प्रस्तुत है आज 20.06.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि डॉ.श्याम मनोहर सीरोठिया के काव्य संग्रह "मन के वातायन" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
मन के वातायन से मुखर होते मधुर गीत
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - मन के वातायन
कवि - डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक - नवदीप प्रकाशन, 821-बी, गुरु रामदासनगर एक्सटेंशन, गुरुद्वारा रोड, लक्ष्मी नगर, दिल्ली-110092
मूल्य - 400/-
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शब्दों में वह शक्ति होती है कि यदि मुखर हों तो पल भर में सारी मनोदशा व्यक्त कर सकते हैं। यही शब्द जब किसी विशेष काव्य शिल्प में निबद्ध हो जाते हैं तो वे अर्थ के साथ-साथ भावार्थ भी रचने लगते हैं। गीत काव्य साहित्य की अनन्य विधा है। यूं तो काव्य की हर विधा में प्रत्येक शब्द ईटों के समान परस्पर जुड़ कर एक सुंदर भावनात्मक इमारत की रचना करते हैं किन्तु गीत विधा में शब्दों के स्वरूप और जुड़ाव का विशेष महत्व होता है। इसे समझने के लिए यह स्मरण रखना आवश्यक है कि गीत की पहली शर्त है गेयता। यह गेयता तभी सध सकती हेै जब शब्दों का सही चयन हो और संप्रेषण की उत्तम क्षमता गीतकार में हो।
‘‘मन के वातायन’’ गीतकार डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया का नवीनतम गीत संग्रह है। डाॅ. सीरोठिया जिस प्रकार गीत विधा से तादात्म्य स्थापित कर चुके हैं, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने गीत विधा को साध लिया है। उनके अब तक कई गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पेशे से चिकित्सक रहे डाॅ. सीरोठिया जब चिकित्सकीय कार्य में संलग्न थे, उन दिनों भी वे गीत के कोमल पदों की सुंदर रचना किया करते थे। अब सेवानिवृत्ति के उपरांत और अधिक सक्रियता से गीत सृजन में आकंठ आप्लवित रहते हैं। ‘‘मन के वातायन’’ से गीतों का मुखर होना अपने-आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान शुष्क होते समय में संवेदनाएं मर रही हैं और भावनाएं सूखती जा रही हैं। जीवन आंकड़ों और डिजिटल बाइनरी में उलझ कर रह गया है। ऐसे कठोर समय में कोमलता से कोमलता का आह्वान करना मन के वातायनों को खोलने के सामन ही है। वातायन अर्थात् झरोखा, छोटी खिड़की या गवाक्ष। किन्तु जब बात गीत की हो तो वातायन का अर्थ इस शाब्दिकता से कहीं आगे घनीभूत रूप में प्रकट होता है। डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया अपने गीतों में अपने मन के गलियारों से गुज़रते हुए दूसरे के मन के कोने-कोने तक दस्तक देते हैं। वे अपने शब्दों से गीत का एक ऐसा स्वप्न बुनते हैं जो बहुत मधुर और रेशमी है। उनके इस संग्रह का पहला गीत ही मेरी इस बात को प्रमाणित करने में सक्षम है। इस प्रथम गीत ‘‘प्रणय कथाओं की पीड़ाएं’’ की कुछ पंक्तियां देखिए-
गाता रहा उमर भर यह मन,
मूक हृदय के संवेदन को,
प्रणय कथाओं की पीड़ाएँ ।
शब्द नहीं देते भाषाएँ ।।
मन के द्वारे तक आकर फिर,
मैंने सांसों के वृंदावन,
लौट गए मादकता के क्षण ।
का गाया मुरझाया मधुवन ।
अंतर की केसर-क्यारी पर,
संयम की पाषाण शिलाएं।।
पलकों के भीतर सावन में,
इन्द्रधनुष सुधियों के सपने।
रहे भीड़ में हम रिश्तों की,
मिले नहीं मन को पर अपने।
नेह सुधा के लिए तरसती,
रही प्रीति की अभिलाषाएं।।
आत्मकथ्य में डाॅ. सीरोठिया अपने इस संग्रह के गीतों के बारे में लिखते हैं कि -‘‘प्रेम का विश्वास, प्रेम का धैर्य एवं प्रेम का बल असीम होता है, मुझे मेरे गीतों से विश्वास, धैर्य एवं बल मिलता रहा है, क्योंकि मेरे गीतों को सदा प्रेम ने संवारा है। मुझे गीत लिखने के लिए किसी शब्द की तलाश में भटकना नहीं पड़ा, जैसे भाव मन में उठते गए वैसे शब्द मेरी कलम पर आते गए और शिल्प तो जैसे शब्द के आगे-आगे चलता रहा। मेरे प्रेम गीत मेरी दुर्बलताओं पर विजय के जैसे हस्ताक्षर मूल्यवान हैं। ‘मन के वातायन’ के गीतों में मेरी संवेदनाएं गुनगुनाती हैं, मेरी प्यास को तृप्ति का पनघट मिलता है, मेरी मूक कामनाएं मुखर होतीं हैं।’’
निःसंदेह काव्य का सौंदर्य तभी अपने सुसज्जित रूप में सामने आता है जब सृजन सप्रयास नहीं, वरन स्वाभाविक, स्वप्रवाहित, स्वस्फूर्त हो। संग्रह ‘‘मन के वातायन’’ की भूमिका में डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के हिन्दी विभाग के अस्टिस्टेंट प्रोफेसर डाॅ. आशुतोष मिश्र ने लिखा है कि -‘‘ जब प्रेम काव्य कला के शिल्प में अभिव्यक्त हो तब विद्रोह का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है। डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया जी के प्रेम गीतों की तासीर में उक्त स्थापना के रचनात्मक दस्तावेज होने की पूरी संभावना है।’’
इसी प्रकार पं. एस. एन. शुक्ला विश्वविद्यालय, शहडोल की हिन्दी विभागाध्यक्ष डाॅ. नीलमणि दुबे लिखती हैं कि -‘‘प्रेम में हार कोटिशः जीत से श्रेयस्कर है। श्री श्याम मनोहर सीरोठिया जी की कृति ‘मन के वातायन’ इसी महत्तर प्रेम का महत्तर आख्यान और सुष्ठु गीतों की महत्वपूर्ण कड़ी है।’’
कुल 55 गीतों के इस संग्रह में मूल स्वर प्रेम का है। इस संग्रह के गीतों की एक और विशेषता है, वह है इसकी भाषाई निष्ठता। डाॅ. सीरोठिया ने अनेक ऐसे शब्दों को अपने गीतों में पिरोया है जो आज सपाटबयानी के चलते शनैः शनैः हाशिए के हवाले हो चले हैं। बहुत कम कवि आज संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दों का प्रयोग करते हैं। जबकि गीत विधा में ऐसे ही शब्द चमत्कार उपन्न कर के गीत का सौंदर्य द्विगुणित कर देते हैं। इसी संग्रह में एक गीत है ‘‘तुम जीवन आशा दिगंत हो’’। इस गीत में ‘‘पादप’’, ‘‘सरसवंत’’,‘‘ललित चंद्र’’ जैसे शब्दों का जिस सुंदरता से प्रयोग किया गया है, वह रेखांकित करने योग्य है। इस गीत की कुछ पंक्तियां देखिए-
मैं पादप सूखा हतभागी,
पारिजात तुम सरसवंत हो ।
मैं धरणी का अति सूक्ष्म कण,
तुम व्यापक नभ हो, अनंत हो ।
ललित चंद्र तुम जिसे देखने,
रात-रात भर मैं जागा हूं।
तुम पावस का मेह, पवन-सा-
तुमको छूने मैं भागा हूं।
मेरे साथ सदा कुण्ठाएं,
तुम जीवन आशा दिगंत हो।
बरसाने की व्यथा कथा में,
वृंदावन का महारास तुम।
मैं मीरा का छंद वियोगी,
रसिक बिहारी का विलास तुम।
शकुंतला का व्यथित हृदय मैं,
तुम पुरुवंशी उर-वसंत हो।
संग्रह के कुछ गीतों में भाव और शब्दों के संतुलित प्रयोग और लयबद्ध रसात्मकता इतनी सुंदरता से आई है कि अनायास ‘कामायनी’ के श्रद्धा सर्ग की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं-‘‘नील परिधान बीच सुकुमार/ खुल रहा मृदुल अधखुला अंग/ खिला हो ज्यों बिजली का फूल/ मेघ बन बीच गुलाबी रंग।’’ इसी तरह का एक मनोरम गीत है संग्रह में-‘‘मौन मन की बात’’। इस गीत में मानो जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की संयुक्त गीतात्मकता कवि के मन के वातायन से झांक कर संवाद रचती है-
हो सके तो तुम कभी इस
मौन मन की बात समझो
चांद को जिसने लुभाया
चांदनी की रात समझो।
जो नयन में बस रहा है
एक सपने की तरह है
जानता भी है नहीं वह
कौन अपने की तरह है
प्यास लिखती है अधर पर
नेह की बरसात समझो।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संग्रह के अधिकांश गीतों का रंग प्रेममय है किन्तु एक संवेदनशील गीतकार प्रेम से इतर भी दृष्टि डालना जानता है। यदि वतावरण सौम्य हो, जीवन की दशाएं सहज हों तभी प्रेम भी पुष्पित-पल्लवित हो पाता है, अन्यथा ‘‘प्रेम बेलि’’ को सूखने में समय नहीं लगता है। जीवन में व्याप्त अव्यवस्थाएं कवि के मन को छीलती हैं और वह व्याकुल हो कर जो प्रश्न करता है, ‘‘कदम-कदम पर अंधियारे’’ शीर्षक गीत में उसे देखा जा सकता है -
वातावरण बहुत शंकित है,
पता नहीं कब क्या हो जाए।
भटक गया है समय सारथी,
मंजिल हमें कौन पहुंचाए।
मंदिर की चौखट से लौटी,
मूक हृदय की सजल प्रार्थना।
कभी नहीं फल सकी हमारे-
सपनों की साकार साधना ।
रहा मंगलाचरण अधूरा,
अनुष्ठान कैसे सध पाए।
डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया एक सिद्धहस्त गीतकार हैं, यह तथ्य एक बार फिर उनके इस गीत संग्रह ‘‘मन के वातायन’’ से साबित हो जाती है। संग्रह के सभी गीत मधुर, अलंकारिक, रसमय, प्रवाहपूर्ण एवं भाषिक सौंदर्य से परिपूर्ण हैं। बस, एक बात खटकती है कि संग्रह हार्डबाउंड में होने के कारण अधिक मूल्य का है। कुल 140 पृष्ठों के गीत संग्रह का मूल्य 400 रुपए गीत प्रेमियों की जेब पर भारी पड़ सकता है। यदि कवि इस संग्रह का पेपर बैक संस्करण भी प्रकाशित कराएं तो यह अधिक हाथों तक पहुंच सकेगा, क्योंकि इस संग्रह के गीत हर पाठक की रुचि के गीत हैं।
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