मानक को तोड़ रहे थे और अपना अलग विधान रच रहे थे। सन 1958 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के संपादन में ‘‘गीतांगिनी’’ का प्रकाशन हुआ। ‘‘गीतांगिनी’’ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने गीत की इस नूतन विधा को ‘‘नवगीत’’ का नाम दिया। इसी के साथ इस विधा का तात्विक विवेचन भी किया गया। राजेद्र प्रसाद सिंह की ‘आईना’ पत्रिका ने नवगीत को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। नवगीत अपने विकास के साथ-साथ अपनी कहन के विषय स्वयं निर्धारित करता गया। इसमें जहां ग्राम्य जीवन की विषमताओं का आरेखन था वहीं नगरीय यांत्रिकता भरी विडम्बनाओं का विवरण था। शंभुनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, देवेद्र शर्मा इंद्र, कुंवर बेचैन, अनुप अशेष, वीरेद्र मिश्र, जहीर कुरेशी, महेश्वर तिवारी, ठाकुरप्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, बुद्धिनाथ मिश्र, श्रीरामसिंह शलभ, नचिकेता, राजेन्द्र गौतम, नईम आदि वे नवगीतकार रहे जिन्होंने इस विधा को शिखर पर पहुंचा दिया। वीरेन्द्र आस्तिक के शब्दों में -‘‘अर्थात्मक दृष्टि से आज नवगीत गद्य कविता से किसी मायने में कम नहीं है।’’
डाॅ. श्यामसुंदर दुबे के नवगीतों में जीवन की विषमताओं एवं कठोरता का चित्रण है, किन्तु लालित्य भी है। वे अपनी बात सहजता से कहते हैं। उनके गीतों में आंतरिक तथा बाह्य प्रति संवेदनाओं का एक संतुलित स्वरूप दिखाई देता है। ‘‘ठौर-कुठौर’’ में श्यामसुंदर दुबे के संग्रहीत 77 नवगीतों में से कुछ की चर्चा बानगी के रूप में की जा सकती है। जैसे संग्रह का पहला नवगीत है ‘‘इस सुरंग में’’। इस नवगीत में कर्ज़, मंहगाई और लाचारी का वह दृश्य है जो सेाचने को विवश कर देता है कि हम किस वातावरण में जी रहे हैं, जहां भूख है, संत्रास है और छल-कपट है-
दिन भारी है
आरी के भीतर आरी है
कैसी ये पहरेदारी है
रातों लूटे चोर, दिनों में जेब कतराता
मिठबोला बेपारी है!
पुरखिन पूंजी
हाटों बिक गई
सूने घर की भूख बड़ी है
यह कैसी इमदाद
ऊंट के मुंह में जीरा जैसी
इजलासों में भीड़ खड़ी है!
गरीबी किसी जाति, धर्म अथवा समाज को नहीं चुनती है अपितु वह सिर्फ़ उस घर में कब्ज़ा किए रहती है जहां विपन्नता हो। फिर भी घोर विपन्नता में भी पास्परिक संबंधों की उष्मा उम्मीद की किरण और खुशी का एक कण संजोने की ताकत रखती है। ‘‘घर हिलता है’’ में इसी भाव को देखिए-
रिश्तों के पर्दों को
अब्बू की सुई जैसे सिल रही
घर की दीवार
इधर वर्षों से हिल रही
नींव का पत्थर क्या खिसका है
छप्पर की छाती कर्कश आवाजों की
छैनी से छिल रही !
पौर के कोने तक
कुछ धूप अभी बाकी है,
तमाम कालिखों के बीच
झिलमिल-सी बिटिया, दिया बाती है!
डाॅ. श्यामसुंदर दुबे अपने नवगीतों में उन नबीन बिम्बों को चुनते हैं जो हमारे बीच, हमारे समाज में मौजूद हैं और हम कहीं न कहीं उन्हीं की तरह अपने आप को जी कर खुद को पहचान सकते हैं। ‘‘धुनिया’’ शीर्षक नवगीत में कवि ने एक धुनिया यानी रुई धुनने वाले की तरह जीवन जीने का आह्वान करते हैं ताकि विषमताओं के कारण मन में जमते जा रहे नैराश्य को धुन कर अलग किया जा सके। नवगीत का एक अंश देखिए-
तुम ही कुछ कहो
और केवल हम सुने
धुनिया बन
अपने ही भीतर की रूई को धुनें
रूई जो/प्रवादों के फाहों में
लिपट-लिपट गर्द और गुबार हुई,
अपनी ही आबरू
विचारों की पींजन में
चिन्दी-चिन्दी उडी और तार-तार हुई!
कौन सी/दिशा में मुड़ें
कब किससे हम जुड़ें
दोगले समय में आओ हम राह चुनें!
जब बुंदेलखंड के आधुनिक साहित्य की बात आती है तो बांदा निवासी चर्चित कवि केदारनाथ अग्रवाल के स्मरण के बिना चर्चा अधूरी रहती है। वहीं बुंदेलखंड की चर्चा आते ही इस भू-भाग से किसानों और श्रमिकों के पलायन का ज्वलंत बिन्दु भी जाग उठता है। श्यामसुंदर दुबे ने केदारनाथ का स्मरण करते हुए किसानों और श्रमिकों के पलायन की समस्या को बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है। ‘‘सूना है बुंदेलखंड’’ शीर्षक का यह पूरा नवगीत अपने-आप में अद्भुत है, जिसका एक अंश है -
अब होते जो
अगर कवि जी
तो किससे कहते
करबी काटो/पत्थर तोड़ो
भरी भुजाओं से/मजदूरों
अड़ियल पथ के रूख को मोड़ो ।
सूना है बुंदेलखंड
मजदूर-किसानों से
हुआ पलायन इतना भारी
इक्के-दुक्के यहां गांव में अब वे दिखते।
श्यामसुंदर दुबे के नवगीतों में विषय की विविधता एवं संवेदनाओं का विस्तार है। वे समष्टि से व्यष्टि और व्यष्टि से समष्टि तक विचरण करते हैं। गोया वे भावनाओं के रेशे-रेशे को अपने नवगीत में बुन देना चाहते हैं। ‘‘आसक्तियों का अपरंपार’’ इसका एक अच्छा उदाहरण है- ‘‘समय की धार ने/कुछ चिह्न छोड़े/जीवन-नदी के इन पठारी तटों पर/अब बचा है-रेत का विस्तार!/बांचता हूं/इन्हें चश्मा चढ़ाकर/आंख पर/किसी पक्षी की कथा के/चित्र उभरे/एक टूटी पांख पर/नापता आकाश था जो/पेड़ जिसको न्यौतते थे/व्याघ का शर चुभा था जिसे/वह क्रौंच में ही था/सिमट आया चिलाचिलाती रेत पर/जिसका ब्यथा संसार।’’
वस्तुतः ‘‘ठौर-कुठौर’’ नवगीत संग्रह में डाॅ श्यामसुंदर दुबे के नवगीत एक ऐसा संसार रचते हैं जहां भावनाओं की गहराई है और जीवन का सच है। इसमें भाषाई सौम्यता है, निर्झरणी के प्रवाह-सी शैली है तथा वैचारिक गाम्भीर्य है। ये नवगीत भावनाप्रधान होते हुए भी बौद्धिक चेतना से ओतप्रोत हैं। ये नवगीत विगत धारा से आगे का आयाम रचते हैं। निःसंदेह यह नवगीत संग्रह हिन्दी काव्य को समृद्ध करने वाली कृति है। -------------------------
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