Tuesday, May 2, 2023

पुस्तक समीक्षा | प्रेम के सापेक्षीय युगबोध का दृश्य रचती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 02.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  वरिष्ठ कवि राजेंद्र गौतम के काव्य संग्रह "ठहरे हुए समय में" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
प्रेम के सापेक्षीय युगबोध का दृश्य रचती कविताएं
    - समीक्षक  डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - ठहरे हुए समय में
कवि           - राजेन्द्र गौतम
प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स,क्ष1/10206, लेन नं.18, वेस्ट गोरखपार्क,शाहदरा, दिल्ली-32  
मूल्य       - 250/-
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राजेन्द्र गौतम हिन्दी काव्य जगत में एक वरिष्ठ और सुपरिचित नाम है। मैंने उनके दोहे भी पढ़े हैं और नवगीत भी। बल्कि मैं यह कहूंगी कि नवगीत के दौर में जिसे हम ‘‘धर्मयुग काल’’ कह सकते हैं, राजेन्द्र गौतम जी के नवगीतों से मेरा परिचय हुआ। उस समय की अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाओं में राजेन्द्र गौतम जी के नवगीत प्रकाशित हुआ करते थे। नवगीत के पुरोधा देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ जिनका नवगीत सृजन के दौरान मुझे विशेष आशीर्वाद मिला (मेरा दुर्भाग्य कि उनसे कभी भेंट नहीं हुई), वे अपने पत्रों में राजेन्द्र गौतम जी के नवगीतों के प्रति सदा आश्वस्त मिले। लगभग एक युग बीत जाने जैसे एक लम्बे अंतराल के बाद मेरा राजेन्द्र गौतम जी से पुनःसंवाद हुआ और उनकी नई कृति ‘‘ठहरे हुए समय में’’ प्राप्त हुई। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मेरा पूर्व परिचय अथवा राजेन्द्र गौतम जी की पूर्व काव्य रचनाओं के प्रभाव से मुक्त हो कर ही यह समीक्षाकर्म कर रही हूं। क्योंकि मैं यह मानती हूं कि प्रत्येक रचनाकार का उसकी प्रत्येक नई कृति के साथ पुनर्जन्म होता है। अपने हर जन्म में वह एक-सा रहे, यह सुनिश्चित नहीं होता है। कभी अपने पिछले जन्म की अपेक्षा ख़राब या अपेक्षाकृत बहुत अच्छा साबित हो सकता है। स्पष्ट है कि हर कृति के सृजन के समय कृतिकार अलग मनोदशा तथा अलग अनुभवों के दायरे में होता है। इस कृति को आद्योपांत पढ़ने के बाद मुझे अनुभव हुआ कि इस काव्य संग्रह में संग्रहीत कई कविताएं अपने पूर्व काव्यसृजन से बहुत आगे निकल कर सृजित हुई हैं। ये वे रचनाएं हैं जो सिखाती हैं कि एक रचनाकार किस तरह समय की किताब को पढ़ते अपने विचारों को ‘अपडेट’ रख सकता है। संग्रह का नाम है ‘‘ठहरे हुए समय में: कुछ प्रेम कविताएं’’ जिसके द्वारा कवि ने समय और प्रेम के पारस्परिक संबंध को बहुत सुंदर ढंग से बिना किसी उपदेश के सामने रखा है।

राजेन्द्र गौतम ने आत्मकथ्य ‘‘सत्रह और सत्तर के दरमियान’’ में प्रेम के प्रति अपने दृष्टिकोण और समझ को अपनी एक पुरानी कविता के माध्यम से व्यक्त किया है। वे लिखते हें कि ‘‘तो हाजिर हैं कुछ प्रेम-कवितायें ! आपसे थोड़ा बतिया लेता हूं- प्रेम के बारे में नहीं, कविताओं के बारे में। ‘गूंगे के गुड़’ के बारे में कोई कैसे बतिया सकता है? इस संग्रह का प्रकाशन भी विचित्र विरोधाभासी है। अपने छपे अनछपे को टटोलते हुए 50 साल पहले की एक डायरी में लिखी छोटी-सी कविता मिली ‘निरर्थक शब्द’! कविता इस प्रकार- ‘‘एक दिन मैं बहुत हैरान रह गया जब हाथ लग गया/अपने ही जीवन-कोश का एक पुराना पन्ना/अंकित थे उसमें ये भी शब्द- प्यार, प्राण, प्रियतमा, साथी, अभिसार!/ ओह, किस काल-खण्ड में बन गया था यह शब्दकोश/जिसमें आ गये थे निरर्थक शब्द भी !’’
प्यार, प्राण, प्रियतमा, साथी, अभिसार को नकारती सत्रह वर्ष के एक किशोर की वह कविता और सत्तर तक पहुंचे इस वृद्ध ‘बालक’ का प्रेम-कविताओं का यह संग्रह! कितना विरोधाभासी है यह सब ! मुझे यह अनुभव और कल्पना के गडमड हो जाने का मामला लगता है।’’
कवि की सहज स्वीकारोक्ति। निःसंदेह यह विरोधाभास लग सकता है, यदि ऊपरीतौर पर देखा जाए तो। जबकि यथार्थतः प्रेम की व्यापकता और गरिमा का वास्तविक बोध आयु के साथ ही परिपक्व होता है। सत्रह की आयु में एक-दूारे को देख कर मुस्कुरा देना मात्र ‘गहरा प्रेम’ लग सकता है और वहीं एक तरफा प्रेम दूसरे की बेरुखी और बेवफ़ाई लग सकती है। उस आयु में परिस्थितियों का बोध नहीं रहता है किन्तु आयु बढ़ने के साथ जीवन के अनुभव बढ़ते हैं और प्रेम का स्वरूप कुछ-कुछ समझ में आने लगता है। यद्यपि, कुछ लोगों का पूरा जीवन निकल जाता है प्रेम को समझे बिना। वर्तमान मशीनीकृत और संवेदनाओं के क्षरण के इस युग में प्रेम का बोध और अधिक कठिन हो चला है। संग्रह की पहली ही काव्य रचना समय का गहरा भावबोध कराती है। शीर्षक है ‘‘कुछ भी तो नहीं मिटा’’। कुछ पंक्तियां देखिए-
 ग्वायर हॉल के
हॉस्टल रूम का ताला
इसी हाथ ने खोला था
इससे पहले
राजीव चैक से विश्वविद्यालय तक
सन्तुलन के लिए इसी ने पकड़ा था
खचाखच भरी मेट्रो में हैन्डल
यों तो ओडेन सिनेमा हाल में
कुर्सी के हत्थे पर भी
टिका रहा था यही बहुत देर तक
और इसी ने दबाया था
उतरते हुए लिफ्ट का बटन !
मगर सब कुछ तो मौजूद है इस पर.....
ज्यों-का-त्यों !
कुछ भी तो नहीं मिटा
देर-देर तक घेरे रहे वे सुगन्ध के परमाणु
क्या इतनी अमिट होती है प्यार की खुशबू?
सच कुछ भी तो नहीं मिटा....
बहुत वाचाल था इस महक का एहसास
मेरे भीतर के एकांत मौन की तरह !

नवगीत से बहुत आगे, छांदासिक प्रवाह लिए नई कविता और शाश्वत अनुभूति की यह प्रथम कविता इस बात की दस्तक दे देती है कि कुछ नया, चैंकाता हुआ-सा बहुत नया पढ़ने को मिलने वाला है आगे के पृष्ठों में।
क्या समय कभी ठहरा है? क्या समय कभी ठहर सकता है? जटिल प्रश्न है। इसका उत्तर तो सीधा-सरल है कि ‘‘नहीं!’’ लेकिन इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता है कि इतिहास के पन्नों और मानवीय स्मृतियों में समय ठहरा रहता है। संग्रह की शीर्षक कविता है ‘‘ठहरे हुये समय में’’। इस कविता में कवि ने प्रेम, राजनीति, चारित्रिक गिरावट और अनुभव की असीमितता को बड़ी कुशलता से एक साथ प्रस्तुत कर दिया है, मात्र एक अदद राजघाट का संदर्भ दे कर -
मुट्ठी मैं क़ैद जुम्बिश
राजघाट पर आज नहीं बधेंगे हम
प्यार के वचन में
यहां पर नहीं बोलेंगे वायदों की भाषा.....
पुराने लोगों से सुना है-
राजघाट पर
गांधी की शपथ लेकर भी
झूठे कर दिए गये थे सब वायदे
सन् 77 में!
....लेकिन
और बहुत कुछ है
जो हम कर रहे हैं।

समयबोध से लबरेज़ एक और कविता है ‘‘ताल पर कंकड़ी’’। इस कविता में ‘कव्हरेज़ क्षेत्र’ के बहाने जो व्यंजना रची गई है, वह नवोदित कवियों के लिए एक ‘‘टेक्स्ट लेसन’’ कही जा सकती है। कविता की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं-
गया था,
मैसेंजर में भी गया था
तुम वहां भी नहीं थे।
तुम्हारे ‘जीयो’ वाले नम्बर ने
बड़ी शालीनता से कहा था-
‘‘आप जिस नम्बर से सम्पर्क करना चाहते हैं,
फिलहाल वह स्विच ऑफ है
या कवरेज क्षेत्र से बाहर है।’’
आज तक कहां जान पाया मैं
कहां से शुरू होता है-
तुम्हारा कवरेज क्षेत्र!

    ‘‘कुछ खुला-खुला’’ और ‘‘कुछ बंधा-बंधा’’ -इन दो उपखंडों में विभक्त कुल 62 कविताओं में से अनेक बानगियां दी जा सकती हैं जो कवि के रचनाकर्म की प्रतिबद्धता और समय के साथ चलने का बिम्ब प्रस्तुत करती हैं। छंदबद्ध रचनाओं के सृजन के एक दीर्घानुभव ने राजेन्द्र गौतम की इन अतुकांत कविताओं को भी रस और प्रवाह से परिपूर्ण किया है। कविताओं का मूल विषय वस्तु प्रेम होते हुए भी समय से संवाद की प्रकृति इनमें उपस्थित है। वे आज की बात करते हुए आज का उदाहरण चुनते हैं और अतीत को मात्र आधार के रूप में प्रयोग करते हैं। देखा जाए तो प्रेम के बहाने कवि ने युग की सापेक्षता को जांचा और परखा है। वस्तुतः सापेक्षता अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा तैयार की गई एक प्रमेय है, जिसमें कहा गया है कि अंतरिक्ष और समय सापेक्ष हैं, और सभी गति-संदर्भ को एक फ्रेम के सापेक्ष होनी चाहिए। यह एक धारणा बताती है कि भौतिकी के नियम हर जगह समान हैं। यह सिद्धांत सरल है लेकिन समझने में कठिन है। ठीक प्रेम और युग की तरह। जिन्हें कवि ने सापेक्षता की कसौटी पर कसते हुए परस्पर पूरक के रूप में प्रयुक्त किया है। राजेन्द्र गौतम का यह काव्य संग्रह सभी के लिए पठनीय है, विशेषरूप से युवा रचनाकारों के लिए, ताकि वे अतुकांत कविता के सही स्वरूप को समझ सकें, सीख सकें।        
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