चर्चा प्लस
वेद बताते हैं हमें प्रकृति की महत्ता
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
हम वैज्ञानिक प्रगति के जिस दौर में हैं उसमें दुनिया भर के वैज्ञानिक वेदों के श्लोकों को डी-कोड कर के प्रकृति के तत्वों एवं रहस्यों को समझने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। यहां तक कि नासा ने भी वैदिक सूत्रों को डी-कोड कर के खगोलीय गणना को समझने का प्रयास किया है किन्तु हम अपने ही आदि ग्रंथों को ‘आउटडेटेड’ मान कर उन्हें पढ़ना और समझना छोड़ चुके हैं। जबकि हमारे वैदिक ग्रंथों में जीवन, प्रकृति और पृथ्वी का तमाम ज्ञान मौजूद हैं जिनके सहारे हमारे देश की प्रकृतिक संपदा लाखों वर्ष सुरक्षित रही। मगर अब उस ज्ञान को भुला कर हमने प्रकृति को भी संकट में डाल रखा है।
पर्यावरण असंतुलन एवं विभिन्न प्रकार के प्रदूषण ऐसी समस्या है जिससे आज दुनिया का हर देश जूझ रहा है। इस समस्या को हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्ष पहले वैदिक युग में ही न केवल समझ लिया था अपितु समस्या का हल भी अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था इसीलिए उन्हें कभी भी पर्यावरण असंतुलन जैसी समस्या से नहीं जूझना पड़ा। वे इस तथ्य को जान चुके थे कि इस पृथ्वी पर स्थित प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन, प्राकृतिक तत्वों से मिल कर बनी है। मनुष्य का शरीर भी पंच-तत्व से मिल कर बना हुआ है अतरू मानव जीवन के लिए प्राकृतिक पदार्थों का उनके मूल एवं विशुद्ध रूप में बने रहना अत्यंत आवश्यक है। पर्यावरण का सीधा संबंध प्रकृति से है, जहां समस्त जीवधारी प्राणियों और निर्जीव पदार्थों में सदा एक दूसरे पर निर्भरता और समन्वय की स्थिति रही है। प्रकृति में सजीव और निर्जीव पदार्थ होते हैं जो एक दूसरे के पूरक बन कर प्रकृति की समस्त क्रियाओं का संचालन, संवहन एवं संचरण करते हैं। इन्हीं सजीव एवं निर्जीव पदार्थों का परस्पर पूरक संबंध पर्यावरण का निर्माण करते है।
पृथ्वी पर और उसके चारो ओर व्याप्त वायुमण्डल तथा सभी प्रकार के जैन अजैव तत्वों में परस्पर सामंजस्य रहता है। यही सामन्जस्य पर्यावरण को जन्म देता है। भारत में प्राचीनकाल से ही इस तथ्य को भली भांति समझ लिया गया था। प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, पुराण आदि में पर्यावरण के विविध तत्वों पर अत्यंत सूक्ष्मता से न केवल प्रकाश डाला गया है अपितु उन्हें स्तुत्य भी माना गया है। वस्तुतरू जब हम किसी व्यक्ति के प्रति आभार का अनुभव करते हैं, स्वयं को उसका ऋणी मानते है अथवा उसकी उपस्थिति प्राणदायिनी के रूप में अत्यंत आवश्यक मानते है तब हम उसे देवत्व के योग्य मान कर उसकी पूजा करने लगते है तथा यही कामना करते हैं कि उसका अस्तित्व सदा बना रहे तथा हम उससे लाभान्वित होते रहे। इस प्रकार की पारणा के मे मूल में धार्मिकता नहीं अपितु उसके महल को स्वीकार करने की भावना निहित होती है। हमारे प्राचीन ऋषी मुनियों ने प्रकृति एवं पर्यावरण के महत्व को न केवल समझा बल्कि प्रकृति एवं पर्यावरण के तत्वों को पूजनीय माना । वेदों में स्वस्थ एवं संतुलित पर्यावरण की प्रार्थना भी की गई है।
हमारे ऋषि-मुनियों को पर्यावरणतंत्र का समुचित ज्ञान था। उन्होंने जड़ जगत अर्थात् पृथ्वी, नदिया, पर्वत, पठार आदि तथा चेतन जगत अर्थात् मानव, पशु, पक्षी, जलचर, वन आदि के पारस्परिक सामंजस्य को भी समझा तथा इस सामंजस्य को पर्यावरण के लिए आवश्यक निरूपित किया। वै यह भी समझ गए थे कि जड़ एवं चेतन तत्वों में से किसी की भी क्षति होने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ सकता है और इसीलिए उन्होंने प्रत्येक तत्व के प्रति आदर भावना को प्रतिपादित किया जिससे मानव किसी श्री तत्व को पति पहचाने में संकोच करे। धीरे-धीरे हम प्राचीन मूल्यों को भूलते गए और इसी का प्रतिफल है कि आज हमें पर्यावरण के असंतुलन के संकट से जूझना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए यह स्मरण किया जा सकता है कि जब तक वन का स्वरूप हमारे मन-मस्तिष्क में एक देवता के रूप में स्थापित था तब तक हमने वनों की अंधाधुंध कटाई नहीं की थी लेकिन जैसे-जैसे हमने वनों को देवता मानना छोड़ दिया वैसे- वैसे वन हमें मात्र उपभोग की वस्तु दिखने लगे और हमने अंधाधुंध कटाई शुरू कर दी। वेदों में प्रकृति और पर्यावरण के संबंध में विस्तृत जानकारी मिलती है। ऋग्वेद को प्रकृति विज्ञान की प्रथम पुस्तक माना गया है। इसमें मनुष्य एवं प्रकृति के अंतर्सम्बन्धों के बारे में भी बताया गया है। यजुर्वेद में पर्यावरण को शुद्ध एवं संतुलित रखने के बारे में उल्लेख किया गया है। वेदों में पर्यावरण क आकार अत्यंत व्यापक है। पर्यावरण के महत्तर स्वरूप पर वेदों में पूरे-पूरे सूक्त रचे गए हैं। पृथ्वी सूक्त भी एक ऐसा ही सूक्त जिसमें पृथ्वी की महत्ता के साथ-साथ उसके प्रति अगाध निष्ठा एवं विश्वास को निरूपित किया गया है-
विश्वम्भरा पानी प्रतिष्ठा विनिवेशनी।
वैश्वानर विभ्रती भूमिरम्नि मिन्द्र ऋषभा द्रविणे न धातु ।। (6/पृथ्वी सूक्त)
- अर्थात् ये जो अपनी धरती माता है ये समूचे विश्व का भरण-पोषण करती है। अतः ये सदा सम्पन्न रहे तथा सम्पूर्ण जगत की आश्रयदात्री रहे। ये सदा सोने की खान के समान सौभाग्यशालिनी रहे तथा इसकी ममता की शीतल छाया में वैश्वानर पतला रहे। आओ हम इसे संरक्षण दे तो ये भी हमें संरक्षण देगी।
गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्य ते पृथिवि स्योनमस्तु ।
बभ्रुुकृष्णा रोहिणी विश्वरूपा ध्रुवाभूमिं पृथिविमिन्द्र गुप्ताम् ।। (11/पृथ्वीसूक्त)
- अर्थात ये हरे भरे पर्वत, येऊंचे ऊंचे वृक्ष, जीवन और धरती की प्यास बुझाती नदिया, बादलो के नाद पर नाचते मोर, कुचाले भरते हिरण, गर्जना करते सिंह, चिंघाड़ाते हाथी, अपने पास बुलाते पक्षी, ये जीवन और सौभाग्य की अधिष्ठात्री प्रकृति सदा अजेय रहे, अविजित रहे, अविराम रहे, अभिराम रहे तथा यह किसी भी प्रकार से आहत न हो। ऋषियों ने जीवन के लिए आवश्यक प्रत्येक तत्व के पीछे एक देवीय सत्ता का अनुभव किया। उनकी दृष्टि में पृथ्वी, जल, वायु, वृक्ष आदि जड़ नहीं अपितु चेतन हैं तथा ये सभी चेतनापूर्ण ऊर्जा से भरे हुए हैं। उन्होंने पर्यावरण और मनुष्य को एक-दूसरे का पूरक कहा।
यस्यभूमिः प्रभाऽन्तरिक्षमुतोदरम्
दिवं यश्चके मूर्धान तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ।। ( 10/7/32/अथर्ववेद)
- भाव यह है कि प्रत्येक मनुष्य को प्रकृति के अनुसार जीना चाहिए। पर्यावरण और मनुष्य परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के बिना मनुष्य का और मनुष्य के बिना प्रकृति की कोई सार्थकता नहीं है। वेदों में प्रकृति पर आधारित जीवनचर्या को सुख, शांति और समृद्धि का आधार माना गया है। अनुरूप जीवन तथा ऋतुओं के अनुरूप भोजन को उत्तम बताया गया है। प्रकृति की पूजा को अनिवार्य कर्म निरूपित किया गया है।
ब्राह्मणासो अतिरात्रे न सोमे सरो न पूर्णमभितो वदन्तः ।
संवत्सरस्य तदहः परिष्ठ यन्मण्डूकाः प्रावृषीणं बभूव ।। (7/103/7/ऋग्वेद)
- अर्थात् हे मनुष्यों । प्रकृति का स्वागत करो, नए पेड़ लगाने का उत्सव मनाओ। नए फूलों के खिलने का आनंद मनाओ! ये प्रकृति जीवनसुधा है। इसे विष में परिवर्तित न होने दो। यही जीवन का आधार है, आश्रय है और हमारे मूत, भविष्य और वर्तमान की पालनहार है।
विमग्वरी पृथिवीमावदागि क्षमा भूमिब्रह्मणा वावृधानाम्।
ऊर्ज पुष्टं विप्रतीमनभा तत्वाभिनिषदे भूमे।। (9/पृथ्वी सूक्त)
- इस पृथ्वी में अपार शक्ति है। इसमें वनस्पतिया, औषधियां एवं सभी प्रकार के जीवनदायी तत्व है इसलिए इसकी पूजा करो! इसे पुत्रवत् संरक्षण प्रदान करो तथा इससे मित्रवत् मिलो ! वैदिक काल में पर्यावरण को आठ भागों में विभक्त किया गया था- वायु, जल, ध्वनि, खाद्य, मिट्टी, वनस्पति, वनसम्पदा तथा पशु-पक्षी । ऋग्वेद में प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा पर बल दिया गया है। ऋषियों के अनुसार प्राकृतिक तत्वों से ही मानव इस जीवन को तथा श्रेष्ठता को प्राप्त करता है।
अतो देवा अवन्तुना यतो विष्णुर्विचक्रमे पृथिव्याः सप्त द्याममिः।। (16/6/22 ऋग्वेद)
- अर्थात् जगदीश्वर ने जिन सात तत्व अर्थात पृथ्वी, जल, अगि, वायु, विराट, परमाणु और प्रकृति से चराचर जगत् का निर्माण किया है, वे ही तत्व हमारी रक्षा करते रहें।
त्रिरश्विना सिन्धुमिरू सप्तमात मिखय आहावाखेचा हविष्कृताम् ।
तिखः पृथिवीपरि प्रवादियो कुमिति।। (5/8/34/ऋग्वेद)
अर्थात् मनुष्यों को चाहिए कि वायु के छेदन, आकर्षण और वृष्टि कराने वाले गुणों से नदी बहती तथा हवन किया हुआ द्रव्य दुर्गान्ध आदि दोषों का निवारण कर सबको दुखों से रहित कर सुखों को सिद्ध करता है। इसके बिना कोई भी प्राणि जी नहीं सकता है अतः इसकी शुद्धि के लिए यशरूपी कर्म नित्य ही करना चाहिए। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करने का उपदेश दिया क्योंकि प्रकृति के सभी तत्व परस्पर पूरक के रूप में पाए जाते है -
ते जझिरे दिन ऋष्वास उक्षणों रूद्रस्य मर्या असुरा अरपसः ।
पावकासः शुचयः सूर्यो इव सत्वानो न द्रप्सिना घोरवर्पसः ।। (6/2/54/ऋग्वेद)
- अर्थात् मनुष्यों के लिए उचित है कि जो रुद्रस्य जीव व प्राण के संबंधी पवन, प्रकाश से उत्पन्न होते हैं, जो सूर्य की किरणों के समान ज्ञान के हेतु संचन एवं पवित्र करने वाले हैं जिनमें सत्व एवं शुद्ध गुण है जो असुर नहीं है उन्हीं के साथ विद्या जैसे उत्तम गुणों को ग्रहण करें ।
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि वेदों में पर्यावरण एवं प्रकृति के संबंध में विस्तृत ज्ञान निहित है साथ ही निहित है वे समाधान भी जिन्हें अपना कर पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से निजात पाया जा सकता है। यदि हम आज के भौतिकवादी युग की कृत्रिमता को त्याग का प्रकृति के मौलिक स्वरूप पर ध्यान दें तथा उसे उचित संरक्षण प्रदान करें एवं अपनी जीवनचर्या में वेदों में निर्देशित संयम को आत्मसात करें तो हम निश्चित हो कर प्रदूषणमुक्त भविष्य की कल्पना कर सकते है। अतः जितनी आवश्यकता वेदो को संरक्षित करने तथा ज्ञान के प्राचीन स्रोत को संरक्षित करने की है उतनी ही आवश्यकता वेदों में दिए गए पर्यावरण संबंधी आचरण को जीवन में उतारने की है।
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