Friday, November 10, 2023

शून्यकाल | वे परंपराएं जो सदा रही हैं बुंदेली दीवाली की पहचान | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
वे परंपराएं जो सदा रही हैं बुंदेली दीवाली की पहचान
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
     कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रीति-रिवाजों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ये परंपराएं अत्यंत रोचक हैं। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।
    भारत का सबसे जगमगाता त्योहार है दीपावली। इस एक त्योहार के मनाए जाने के कारणों की बात करें से इससे जुड़ी अनेक कथाएं सुनने को मिल जाती हैं। मान्यता अनुसार इसी दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का स्वामी बनाया था इसलिए दक्षिण भारत के लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन के ठीक एक दिन पहले श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था। इस खुशी के मौके पर दूसरे दिन दीप जलाए गए थे। तभी से दीपावली का त्योहार आरंभ हुआ। यह ‘‘अन्धकार पर प्रकाश की विजय’’ को दर्शाता है। 
           बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। पहला दिन धनतेरस। इसे धन त्रयोदशी भी कहते हैं। धनतेरस के दिन मृत्यु के देवता यमराज, धन के देवता कुबेर और आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि की पूजा की जाती है। इसी दिन समुद्र मंथन में भगवान धन्वंतरि अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे और उनके साथ आभूषण व बहुमूल्य रत्न भी समुद्र मंथन से प्राप्त हुए थे। दूसरे दिन को नरक चतुर्दशी, रूप चैदस या काली चैदस कहते हैं। इसी दिन नरकासुर का वध कर भगवान श्रीकृष्ण ने 16,100 कन्याओं को नरकासुर के बंदीगृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष्य में दीपकों की बारात सजाई जाती है। तीसरे दिन दीपावली होती हैं। दीपावली का पर्व विशेष रूप से मां लक्ष्मी के पूजन का पर्व होता है। कार्तिक माह की अमावस्या को ही समुद्र मंथन से मां लक्ष्मी प्रकट हुई थीं जिन्हें धन, वैभव, ऐश्वर्य और सुख-समृद्धि की देवी माना जाता है। इसी दिन श्रीराम, सीता और लक्ष्मण 14 वर्षों का वनवास समाप्त कर घर लौटे थे। चैथे दिन अन्नकूट या गोवर्धन पूजा होती है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट उत्सव मनाना जाता है। इसे पड़वा या प्रतिपदा भी कहते हैं। पांचवें दिन को भाई दूज तथा यम द्वितीया कहते हैं। भाई दूज, पांच दिवसीय दीपावली महापर्व का अंतिम दिन होता है। भाई दूज का पर्व भाई-बहन के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने और भाई की लंबी उम्र के लिए मनाया जाता है। 
              दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चैक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही ऐरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। ऐरसे होली और दीपावली पर ही बनाए जाते हैं। ये मूसल से कूटे गए चावलों के आटे से बनते हैं। आटे में गुड़ मिला कर, माढ़ कर इन्हें पूड़ियों की तरह घी में पकाते हैं। घी के एरसे ही अधिक स्वादिष्ट होते है। इसी तरह अद्रैनी प्रायः त्यौहारों पर बनाई जाती है। आधा गेहूं का आटा एवं आधा बेसन मिलाकर बनाई गई पूड़ी अद्रैनी कहलाती है। इसमें अजवायन का जीरा डाला जाता है। इन सारी तैयारियों के साथ आगमन होता है बुंदेली-दिवाली का।
बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर जमीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।
          दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।
                    बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।
        दीपावली पर खुले आंगन में गोबर की लिपावट की सोंधी गंध भले ही सिमट रही हो किन्तु उस पर पूरे जाने वाले चौक, सातियां, मांडने आज भी आधुनिक बुंदेली घरों के चिकने टाईल्स वाले फर्श पर राज कर रहे हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।      
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