प्रस्तुत है आज 06.06.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ रामरतन पाण्डेय के काव्य संग्रह "एकाकी पथिक" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
छायावाद का आस्वाद कराते काव्यबंद
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - एकाकी पथिक
कवि - डाॅ. रामरतन पाण्डेय
प्रकाशक - (स्वयं कवि) डॉ. रामरतन पाण्डेय, 398 वेयर हाउस के आगे,गोपालगंज, सागर, मोबाईल: 8305306882
मूल्य - 100/-
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एकाकी पथिक की भांति,
मैं जाता था अपने पथ पर।
मधुर, मृदुल, पताका बनकर,
छाये तुम जीवन रथ पर ।।
- ये पंक्तियां हैं कवि डाॅ. रामरतन पाण्डेय की। इन पंक्तियों में छायावाद के जो स्वर फूट रहे हैं, वे मन की कोमल भावनाओं को उद्दीप्त करने में सक्षम हैं। यही तो विशेषता रही छायावादी कविताओं की।
छायावाद का नाम आते ही प्रकृति और प्रेम की कोमल भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं का स्मरण हो जाता है। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा जैसे रचनाकारों की कविताएं मानस में गूंजने लगती हैं। प्रकृति में मानव का चित्रण और अपनी भावनाओं बहाने जीवन के दार्शनिक पक्ष का उद्घाटन छायावादी युग के काव्य की प्रमुख विशेषता रही है। उस दौर में हिन्दी का भाषाई परिष्कार भी हुआ। यहां तक कहा जाने लगा था कि यदि अपनी हिन्दी भाषा सुधारनी है तो ‘प्रसाद साहित्य’ पढ़ना चाहिए। उन दिनों संस्कृतनिष्ठ शब्दों का बाहुल्य खड़ी बोली हिन्दी को समृद्ध कर रहा था। वैसे ‘छायावाद’ नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है। मुकुटधर पाण्डेय ने ‘‘श्रीशारदा’’ पत्रिका (जबलपुर) में एक निबंध प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने ‘‘छायावाद’’ शब्द का प्रथम बार प्रयोग किया। उन्होंने छायावादी काव्य की प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पना की प्रधानता आदि प्रमुख विशेषताएं विशेषताओं को रेखांकित किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि छायावाद ने हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित किया। इससे हिन्दी कािव्य ब्रज के प्रभाव से भी मुक्त हुआ। इसने हिंदी को नए शब्द, प्रतीक तथा प्रतिबिंब दिए। इसीलिए छायावाद को ‘‘साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग’’ कहा गया।
देश पर सम्यवादी विचारों की पकड़ मजबूत होने का असर काव्य पर भी पड़ा और खुरदुरे यथार्थ की अतुकांत कविताओं ने अपनी जगह बनानी आरम्भ कर दीं। आज भी छायावादी भाव की कविताओं से अधिक अन्य शिल्प की कविताएं लिखी जा रही हैं जिनमें गीत, गीतिका, नवगीत, ग़ज़ल, सजल, दोहे, कुंडलिया, तथा बड़े पैमाने पर अतुकांत कविताएं लिखी जा रही हैं। आज काव्य विधा ने अपना शिल्पगत विस्तार कर लिया है तथा छोटे पैमाने पर हायकू, हायगा, साॅनेट जैसे विदेशी शिल्प को भी आत्मसात किया है। इन सबके बीच यथार्थ की कठोरता ने छायावादी कोमलता को कहीं पीछे धकेल दिया है। अतः उस समय सुखद अनुभूति होती है जब कोई छायावादी आस्वाद का काव्य संग्रह पठनीयता से गुज़रता है। संस्कृत में डीलिट् डाॅ. रामरतन पाण्डेय कर्म से कवि नहीं हैं किन्तु मन-मस्तिष्क से कवि हैं। उन्होंने प्रायः स्वांतःसुखाय काव्यसृजन किया है। किन्तु उनकी छः पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं जिनमें से एक है काव्य संग्रह ‘‘एकाकी पथिक’’। यह छायावादी स्वर का संग्रह है। इसे पढ़ते हुए यही भान होता है मानो कोई छायावादी युगीन काव्यसंग्रह पढ़ रहे हों।
अपनी सृजनशीलता के बारे में डाॅ. रामरतन पाण्डेय ने भूमिका में लिखा है कि -‘‘लगभग चालीस, बयालीस वर्ष पूर्व जब मैं एम.ए. पीएच.डी. का छात्र था, मि. इन्द्रमोहन सिंह जी हमारे परम मित्र थे। वर्तमान में इन्द्रमोहन जी पंजाबी वि.वि. पटियाला संस्कृत विभाग के सेवानिवृत् प्रोफेसर तथा अध्यक्ष और वाल्मीकि पीठ के निदेशक पद पर कार्यरत हैं। मैं हमेशा इनसे कुछ न कुछ सीखता रहता था। एक दिन इनके छात्रावास कक्ष में एक पत्रिका हाथ लगी जो इनके कालेज समय की वार्षिक पत्रिका थी। इसमें इनकी एक कविता छपी थी, नीचे इनके प्राचार्य की टिप्पणी थी कि ‘‘लगता है जयशंकर प्रसाद का अवतरण फिर से हो चुका है।’ मैंने सरदार जी से प्रश्न किया कि तुम इतनी सुन्दर-सुन्दर कवितायें कैसे लिख लेते हो मुझे भी इसका रास्ता बताओ। सरदार जी बोले देख पंडित तू एक लापरवाह प्रवृत्ति का विद्यार्थी है कविता-अविता तेरे बस का रोग नहीं, मेरे रहते पी.एच.डी. पूरी कर और यहां से भाग ले। लेकिन मेरे बार-बार पूछने पर सरदार जी ने एक दिन कहा कि कविता लिखने के लिये मन में दर्द हो, वियोग हो, पीड़ा हो और शब्द भण्डार हो, आदि कवि वाल्मीकि के मन में क्रौंच पक्षी का दर्द ही तो आया, जरूरी नहीं कि दर्द आपका व्यक्तिगत हो । कविता आप किसी अन्य की पीड़ा को भी आत्मसात् कर लिख सकते हो अथवा कोई कल्पना से भी अच्छी कविता कर सकते हो। कल्पना शब्द मुझे गुरु मंत्र की तरह लगा।’’
डाॅ. रामरतन पाण्डेय आगे लिखते हैं कि-‘‘मैं रोज दो एक आधे-अधूरे छन्द लिखता, सरदार जी को दिखाता, वे उसमें कांट-छांट करते कुछ सुझाव देते इत्यादि। इस प्रकार मैंने उनके निर्देशन में लगभग सौ पद लिख डाले।’’ कालांतर में डाॅ. पाण्डेय ने कुछ नए पद भी लिखे और फिर नए और पुराने पदों को मिला कर इस काव्य संग्रह ‘‘एकाकी पथिक’’ को आकार दिया। इस संग्रह के काव्यबंदों में प्रेम का आग्रहपूर्ण कोमल स्वरूप सुंदरता से मुखर हुआ है। अपने प्रिय के लिए व्यक्त की गई ये पंक्तियां प्रसादकालीन काव्य को पुनर्जाग्रत कर देती हैं-
साथी हो समझ तुम्हें मैं,
अपने मन में हरषाया।
जैसे उजड़े उपवन में,
एक मृदुल फूल मुस्काया।।
प्रकृति और मानव का तादात्म्य सर्वांगीण छायावादी काव्य में देखा जा सकता है। यही विशेषता डाॅ. पाण्डेय की कविताओं में प्रस्फुटित हुई है। उषा की आभा और प्रातःकालीन किरणपुंज में स्त्री के सौंदर्य के प्रतिबिम्ब को व्यक्त करती ये पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं -
नारी का लेकर स्वरूप,
अब किरण पुंज बिखरा है।
उषा की आभा से मंडित,
कोई रूप यहां निखरा है ।।
देह को सरिता मान कर उसकी लहरों के प्रति मन के आकर्षण को जताना, मानो शालीनता से अपनी प्रेम भावनाओं को व्यक्त करना ही तो है। वहीं, जब वास्तविक देह के स्पर्श की संभावना न हो तो काल्पना में स्पर्श और अवगाहन का मार्ग चुनना सिगमंड फ्रायड के आत्मरति सिंद्धांत के करीब जा पहुंचता है। सिगमंड फ्रायड के अनुसार, हमारे व्यक्तित्व का विकास पूरी तरह से हमारे सचेत अनुभवों पर निर्भर नहीं है, हालांकि, अधिकांश व्यक्तित्व लक्षण अचेतन के माध्यम से विकसित होते हैं। इदमः इदम हमारे मानस का आवेगी (और अचेतन) हिस्सा है जो बुनियादी आग्रहों, जरूरतों और इच्छाओं के लिए सीधे और तुरंत प्रतिक्रिया करता है।
तेरी देह सरिता में,
मेरा मन लहरें खाया।
काल्पनिक देह बनाकर,
अवगाहन सुख था पाया ।।
किन्तु डाॅ. पाण्डेय के छायावादी स्वर में फ्रायड की भांति ठहराव नहीं अपितु परिस्थितिजन्य प्रभाव और प्रवाह है। उनकी काव्य में वर्णित मनोदशा घटना के प्रभाव की द्योतक है-
मन को कुछ साहस देकर,
मैंने आवाज लगायी ।
रुककर तो तुमने देखा, पर
यह बात तुम्हें न भाय।।
डा. रामरतन पाण्डेय अपनी कविताओं में उस प्रेम का वर्णन करते हैं जो किसी पवित्र प्रकाश की भांति दीप्तिवान है, प्रकाशित है और आशा का संचार करने में सक्षम है। इसीलिए आकांक्षा की ध्वनि शब्दों में कुछ इस प्रकार ढलती है -
हे रश्मि दोगी प्रकाश,
कब जीवन की राहों में।
सारी पीड़ा विस्मृत होगी,
पाकर तुमको बाहों में ।।
इसी तारतम्य में एक और बंद देखें-
जिस दिशि को देखा करता,
तू वही दिशा बन जाती।
हल्का सा देकर प्रकाश,
सन्ध्या लाली बन जाती ।।
वस्तुतः काव्य सर्वकालिक होता है। यदि हृदय में प्रेम का संवेग है तो कलिदास का ‘मेघदूतम’ समसामयिक प्रतीत होगा और यदि पीड़ा का अथाह सागर हृदय को आलोड़ित कर रहा है तो महादेवी वर्मा की व्यथित पंक्तियां अपनी-सी लगेंगी। डाॅ रामरतन पाण्डेय की कविताएं भी छायावादी युगीन आस्वाद लिए होने के कारण हर युग और प्रत्येक कोमल मनोदशा के अनुकूल हैं। डाॅ. पाण्डेय का काव्य संग्रह ‘‘एकाकी पथिक’’ को कोमल भावनाओं की मधुर प्रस्तुति कहा जा सकता है। छायावादी काव्य में रुचि रखने वालों के लिए यह मनोनुकूल कृति है।
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