Friday, June 23, 2023

सुश्री शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा - घनीभूत पीड़ा से उपजा प्रतिरोधी स्वर - वीरेंद्र प्रधान

मित्रो, मैं अभीभूत हूं संवेदनशील वरिष्ठ कवि श्री वीरेंद्र प्रधान जी द्वारा मेरे काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की बेहतरीन समीक्षा "आचरण" में पढ़कर... आप भी पढ़िए... पठन सुविधा के लिए आदरणीय वीरेंद्र प्रधान जी द्वारा प्रेषित टेक्स्ट यहां दे रही हूं.....
    मैं अत्यंत आभारी हूं आदरणीय वीरेंद्र प्रधान जी की इस महत्वपूर्ण समीक्षा के लिए 🙏
   बुक्स क्लीनिक से प्रकाशित मेरा यह का संग्रह अमेजॉन तथा किंडल पर उपलब्ध है...
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मूल्य (प्रिंट एडीशन) रु.200/-
किंडल एडीशन रु.50/-
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समीक्षा
कवयित्री सुश्री शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की समीक्षा
घनीभूत पीड़ा से उपजा प्रतिरोधी स्वर
        -वीरेंद्र प्रधान (कवि,लघुकथाकार)
                                            
       एक के बाद एक चार उपन्यासों के माध्यम से बहुचर्चित रही सुश्री शरद सिंह देश भर में एक जाना-पहचाना नाम हैं। विभिन्न विधाओं में विभिन्न विषयों पर लेखन कर उन्होंने साहित्य में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई है। स्त्री-विमर्श,थर्ड-जेंडर विमर्श , पर्यावरण- संरक्षण जैसे ज्वलंत विषयों पर उन्होंने चिंतन परक पुस्तकों की रचना की है।अपनी विदुषी मां श्रीमती विद्यावती मालविका एवं गजलकारा अग्रजा वर्षा सिंह से मिले साहित्यिक संस्कार उनमें भरपूर समाहित हैं। स्थानीय जनपदीय बोली बुंदेली, हिंदी और अंग्रेजी में विभिन्न अखबारों में  लिखे जा रहे उनके स्तम्भों की लोगों को सदैव तीव्र प्रतीक्षा रहती है।किसी एक पुस्तक पर प्रति मंगलवार उनकी लिखी समीक्षा लोकप्रिय हिंदी दैनिक आचरण में प्रकाशित होती है। इतिहास,विज्ञान और साहित्य की गहरी समझ के कारण उनका लेखन पठनीय और प्रभावी बन जाता है।
            बचपन से ही अध्ययनशील सुश्री शरद सिंह एक मेधावी व प्रतिभावान विद्यार्थी रही हैं। पढ़ाई-लिखाई में सदैव अव्वल रहने वाली शरद सिंह जी ने शोध कार्य को भी बड़ी गंभीरता से लेते हुए खजुराहो की मूर्ति कला पर एक उत्कृष्ट शोध‌ प्रबंध प्रस्तुत किया है।उनके स्वयं के लिखे उपन्यासों और कहानियों पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोधार्थी शोध कर रहे हैं। मूलतः इतिहास व साहित्य की विद्यार्थी रही सुश्री शरद सिंह की ख्याति एक उपन्यासकार, कथाकार,समीक्षक और स्तम्भकार के रूप में अधिक है।मगर एक अत्यन्त संवेदनशील रचनाकार होने के नाते वे स्वभाव से ही कवि हैं। अपने प्रथम काव्य-संकलन "आंसू बूंद चुए" (नवगीत संग्रह) के प्रकाशन के साथ उनका कवि रूप सार्वजनिक हुआ। फिर एक खंड काव्य और एक ग़ज़ल संकलन के प्रकाशन के साथ उनका कविता के क्षेत्र में प्रवेश गहराता गया जिसे हिंदी जगत में सहर्ष और सादर स्वीकार किया गया। "तीन पर्तों में देवता" उनका बुक्स क्लीनिक पब्लिशिंग प्रकाशन से प्रकाशित नवीनतम काव्य संकलन है जिसमें तिरेपन छंदमुक्त कविताएं हैं।इस संग्रह की भूमिका कवि प्रोफेसर आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने लिखी है।अपनी भूमिका में प्रोफेसर त्रिपाठी ने उनसे बेहतर दुनिया के लिए और भी महत्वपूर्ण लिखते ‌रहने की उम्मीद की है।
        रचनाकार का अपना एक खुशहाल परिवार था जिसमें उनकी मां और वे दो‌ बहनें थीं ।काल के क्रूर हाथों ने दो साल पूर्व तेरह दिन के अंदर उनकी मां और बड़ी बहिन दोनों को उनसे छीन लिया।इस प्रकार कोई भी निकटस्थ रक्त संबंधी के अभाव में वे निपट अकेली रह गई।इस अप्रत्याशित एकांत की पीड़ा उनके मन में इतनी घर कर गई कि उससे उबरने में उन्हें महीनों लगे। उन्होंने परिवार की तुलना उस छायादार पेड़ से की है जिसके सभी पत्ते झड़ गये हैं और उसकी छाया से सभी लाभार्थी वंचित हो गये हैं।गौर करें इन पंक्तियों पर-
   "पथरा रही हैं आंखें मोची की
    सूख चली हैं नसें पत्ते की
    दोनों टूटकर भी 
    नहीं टूटे हैं
    पर क्यों?
   वे भी नहीं जानते उत्तर
   सिवा बचे रह जाने की पीड़ा के।"
   ( कविता' बचे रह जाना ' से)

हर कवि प्रेम करता है मानवीय मूल्यों से, प्रकृति से और हर हसीं चीज से ।हर कविता प्रेम कविता ही तो है जो वैयक्तिक अनुभूतियों का व्यापकीकरण कर सर्वजन हिताय लिखी जाती है। कवि के किसी अक्षर,पद या मात्रा में नफ़रत या द्वेष का कोई स्थान नहीं होता। कवयित्री ने प्रेम को एक सड़क के किनारे-किनारे चल रहे दो प्रेमियों के माध्यम से इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है-
 "चाहती हूं तुम्हारी यात्रा
  हर दफा सड़क की लम्बाई को
  जरा और बढ़ाती जाए
  और हम अपनी धुरी में घूमते हुए
   एक दूसरे के अस्तित्व को महसूस कर
   होते रहें ऊर्जावान
   अपने अलौकिक अहसास के साथ
   बहुत छोटा है प्रेम शब्द
   जिसके आगे।"

हमारी संस्कृति में आशीषों में लम्बी उम्र की दुआ की जाती है।यह जानते हुए भी कि परलोकवासी होने पर सब लौकिक इसी लोक में छूट जाता है तमाम लौकिक सुख-समृद्धि से सम्पन्न होने की कामना की जाती है। किसी त्रासदी के बाद बचे हुए लोग लम्बी उम्र के बारे में सोचकर भी सिहर उठते हैं।यह भयभीत हो जाना बड़े ही मार्मिक ढंग  से प्रस्तुत किया गया है एक कविता के इस अंश में-
    "अब कहो
     लहुलुहान आत्मा के साथ
     क्या करूंगी
     लम्बी उम्र का
     अपनी लाचारी के बीच
     यूं भी चुभती है तन्हाई
     हीरोशिमा विध्वंस के बाद के
     सन्नाटे-सी ।"

सभ्यता के विकास में स्त्री की भूमिका सदैव बराबर की रही है मगर इक्कीसवीं सदी में भी उसको समुचित स्थान नहीं मिल पाया है।विमर्श में स्त्री को शामिल तो किया जाता है मगर उसकी दशा में लगातार सुधार की आवश्यकता है। भारतीय सन्दर्भों में समाजवाद के प्रतिपादक डॉ राम मनोहर लोहिया के नर-नारी समता के सूत्र से सहमत शरद जी स्त्री के अस्तित्व व सम्मान के प्रति लगातार चिंतित रहती हैं अपने रचना कर्म में।उनकी चिंता स्पष्ट देखी जा सकती है उन्हीं की कविता के इस अंश में-
   "कवि की कविता में मौजूद
    स्त्रियों-सी
    क्या पत्नी भी एक स्त्री नहीं होती ?"

पिछले वर्षों कोरोना काल बहुत विकराल रहा जिसमें लाखों लोग असमय काल-कवलित हो गये। शुरूआत में संक्रमण जनित इस बीमारी का न तो कोई इलाज था और न ही कोई टीका-वेक्सीन। संक्रमितों को अस्पताल में दाखिल कर सिर्फ उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के प्रयास ही चिकित्सकों के हाथों में थे।सौ साल पहिले फैली एक महामारी की तरह ही इस बीमारी ने भी बहुत कहर बरपाया। परिजनों के वश में पीड़ित के उत्तम स्वास्थ्य लाभ हेतु प्रार्थनाओं के अलावा कुछ न था। ऐसी अनगिनत प्रार्थनाओं के बावजूद अनेकों कोरोना प्रभावितों के देहांत से लोग बहुत आहत हुए।उनका प्रार्थनाओं और पूजा-पाठ से विश्वास डिग गया।ईश्वर की सत्ता से उनका मोहभंग हो गया।सत्ता से मोहभंग का समय रहा है कोरोना-काल।मैंने भी इस बीमारी से हुई क्षति से दुखी होकर "तुम तो निष्ठुर हो नारायण "शीर्षक कविता लिखी थी।शरद सिंह जी ने ईश्वरीय अस्तित्व के प्रति अपने असंतोष का प्रकटीकरण अपनी" तीन‌ पर्तों में देवता" कविता के माध्यम से कुछ इस प्रकार किया है-
     "आस्था की टूटी                                                              
      किरचों से
      लहुलुहान मन 
      अब नहीं बनेगा 
      याचक
      जो स्वयं भी 
      कैद हो गया था 
      मन्दिरों में
      मोटे-मोटे कपाटों के भीतर
      अब नहीं देखना है मुझे
      उसकी ओर
      हां, मैंने लपेट दिया है
      तीन पर्त्तों में
      देवता को भी।"

कल,आज और कल में समुचित समन्वय बनाकर सफर तय करना अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में बहुत सहायक होता है ।अतीत की सुखद स्मृतियां जहां किताबों में रखे सूखे फूलों की भांति सुकून देती हैं वहीं दुखद स्मृतियां हृदय में शूल की तरह चुभ और आपकर पीड़ा पहुंचाती हैं। कवयित्री अपने भाव कविता "सूखे हुए फूल के साथ" के माध्यम से कुछ इस प्रकार  प्रकट करती है-
   "कितना  मुश्किल है 
    अतीत से बचाना
    वर्तमान को
    और तय करना 
    भविष्य की यात्रा
    किसी सूखे हुए फूल के साथ।"
"कलम की नोंक पर ठहरी कविता " के माध्यम से उन्होंने कविता के समस्त गुण धर्मों की सुंदर व्याख्या की है।अवलोकन करें इस कविता के साथ तत्व को इन पंक्तियों के माध्यम से-
    "यह कविता जाति,धर्म,रंग से परे
     संवाद है 
     मनुष्य से मनुष्य का
     यह कविता दिखा सकती है 
     व्यवस्था की खामियां
     शासन-प्रशासन की लापरवाहियां।"

युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं वरन अपने आप में बहुत सी समस्याओं का जनक होता है।युद्ध की विभीषिका को बड़े सरल शब्दों में व्याख्यायित किया है कवयित्री ने अपनी एक कविता के माध्यम से।' टोहता है गिद्ध 'शीर्षक कविता में वे कहती हैं-
   "युद्ध एक आकांक्षा है
     कपट राजनीतिज्ञों के लिए
     युद्ध एक उन्माद है
     शक्ति सम्पन्नता के लिए।'

षटरस व्यंजनों से भरपूर भोजन की थाली की तरह है सुश्री शरद सिंह जी  का यह काव्य संकलन जिसमेें कुछ भी छोड़े जाने की गुंजाइश नहीं है।इस संकलन की हर कविता महत्वपूर्ण और पठनीय है। सुश्री शरद सिंह एक पूर्णकालिक रचनाकार हैं । साहित्य-जगत को उनसे अपेक्षाएं हरदम बनी रहेंगी ।वे इसी प्रकार नये-नये काव्य संकलन पाठकों को देती रहें।उन पर सिर्फ अपने सपनों को मूर्तरूप करने की जबाबदारी नहीं है वरन‌ अपनी कवि अग्रजा डॉ वर्षा सिंह के अधूरे सपने भी पूरे करना है।अशेष शुभकामनाएं।
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आचरण, 23.06.2023
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