Tuesday, November 14, 2023

पुस्तक समीक्षा | जीवन के विविध रंगों से गुज़रती कहानियां | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 14.11.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका आराधना खरे के कहानी संग्रह "जीवन एक रंग अनेक" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
जीवन के विविध रंगों से गुज़रती कहानियां    
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - जीवन एक रंग अनेक
लेखिका     - आराधना खरे
प्रकाशक     - बुक्स क्लीनिक, कुदुदंड, पंचमुखी हनुमान मंदिर के समीप, बिलासपुर (छग) -495001
मूल्य        - 200/-
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   ‘‘जीवन एक रंग अनेक’’ यह मुहावरा उस कहानी संग्रह का नाम है जिसकी लेखिका हैं आराधना खरे। निःसंदेह जीवन अनेक रंगों से भरा हुआ है। पूरा का पूरा इन्द्रधनुष जीवन में समाया हुआ है। लाल, पीले, नारंगी, हरे जैसे उत्साहजनक रंगों से ले कर सफेद हल्के नीले, हल्के पीले, गुलाबी शांत रंगों के साथ ही काले, धूसर, गहरे कत्थई रंग तक इसमें मौजूद हैं। मनोदशाओं और जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव को अभिव्यक्ति देने वाले रंग। हम सभी इन रंगों से हो कर गुज़रते हैं और हमारा जीवन अपने अनुभवों के विभिन्न कथानकों को रचता चलता है। कथाकार आराधना खरे ने जीवन के इन्हीं विविधरंगी अनुभवों को छोटी-छोटी कहानियों के रूप में ढाला है। ये कहानियां हमारे जीवन के, हमारे पास-पड़ोस के और हमारे समाज के मानस का वह चित्र प्रस्तुत करती हैं जिनमें वैचारिक वैविध्य के साथ संबंधों की जटिलता भी है।
    कुल 28 कहानियां है ‘‘जीवन एक रंग अनेक’’ कहानी संग्रह में। यूं तो आराधना खरे कवयित्री भी हैं तथा उनका प्रथम कहानी संग्रह ‘‘मंथन’’ प्रकाशित हो चुका है, जिसकी कहानियां मैंने पढ़ी हैं। यह दूसरा कहानी संग्रह  ‘‘मंथन’’ के आगे की कड़ी कहा जा सकता है। वैसे एक बात यहां कहना समीचीन होगी कि आराधना खरे कविताओं के बनिस्बत कथालेखन के अधिक करीब हैं। भले ही उनके कथानक अधिक विस्तार नहीं लेते हैं। आकार में उनकी कहानियां छोटी होती हैं किन्तु उन कहानियों में कथानकों की समग्रता प्रभावी ढंग से समायी रहती है। मुझे लगता है कि आराधना खरे काव्यसृजन की अपेक्षा कथालेखन में अधिक ‘‘कम्फर्टेबल’’ हैं।
    आराधना खरे ने अपनी कहानियों के माध्यम से स्त्री जीवन को उकेरा है। उन्होंने नारी अधिकारों की बात की है। वे नारी की स्वतंत्रता के पक्ष में भी खड़ी दिखाई देती हैं किन्तु उस ‘सेमेन्टिक वूमेनिज़्म’ से हट कर जो नारीवाद को एक कठोर खांचे में आकार लेने के लिए विवश करता है। आराधना खरे स्त्री को समाज के समन्वयवादी आचरण को अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से मध्यमवर्गीय परिवारों के विचारों का गहन चित्रण किया है। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से नारी मन की व्यथा को भी रेखांकित किया है। वे अपनी कहानियों के माध्यम से कोई धारणा आरोपित नहीं करती हैं, अपितु वे घटनाक्रम के साथ उसके प्रभावों एवं दुष्प्रभावों को सामने रख कर स्पष्ट करती हैं कि परिवार, समाज और एक स्त्री के लिए क्या उचित है, क्या उचित नहीं है। चलिए दृष्टिपात करते हैं उनके इस द्वितीय कहानी संग्रह ‘‘जीवन एक रंग अनेक’’ की कुछ चुनिंदा कहानियों पर।
    संग्रह की पहली कहानी है ‘‘भूल’’। यह कहानी उस त्याग की भावना को खंडित करती है जो स्त्री के मानस पर महिमामंडित कर के थोप दी जाती है कि यदि पत्नी संतानोत्पत्ति नहीं कर पा रही है तो उसे अपनी खुशियों का गला घोंट कर अपने पति को विवश कर देना चाहिए कि वह वंश चलाने के लिए दूसरा विवाह कर ले। यहां विवाह-विच्छेद की बात नहीं है, सौत के साथ रहते हुए नौकरानी की भांति जीवन व्यतीत करने की शर्त है। इस कथानक पर कई हिन्दी फिल्में भी बन चुकी हैं जिसमें नायिका को आत्मोत्सर्ग की भावना से परिपूर्ण आदर्श स्त्री तथा सौत को खलनायिका की भांति दिखाया जाता रहा है। जबकि दोनों स्त्रियां सामाजिक सोच के मकड़जाल में फंसी हुई स्त्रियां हैं। न दोनों नायिकाएं हैं और न दोनों खलनायिकाएं। पति रूपी पुरुष अपनी पहली पत्नी से बहुत प्रेम करता है। वह दूसरी स्त्री नहीं लाना चाहता है किन्तु अपनी पहली पत्नी के हठ के समक्ष उसका झुक जाना उसकी उस कमजोरी को जाहिर कर देता है कि वह भी कहीं न कहीं (गोद लिए बिना) स्वयं की संतान पाने के लिए की अदम्य लालसा रखता है और हर आग्रह को स्वीकार करने के लिए तैयार है। दूसरी पत्नी के आने  और उससे संतान की प्राप्ति होने पर अपनी पहली पत्नी के प्रति अवहेलना उसकी इस धारणा पर मुहर भी लगा देती है। साथ रहने को स्वीकार करते हुए पति का दूसरा विवाह करा देना उसकी पहली पत्नी की ही भूल थी जिसका उसे जब तक अहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी रहती है।
     दूसरी कहानी है ‘‘बदलाव’’। यह मनोविश्लेषक कहानी है। कहा जाता है कि विवाह के बाद पति-पत्नी के बीच सामन्जस्य होना आवश्यक है और उतना ही आवश्यक है ससुराल पक्ष के अपने परिजन के प्रति विवाहिता का तालमेल। इस तालमेल का आशय यह नहीं है कि वह अत्याचार अथवा प्रताड़ना सहे, बल्कि आशय है कि अपने नए परिजन की भावनाओं को समझने का प्रयास करे, हमेशा नकारात्मक ही न सोचे। इस कहानी की सबसे अच्छी बात यह है कि लेखिका ने नायिका को संबंधों का यथार्थ समझाने के लिए उसके मायके में उसकी भाभी और मां के पारस्परिक संबंधों पर ध्यान दिलाया है। जिससे उसे अपनी सास के प्रति अपनी सोच को परिणाम तक पहुंचाने में मदद मिलती है। यह कहानी रोचक विस्तार ले सकती थी किन्तु मैंने पहले ही जैसा लेख किया कि आराधना खरे छोटी कहानियों में बड़े कथानकों को समेटती हैं।
     कहानी ‘‘सौंदर्य’’ युवावस्था में दैहिक आकर्षण को व्यक्त करती है। प्रायः लड़कियों को स्कूल या काॅलेज के जीवन में ‘हीरो टाईप’ के लड़के अधिक पसंद आते हैं। ऐसे लड़कों में वे अपने सपनों का राजकुमार देखती हैं और जब सच सामने आता है तो उनके हाथ धोखा और छलावे के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि समय रहते कोई उन्हें इस धोखा खाने से बचा लेता।
      ‘‘खोखलापन’’ कहानी संबंधों के समीकरण बिगड़ने से उत्पन्न होने वाले खोखलेपन को उजागर करती है। इस पुरुषवादी समाज में पुरुष इस बात की सहजता से छूट ले कर उस समय परस्त्रीगमन कर लेता है जब उसकी पत्नी गर्भवती हो या नवजात की देखभाल में व्यस्त हो। जहां पत्नी अपने परिवार का भविष्य संवार रही होती है और वहीं पति परिवार के भविष्य को बिगाड़ रहा होता है। अवैधानिक रिश्ते कभी सुख नहीं देते हैं लेकिन यदि ऐसे किसी अवैधानिक रिश्ते को वैधानिकता का प्रमाणपत्र मिल जाए तो भी क्या ऐसा रिश्ता लम्बे समय तक मधुर रह सकता है? इस प्रश्न को टटोला है लेखिका ने। छूटे हुए रिश्ते पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है और किस कदर खोखलापन घेरता जाता है, यह कहानी इन्हीं परिस्थितियों का विवेचन करती है।
      ‘‘बुआ’’ एक मार्मिक कहानी है। यह वज्राघात की भांति मिले दुख को सहन कर के जीवन जीने का तरीका सुझाती है। कहानी ‘‘नए आयाम’’ भी जीवन जीने का सही तरीका सिखाती है। कई बार ऐसा होता है कि माता-पिता अपने बिगड़ैल बेटे को सुधारने का तरीका यही मानते हैं कि उसका विवाह कर दिया जाए। जैसे उसकी नवविवाहिता पत्नी कोई ऐसी इंस्ट्रक्टर हो जो दो बेंत लगा कर उनके बेटे को सही रास्ते पर ले आएगी, जबकि दो बेंत लगाने का भी अधिकार उसे नहीं दिया गया होता है। यानी वह रिझाए, मनाए, मार खाए और किसी भी तरह उनके बेटे को सही रास्ते पर ले आए। यह विडंबना विवाह संबंध को वितृष्णा बना कर रख देती है। यदि ऐसी किसी परिस्थिति में कोई लड़की फंस जाए तो उसे प्रताड़ना को अपनी नियति नहीं मान लेना चाहिए, वरन साहस का परिचय देना चाहिए। ऐसे मसले में मायके वालों का भी दायित्व बनता है कि वे अपनी बेटी की स्थितियों को समझें और उसका साथ दें। कहानी एक नए मोड़ पर सुखांत होती है। सामाजिक संदर्भ की यह एक उम्दा कहानी है।
    समाज आज भी अपने दकियानूसी विचारों से पूरी तरह निकल नहीं सका है। जैसे कन्या जन्म को ही लें, आज भी कई घरों में उस समय मातम छा जाता है जब संतान के रूप में कन्या जन्म लेती है। कन्याओं के प्रति दुराव रखने के कारण कन्या शिशु की हत्या और फिर जांच की सुविधा हो जाने के बाद कन्याभ्रूण हत्या का चलन दशकों तक रहा है। जिससे समाज में पुरुष और स्त्री के अनुपात में तेजी से अंतर आने लगा था। तब सरकार ने मामले को संज्ञान में ले कर भ्रूण परीक्षण को अपराध घोषित किया। बिना चिकित्सकीय आवश्यकता के भ्रूण परीक्षण नहीं कराया जा सकता है। जो भी चिकित्सक चोरी-छिपे ऐसा करते हैं, पकड़े जाने पर अन्य निर्धारित सजा के साथ ही उनका लाईसेंस रद्द कर दिया जाता है। यहां एक गड़बड़ है कि कई राज्य सरकारें समाज की मानसिकता बदलने के लिए कन्याओं को आर्थिक मदद देने की योजनाएं चला रही हैं ताकि उनके परिवार वाले उन्हें आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद समझें और न केवल उन्हें जन्म लेने दें अपितु उनका लालन-पालन भी करें। लेकिन लालच के वशीभूत बदली हुई मानसिकता हमेशा अच्छे परिणाम नहीं देती है। एक लालच से बड़ा दूसरा लालच पूरा होते दिखते ही वह मानसिकता गिरगिट की भांति अपना रंग बदल सकती है। बहरहाल, आराधना खरे ने अपनी कहानी ‘‘उपेक्षा’’ में ऐसी दो कन्याओं की परिस्थितियों, उनके संघर्ष एवं साहस को कथानक में ढाला है जो जुड़वां हैं। जिस घर में एक लड़की के जन्म लेने पर भारी स्यापा हो सकता हो, वहां दो-दो कन्याओं का एक साथ पैदा होना और उनके पैदा होते ही उनकी मां की मृत्यु हो जाना, उनके लिए किसी अभिशाप से कम नहीं होने वाला था। कथा नायिका सोचती है कि ‘‘ईश्वर की बड़ी कृपा होती है कि बच्चे को जन्म से तीन वर्ष तक का समय याद नहीं रहता। उन तीन वर्षों में हम बहनों को कितनी, कैसी पीड़ा से गुजरना पड़ा होगा, यह तो बिसर गया परन्तु जैसे ही समझदारी हमारे भीतर आई, मैं समझने लगी। उपेक्षा का दंश हमें डंसने लगा।’’
      दोनों बालिकाओं के पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और अपनी बेटियों के प्रति मुंह फेर लिया। परिवार और विशेषरूप से अपने पिता से मिली उपेक्षा ने दोनों बहनों के मन पर सबसे गहरे असर डाला। यहां लेखिका ने इस बात को सामने रखने का प्रयास किया है कि बेटियों के लिए सिर पर छत, खाने को दो जून रोटी या शिक्षा दिलाने का कथित दायित्व निभाना भर पर्याप्त नहीं होता है, उन्हें सबसे अधिक जरूरत होती है अपने माता-पिता के प्यार और परिवार की आत्मीयता की।
    आराधना खरे की कहानियां सरल, सहज और संवेदनशील हैं। लेखिका अपनी कहानियों के जरिए एक ऐसे समाज को निर्मित होते देखना चाहती हैं जिसमें संबंधों में मधुरता, विश्वास, सम्मान और सुरक्षा रहे। स्त्री अपने अस्तित्व को पूर्णतया जी सके। लेखिका ने आदर्श नायिकाएं नहीं रची हैं बल्कि स्त्री के लिए उत्तम जीवन के ताने-बाने बुने हैं। मध्यमवर्गीय परिवार के परिवेश को बखूबी चित्रित करते हुए लेखिका ने भाषा की सहजता को अपनाया है। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू अर्थात् वर्तमान में प्रचलित हिन्दी का प्रयोग उनकी कहानियों को सहज बनाता है। बस, कहानियों का आकार कुछ कथानकों को ले कर उलझन पैदा करता है। जो कथानक पर्याप्त विस्तार मांगते हैं, लेखिका ने उन्हें भी छोटे आकार में समेट दिया है जिससे बहुत कुछ अनकहा रह गया है। चूंकि ये कहानियां ‘लघुकथा’ भी नहीं कही जा सकती हैं अतः इनमें कथातत्व की अपेक्षा बढ़ जाती है। अपनी आगामी कहानियों में वे इस अपेक्षा को पूरी करेंगी, यह आशा रखी जा सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लेखिका समाज और स्त्री जीवन के प्रति सजग हो कर सोचती हैं तथा सकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैं। उनकी लेखनी में स्वाभाविक एवं चरितार्थ किए जाने योग्य आशावाद है, जिसकी आज के इस कठिन दौर में बहुत आवश्यकता है। जीवन के विविध रंगों से हो कर गुज़रती ‘‘जीवन एक रंग अनेक’’ की कहानियां बेशक़ रोचक हैं, पठनीय हैं।
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