Wednesday, September 2, 2020

चर्चा प्लस | बंद होते जाना साहित्यिक पत्रिकाओं का | डॉ शरद सिंह


 चर्चा प्लस

बंद होते जाना साहित्यिक पत्रिकाओं का
- डॉ शरद सिंह

पहले ‘धर्मयुग’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘सारिका’ और अब ‘कादम्बिनी’ और ‘नंदन‘ जैसी पत्रिकाएं जिन्होंने हिन्दी साहित्य को हमेशा बढ़ावा दिया, एक-एक कर के बंद हो गईं। यह क्रम आगे भी बढ़ सकता है। इन पत्रिकाओं के मालिकों की आर्थिक हैसियत कम कभी नहीं रही, फिर भी उन्होंने हाथ खींच लिए। ये सभी हिन्दी की पत्रिकाएं थीं। बच्चों से ले कर बड़ों तक के लिए साहित्यिक सामग्री उपलब्ध कराने वाली पत्रिकाएं। क्या इनके मालिक अचानक हिन्दी विरोधी हो गए या फिर कोई और भी कारण है इन पत्रिकाओं के बंद होने का? आइए परखते हैं इस पत्रिका-बंदी के कारणों को।

जो आज तीस वर्ष की आयु से ऊपर के हैं उन्होंने अपने बचपन में ‘नंदन’ ज़रूर पढ़ा होगा। मैंने भी अपने बचपन में ‘नंदन’,‘पराग’,’चंदामामा’ आदि पत्रिकाएं पढ़ीं। वेताल, फ्लैश गॉर्डन, मैंड्रेक की कॉमिक्स के साथ-साथ ये तीनों पत्रिकाएं भी मेरे और मेरी दीदी के लिए मंगाई जाती थीं। मेरी सहेलियां मुझसे मांग कर ये पत्रिकाएं पढ़ा करती थीं। उन दिनों मुझे इन पत्रिकाओं के कारण अपनी सहेलियों पर अपना दबदबा महसूस होता था। उन दिनों ‘नंदन’ में विश्व की महान कृतियां धारावाहिक प्रकाशित की जाती थीं। जिनमें ऑर्थर कानन डायल की ‘शॉरलॉक होम्स’ से ले कर मेगुएल डी सर्वेंटीज़ की ‘डॉन क्विकज़ोट’ जैसे विश्व विख्यात उपन्यास शामिल थे। अनेक पाठक ऐसे होंगे जिनके मन में ऐसे साहित्य के प्रति ‘नंदन’ ने ही रुझान जाग्रत किया होगा। मेरे लिए तो यह सौभाग्य की बात रही कि जिस पत्रिका को मैंने बचपन में पढ़ा, बड़े होने पर उसमें मेरी लिखी कहानियां प्रकाशित हुईं। इसलिए ‘नंदन’ से जो लगाव रहा वह आज उसके बंद होने पर पीड़ा तो दे ही रहा है। यही हाल ‘कादम्बिनी’ का है। इस पत्रिका को मैंने अपने महाविद्यालयीन जीवन में पढ़ना शुरू किया था। बाद में इसमें मेरी परिचर्चा, कहानी, लेख, समीक्षा आदि प्रकाशित हुई।
हिंदी में बाल साहित्य की पत्रिकाओं का प्रकाशन 138 वर्ष पहले आरम्भ हुआ था। हिंदी में पहली बाल पत्रिका भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘बाल दर्पण’ के नाम से 1882 में इलाहाबाद से शुरू की थी। फिर उन्होंने ‘बाल बोधिनी’ भी निकाली। बच्चों के मनोरंजन देने के साथ ही उनका ज्ञानवर्द्धन करने के उद्देश्य से सरकारी प्रकाशन विभाग ने ‘बाल भारती’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। सन् 1947 में ‘चंदामामा’ का प्रकाशन शुरू हो चुका था। 1958 में टाइम्स ग्रुप की ‘पराग’ और 1964 में हिंदुस्तान टाइम्स समूह की ‘नंदन। ‘ नंदन' का पहला अंक ही प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को समर्पित था। इसके कुछ समय बाद ही ‘लोटपोट’ और ‘चंपक’ जैसी बाल पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।
हिन्दुस्तान टाइम्स समूह ने सन् 1960 में ‘कादम्बिनी’ पत्रिका का नई दिल्ली से प्रकाशन आरम्भ किया। इसमें साहित्यिकता होते हुए विषय की विविधा थी। इसलिए जल्दी ही यह लोकप्रिय हो गई। इसने साहित्य प्रेमियों एवं सामान्य पाठकों के बीच वर्षों तक अपनी लोकप्रियता बनाए रखी। ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के प्रकाशन बंद होने के बाद की कमी को ‘कादम्बिनी’ बखूबी भरती रही। लेकिन ‘कादम्बिनी’ और ‘नंदन’ दोनों का हश्र अपनी पूर्ववर्ती पत्रिकाओं की तरह ही हुआ। यह कहना गलत नहीं होगा कि इन दोनों पत्रिकाओं ने फिर भी कुछ अधिक समय तक अपने संघर्ष की गाड़ी को खींचा।
एक मंचीय परिसंवाद सत्र में बोलते हुए पत्रकार एवं साहित्यकार आलोक श्रीवास्तव ने बड़े मुद्दे की बात कही थी जिसे यहां उद्धृत करना जरूरी है -‘‘मैं ‘अहा जिंदगी’ का संपादक था। सन् 1991 से 96 तक ‘धर्मयुग’ में रहा मैं। फिर नवभारत टाइम के मुंबई संस्करण में और फिर ‘अहा जिंदगी’ में। विज्ञापन वाले सवाल पर बहुत शोध की जरूरत नहीं है। सब चीजें ऐसे तय नहीं होती हैं। चीजें बहुत बदल गई हैं। आज हमें बहुत व्यापक फलक में देखना होगा। उनके स्रोतों को देखना होगा। कारणों की तलाश करनी होगी। कारणों की श्रृंखलाओं को टटोलना पड़ेगा। तब जाकर हम वस्तुस्थिति का ठीक-ठीक आकलन करने और उसकी काट ढूंढ़ पाने में सक्षम होंगे। बहुत विस्तार में जाने का समय नहीं है।’’
‘पत्र-पत्रिकाएः साहित्यिक सरोकार एवं प्रसार’ विषय पर आयोजित इस परिसंवाद में आलोक श्रीवास्तव ने यह भी कहा था-‘‘मेरा 25 साल का हिन्दी पत्रकारिता का ऑब्जर्वेशन है कि हमने कविता, कहानी, आलोचना, उपन्यास के खांचे बना लिए हैं। स्टीरियोटाइप बना लिए हैं। इनके भीतर अच्छे किस्म की रचनाएं लिखी जा रही हैं और छप रही हैं। लेकिन ऐसी रचनाएं, जो पाठक के दिमाग में उजाला पैदा कर दें, एक रोशनी का विस्फोट कर दें, एक नए मनुष्य का रूपांतरण कर दें, जीवन के बारे में किसी एक दृष्टिकोण से दिखा दें, जो उसने नहीं देखा था, वे नहीं आ रही हैं। हमारा लेखक वर्ग बहुत सुविधाजीवी है। वह प्रेमचंद के जमाने से बहुत आगे निकल आया है। उस पर कोई आरोप नहीं है। ना ही मैं किसी मसीहाई अंदाज में बोल रहा हूँ, लेकिन हिन्दी के वास्तविक लेखक व कवि अभी नेपथ्य में पड़े हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिकाएं निकलती थी - धर्मयुग, सारिका, दिनमान, पराग। इन पत्रिकाओं की हिन्दी क्षेत्र में बहुत गहरी पहुंच थी। पकड़ और प्रभाव था। जब पत्रिकाएं 1990 के बाद से बंद होनी शुरू हुई। हम भारत के लोग विशेषकर हिन्दी क्षेत्र, भाषा, साहित्य के लोग थोड़ा ज्यादा भावुक होते हैं, हमने इसे हिन्दी विरोध के रूप में देखा। यह हिन्दी का विरोध नहीं था। अंग्रेजी की पत्रिकाएं भी बंद हुई। इलस्ट्रेटिड विकली थी, यूथ थी, सांईंस टुडे थी, सब बंद हुई। दरअसल जो व्यापार का मॉडल बन रहा था, उसमें टाइम्स ऑफ इंडिया का टर्न ओवर सौ करोड़ सालाना से दस हजार-बीस हजार सालाना की ओर बढ़ रहा था। उस स्थिति में यह पत्रिकाएं चाहे दस लाख का प्रसार रखें, चाहे बीस लाख का प्रसार रखें। चाहे दस करोड़ का विज्ञापन लाएं, चाहे बीस करोड़ का। वह बहुत छोटा खेल है। इस कारण उन घरानों को वे पत्रिकाएं बंद करनी पड़ी। नतीजा यह हुआ कि पिछले 25-30 सालों में व्यापक प्रसार वाली पत्रिकाएं बंद हो गई।’’

जब से टेलीविज़न घर-घर पहुंच गया तो लोगों का बहुत सारा समय टेलीविजन देखने में चला गया। बहुत सारी चीजें पढ़ने के लिए लोग पत्रिकाओं का इस्तेमाल करते थे। छिटपुट कहानियां पढ़ने के बजाए अब लोग टेलीविजन सीरियल देखने लगे। उनकी जो एक प्यास है वो बुझने लगी। दूसरी बात ये कि पत्रिकाओं में जो विमर्श होता था। उसके जगह टेलीविजन चैनल पर चलने वाले विमर्श ने ले ली है। इसके साथ ही आ गया सोशल मीडिया। हर समय वाट्सअप व फेसबुक पर सूचनाओं की बाढ़ आती रहती है। बेशक़ दृश्य लिखित शब्द का विकल्प नहीं हो सकता लेकिन कम खर्चे में अधिक सूचनाओं का समीकरण पाठकों को प्रिंट मीडिया से दूर कर रहा है। आज इंटरनेट और ऑन लाइन रीडिंग के दौर में जब समाचार पत्रों का ही भविष्य संकट में है तो पत्रिकाओं के लिए तो बहुत ही कम स्पेस बचा है।
यह तो हुआ साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशकीय पक्ष जो इलेक्ट्रॉनिक दबाव से जूझ रहा है। कोरोना के चलते मीडिया जगत में जहां इलेक्ट्रॉनिक व डिजिटल मीडिया के दर्शकों एवं पाठकों में बढ़ोतरी हुई है। वहीं प्रिंट मीडिया घोर संकट से जूझ रहा है। बड़े अखबारों की भी हालत खराब है। कई एडिशन को एक साथ समेट कर निकाला जा रहा है। वहीं पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं की हालत और भी खराब है। कई पत्रिकाएं सिर्फ ईकॉपी में ही पीडीएफ फार्मेट में ही छप रहीं है। क्यों कि डाक द्वारा पहुंच संभव नहीं हो पा रही है। यानी पत्रिकाओं को पर्याप्त विज्ञापन नहीं मिल रहा है, उनकी पहुंच पाठकों तक नहीं हो पा रही है, तो पत्रिकाएं चलें तो कैसे चलें?
साहित्यिक पत्रिकाओं के बंद होने के कारण का एक और पहलू है जिस पर गौर करना जरूरी है। जो लोग आज ‘कादम्बिनी’ और ‘नंदन’ के बंद होने पर सोशल मीडिया पर स्यापा कर रहे हैं वे ज़रा अपने दिल पर हाथ रख कर विचार करें कि इन पत्रिकाओं के चलते रहने के लिए उन्होंने क्या योगदान दिया? प्रश्न अजीब है। चलिए, ज़रा खुल कर बात करते हैं कि हमने अपने बच्चों और बच्चों के बच्चों को भी अंग्रेजी भाषा को समर्पित कर दिया है। वे अंग्रेजी की पत्रिकाएं पढ़ते हुए हमें अधिक भाते हैं। जो हिन्दी के पाले में खड़े हैं वे इतने समर्थ नहीं हैं कि बढ़े हुए दामों वाली इन पत्रिकाओं को खरीद सकें। यही हाल बड़ों की साहित्यिक पत्रिकाओं का है। हमारी पढ़े-लिखों और क्रयशक्ति धारकों की एक पीढ़ी अंग्रेजी साहित्य के हवाले हो गई है। अब किसी पत्रिका के चार अंक सागर में, चार अंक कानपुर में, दो अंक शिमला में और सात अंक गोरखपुर में बिकने से तो उस पत्रिका के प्रकाशन का खर्चा निकलने से रहा। हमें इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि हिन्दी और हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएं दोनों हमारे हाथों से फिसलती जा रही हैं।

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