Tuesday, June 13, 2023

पुस्तक समीक्षा | प्रेम के संवाद रचती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 13.06.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त के काव्य संग्रह "अन्जानी राहें" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
प्रेम के संवाद रचती कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - अन्जानी राहें
कवि       - लक्ष्मीचन्द्र गुप्त
प्रकाशक    - मंगलम् प्रकाशन सर्किट हाउस मार्ग, छतरपुर (म.प्र.)
मूल्य       - 250/-
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‘‘वक्त की लय को देख न पाई। नियति के क्रम को समझ न पाई। इस पल कुछ, उस पल कुछ जान न पाई। जब आप चल दिए तब सुध आई। आपकी कोई बात नहीं, कोई सौगात नहीं। आपसे अधिक मीठा कुछ लगता नहीं। ममता, प्रेम के कोष को क्या दे सकती हूं? प्रेम, विश्वास, भावना के श्रद्धासुमन अर्पित करती हूं। पूज्य तुम्हें माना है मैंने, नित अर्चना करती हूं। उठ प्रभात नित नव किसलय संग, आपको वंदन करती हूं। प्यार की डोरी विंध जाती, जब भी अभिनंदन. करती हूं। बीते लम्हे संग उन यादों के, हे मेरे प्रिय तुम्हें वंदन करती हूं।’’ - ये काव्यात्मक शब्द हैं श्रीमती तारा गुप्ता के जिन्होंने अपने बिछड़े हुए जीवनसाथी की कविताओं को संग्रह के रूप में प्रकाशित कराते हुए स्मरण के तौर पर व्यक्त किए हैं।
साहित्यकार, चाहे वह गद्यकार हो या पद्यकार, कई बार ऐसा होता है कि उसके जीवनकाल में उसकी रचनाएं एक सीमित दायरे में सिमट कर रह जाती हैं। कभी वह संकोचवश, कभी आर्थिक कारणों से अथवा कभी आवश्यकता का अनुमान न लगा पाने के कारण अपनी रचनाओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराने से वंचित रह जाता है। साथ ही वंचित रह जाता है उन रचनाओं से पाठकों का एक बड़ा वर्ग। कई रचनाकारों की रचनाएं उनके दिवंगत होने के उपरांत उनके परिजन, उनके हितैषी, उनके इष्टमित्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराते हैं और कई रचनाकार और उनकी रचनाएं विस्मृति की गर्त में समा जाती हैं। जहां तक इष्टमित्रों द्वारा अपने दिवंगत मित्र की रचनाओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराने का संदर्भ है तो मैं यहां एक प्रसंग का उल्लेख कर रही हूं। सागर नगर के चर्चित शायर यार मोहम्मद ‘यार’ का 2016 में निधन हो गया। उनकी अनेक उम्दा शायरी बिखरी पड़ी थी जिन्हें संग्रह के रूप में समेटे जाने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में उनके मित्र जो कि साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ‘श्यामलम’ के अध्यक्ष भी हैं, उमाकांत मिश्र ने ‘‘यारां’’ के नाम से उनकी शायरी का संग्रह प्रकाशित कराया। उस पर प्रशंसनीय यह कि उसका कोई मूल्य न रखते हुए उसे पाठकों को निःशुल्क उपलब्ध कराया गया। जबकि उमाकांत मिश्र स्वयं कोई पूंजीपति नहीं हैं, मध्यवर्गीय व्यक्ति हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि श्रेष्ठ भावनाएं हर बाधा के बीच से रास्ता निकाल ही लेती हैं। इसी क्रम में यह प्रसन्नता का विषय है कि कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त की अर्द्धांगिनी तारा गुप्ता ने उनकी कविताओं को ‘‘अन्जानी राहें’’ के रूप में प्रकाशित करा कर भावनात्मक एवं साहित्यक दोनों दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कार्य किया है।      
पुस्तक की भूमिका गीतकार डॉ. विष्णु सक्सेना ने लिखी है। उन्होंने लिखा है कि -‘‘गुप्त जी की अधिकांश कविताएं प्रकृति, समाज और व्यक्तिगत सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। सामाजिक विद्रूपताओं पर बड़े प्यार से चोट की है उन्होंने। अपनों के बीच रहकर व्यक्ति कैसे घुट-घुट कर जीता है इस प्रकार की संवेदनाओं से परिपूर्ण कवितायें पठनीय हैं।’’
संग्रह ‘‘अन्जानी राहें’’ की कविताएं पढ़ने के बाद यह टीस मन में उठती है कि इस कवि को तो अभी और सृजन करना चाहिए था, इसने इतनी जल्दी सबसे विदा क्यों ले ली? लेकिन जीवन और मृत्यु किसी के वश में नहीं। किन्तु यह भी सच है कि एक रचनाकार कभी मरता नहीं है, वह अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं को अपनी रचनाओं में इस तरह पिरो जाता है कि उसकी उपस्थिति सदा बनी रहती है और वह सदा सबसे संवाद करता रहता है। कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त की कविताएं पाठकों से एक मधुर संवाद करती हैं। इन कविताओं में प्रेम के विविध पक्ष हैं। संयोग, वियोग, अनुनय, उलाहना आदि सभी कुछ। प्रेम की राहें हमेशा अन्जानी ही होती हैं। प्रेम किस सोपान को प्राप्त करेगा, इसका अनुमान पहले से नहीं लगाया जा सकता है। लक्ष्मीचंद्र गुप्त की कविताओं में छायावाद और रहस्यवाद दोनों की झलक मिलती है। क्योंकि वे प्रेम की ऐसी काव्यात्मक प्रस्तुति सामने रखते हैं जिसमें खुला निवेदन भी है और गोपन भी है। उदाहरणस्वरूप उनकी कविता ‘‘हर लहर मैंनें किनारों से मिलती देखी’’ की कुछ पंक्तियां देखिए-
हर लहर मैंने किनारों से मिलती देखी।
हर शाम सुबहो में बदलती देखी।।
कब तक रहोगी मौन, बता दो तेरी कविते
हर बात प्यार की तेरे अधरों पर मचलती देखी।।
जीता तो हूं, मगर जी नहीं पाता।
पीता भी हूं, तो पी नहीं पाता ।।
क्या करूं, मजबूर हूं, निगाहों के पहरे यहां
मिलता हूं पर तुम से मिल नहीं पाता ।।

लक्ष्मीचन्द्र गुप्त ने कुछ चुटीली कविताएं भी लिखी हैं जो इस संग्रह में मौजूद हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘बाकी वे सब हैं बोर’’। यह अत्यंत रोचक कविता है। इस कविता से कवि की सृजनात्मक तीक्ष्णता का भी पता चलता है। यह कविता इस प्रकार है-
जरूरी नहीं प्यारे
केवल जरूरी है
जैसे
लिखना जरूरी है।
ताकि
पटक सकूं मुट्ठियां
मचा सकूं शोर
कि हमें छोड़कर
बाकी वे सब हैं बोर।

कविता में व्यंजना का प्रयोग करते हुए विसंगतियों पर गहरी चोट की जा सकती है। इसीलिए व्यंजना को अपनाते हुए कवि ने अपनी कविता ‘‘इस कवि में सामर्थ कहां है’’ में साहित्यजगत में व्याप्त दुरावस्था पर कटाक्ष किया है-
समझ गया उद्देश्य आपका,
बाध्य नही, पर बतला सकता।
मेरी कविता का अर्थ, कविता से पूछो,
इस कविता में अर्थ कहां है?
सीधी-साधी कविता का भी अर्थ बताता हूं।
इस कवि में सामर्थ कहां है।
मैं यों ही नहीं बहला सकता  
मैं तो अनर्थ से अर्थ निकालता,
बड़े-बड़े बाजारों में क्या,
छोटा दर्पण बिक सकता है?
बड़ी-बड़ी सरिता धारा में,
नीर कहीं क्या रूक सकता है?
कहते तो है, धरा गगन भी,
सावन भादों मिल जाते हैं।
साहित्य-गगन में रवि-कवियों संग
तुच्छ कवि क्या टिक सकता है?

वैसे लक्ष्मीचंद्र गुप्त की कविताओं में प्रेम केन्द्रीय भाव है। प्रेमपत्रों के युग में पत्र के साथ कोई फूल या कोई उपहार भेजने का भी चलन था। उसी परिपाटी के तारतम्य में कवि ने ‘‘अनामिका के नाम एक पत्र’’ कविता में लिखा है कि -
पत्र के मैं साथ बोलो और क्या मैं भेज सकता।
भाव का भन्डार केवल कल्पना मैं भेज सकता ।।
पास मेरे कुछ नहीं अनुकूल कह संतोष करता -
संपदा की देवि को-कंकड़ दिखाना तुच्छ लगता ।।
हो भरा ज्यों सिंधु बोलो, बिन्दु का अस्तित्व क्या है।
सूर्य के सम्मुख कहो तुम इंदु का अस्तित्व क्या है।।
मौन तो अनुगामिनी है साधना की कल्पना -
भक्ति के सम्मुख कहो आस्तिक का अस्तित्व क्या है ।।
तुम स्वयं जब मेघ हो तो मेह की अभिलाष क्या है।

कवि लक्ष्मीचंद्र गुप्त ने प्रकृति का मानवीयकरण करते हुए छायावादी परम्परा का भी अवगाहन किया है। वे अपनी कविता ‘‘पनिहारी प्रीतम’’ में प्रकृति के तत्वों में प्रेम और प्रेयसी के सवरूप को देखते हैं-
पनिहारी प्रीतम
पनघट पर।
पनिहारी की गागर से घट से।
कुछ छलका।
कुछ बिजली सी चमकी,
शीतल कुछ झलका, अलिका मन से।

‘‘अन्जानी राहें’’ एक ऐसी धरोहर कृति है जो हिन्दी काव्य जगत को समृद्ध करने में सक्षम है। इसके प्रकाशन के लिए तारा गुप्त एवं प्रवीण गुप्त साधुवाद के पात्र हैं क्योंकि साहित्य का सृजन जितना महत्वपूर्ण होता है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है उसे सहेजना।
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