Thursday, June 15, 2023

बतकाव बिन्ना की | परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया                          - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
  ‘‘भैयाजी, देखो तनक, कैसो पसीना चुचुवा रओ।’’ मैंने अपनों पसीना पोंछत संगे कई।
‘‘हऔ, जे जो सड़ई सी गरमी पड़ रई, जे न रोन न होन दे! संकारुं से जी घबड़ान लगत आए। हमने तो तुमाई भौजी से कई के, धना! तुम तो एक टेम खना पकाओ करे। ई गरमी में गरम कोन खों चाउने? औ तुमें दोई टेम चूला में तपने न परहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सच्ची, आपने भौतई अच्छी सोची! सबरे भैया हरें ऐसई सोचन लगें सो कोनऊं सल्ल ने रैहे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सल्ल की ने कओ बिन्ना! आजकाल जे जो कांड हो रए आएं, के कोनऊं अपने संगवारी खों काट रओ, मार रओ, उबाल रओ... सच्ची मुंडा भिन्ना जात आए जे सब पढ़-पढ़ के। जो का हो रओ अपने इते? अरे हमने सोई प्रेम करो तुमाई भौजी से, उने भगा के लाए, उनके संगे सात फेरे डारे औ आज लौं उनें आंखन के पलकां पे बिठाए राखत आएं। बेई कभऊं हमें हड़का देत आएं, बा में बी हमाई गलती रैत आए, बाकी हम दोई कित्ते अच्छे से रै रए।’’ भैयाजी कैन लगे।
‘‘सही कै रए भैयाजी, आप ओरन खों संगे देख के जी जुड़ा जात आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘मनो बिन्ना! एक बात हमें समझ में नईं आत के हमें आजाद भए कुल्ल टेम हो गओ कहानो, जो सांची कई जाए सो अपनी जे आजादी बुढ़ा गई कहानी, फेर बी अपन ओरें बेई जांत-पांत, धरम-वरम के गटा बिंधाएं फिर रए। पैले का रओ, के काम देख के जात धरी जात रई। मने जो जोन टाईप को काम करत्तो, ऊकी बोई जात कही जात्ती। मनो अब सबके, सबरे काम बदल गए, फेर बी दसा बोई की बोई धरी।’’ भैयाजी की आवाज में पीड़ा झलक रई हती।
‘‘हऔ भैयाजी! जे जो जांत-धरम को बैर होत आए, उसे कोनऊं को भलो नईं होत। औ जे सब ई लाने होत आए के धरम को असल मतलब तो कोनऊं समझोई नईं चात आए। औ आप आजादी पाए की बात कर रए, मोय सो लगत आए के अपन ओरें कबीर औ रैदास के जमाने से ऊंसई चल रए। हंा, बाकी तनक-मनक बदले आएं, मने पूरो नईं! अब आपई देख लेओ के कबीरदास जी ने ऊ समै का कओ रओ-
सन्तों देखहु जग बैराना।
हिन्दू कहे मौहि राम पियारा, तुरक  कहै रहिमाणा।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न काहू जाणा।।’’
- सो मैंने भैयाजी खों कबीरदास जी की वाणी सुना दई।
‘‘हऔ बिन्ना! दोई जने रार करत फिरत आएं। बाकी अपने इते सबई जांगा गड़बड़ चलत रैत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कैसी गड़बड़? कां की कै रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘उते देखो तनक अपने भोपाल के सतपुड़ा भवन में आग लग गई। औ लगी सो ऐसी लगी के सेना को बुलाने परो बा आग बुझाबे के लाने। मने कओ जाए, के ऊ भवन में आग से बचाबे के लाने कोन ऊं ठीक-ठिकाने को इंतजाम नई रओ। औ दूजे, जे के जब उते राजधानी में जे हाल आए सो अपन ओंरें के इते का हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप ने डरो, इते कछू ने हुइए! जां बड़ी-बड़ी फाइलें रैत आएं उते बड़ो वारो खतरो रैत आए। इते पड़ा की पूंछ में को आग लगा रओ?’’ मैंने कई।
‘‘तो का उते आग लगाई गई?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अब मोय का पतो, मैंने सो एक कहनात कई। बाकी जोन दसा शहर औ गांवन की आए, बोई दसा बड़े शहर औ छोटे शहर की आए। कोऊ की पीरा कोऊ समझो नईं चात। बा बुंदेली में ग़ज़ल आए न के -
चींनत जानत नईयां सगे परोसी खों
गंावन की वे जातें, पातें का जानें
गांवन में हम जी रए कौन मुसीबत में
लंबरदारन की वे लातें का जानें
- मैंने भैयाजी से कई।
‘‘बड़ी नोनी गजल आए! कोन की आए? तुमाई?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे नोंई मोरी नोंईं जे तो अपने बीना वारे महेश कटारे सुगम भैया की गजल के शेर आएं।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।    
‘‘अरे हऔ, हमने सोई दो-चार बेरा सुगम जी की शायरी पढ़ी। बे बुंदेली में अच्छी शायरी करते आएं औ संगे खूबई कटाई करत आएं।’’ भैयाजी महेश कटारे सुगम भैया की तारीफ करते बोले।
‘‘अब बातई ऐसी रैत आए के कटाई सो करो जेहे। चलो जेई बात पे उनकी एक ठईंयां गजल औ सुन लेओ -

बजा बजा सब गाल चले गए।
सुन सुन गोरे लाल चले गए।
करवे मालामाल आयते
होकें मालामाल चले गए।
विक्रम ठाढ़े सोचत रै गए
पूंछ पूंछ वेताल चले गए।
मलम लगावे की कै रयते
और खेंच कें खाल चले गए।
कंगाली जाँ की तां ठाढ़ी
मनौ कैउ कंगाल चले गए।
मिलवे खों तौ कछू नईं मिलौ
दै कें कैउ फदाल चले गए।
आँखें पितरा गईं आसा में
ऐसेइ मुतके साल चले गए।’’ - मैंने भैयाजी खों सुगम जी की एक ठो गजल औ सुना दई।

‘‘वाह! खूब कई के - मलम लगावे की कै रयते/और खेंच कें खाल चले गए। भौतई सही। ’’ भैयाजी शेर दोहरात भए बोले।
‘‘भैयाजी, मनो शेर-शायरी सोई हो गई, अब मोए बढ़न देओ ने तों धूप औ चढ़ जेहे। फेर मूंड़ तपहे, गोड़ तपहे!’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, ठीक कै रईं। मनो, कछू काम तो नई रओ हमसे या भौजी से? ने तो बतकाव में भूल जाओ औ घरे पौंच के याद आए।’’ भैयाजी ने मोंसे पूछी।
‘‘अरे नोईं, मोय कोनऊं काम नई रओ! बा तो ऊंसई बैठी हती, सो लगो के तनक बाहरे निकरो जाए। पंखा में बैठे रओ सो बोई गरम लगन लगत आए, सो मैंने सोची के तनक बाहरे फिर लओ जाए, सो लौट के पंखा की हवा ठंडी लगन लगहे।’’ मैंने मुस्कात भए कई।
‘‘जै हो तुमाई बिन्ना! रामधई, ई दुनिया में तुमाओ जैसो नमूना दूसरो ने मिलहे!’’ कैत भए भैया हंसन लगे।
‘‘चलो, जेई बात पे आप अब मोरो एक बुंदेली शेर सुन लेओ-
परजा घूमे घाम में, चटके खूब खपरिया।
करबे चौड़ी रोड खों, काट दई बा बरिया।।’’
जै राम जी की!’’ मैंने कई औ उते से घाम में मूंड़ चटकात भई अपने घरे खों चल परी।
मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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