Tuesday, September 23, 2025

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास  | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास 
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - गोल्डन केज
लेखिका -  डॉ. श्वेता भटनागर
प्रकाशक - स्टोरीमिरर इन्फोटेक प्राइवेट लिमिटेड, यूनिट संख्या-एफ/705, सातवीं मंजिल, कैलाश कॉर्पोरेट लाउंज, वीर सावरकर रोड, विखेओली पार्क साइट, विक्रोली वेस्ट,
मुंबई-400079
मूल्य - 499 /-
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‘‘गोल्डेन केज: ए वूमेन्स जर्नी थ्रू एक्सपेक्टेशन्स एंड इंपावरमेंट’’ यदि इसका हिंदी अनुवाद किया जाए तो अर्थ होगा, ‘‘सोने का पिंजरा: अपेक्षाओं और सशक्तिकरण के बीच एक स्त्री का सफर’’। डाॅ. श्वेता भटनागर का उपन्यास है ‘‘गोडन केज’’। डॉ. श्वेता भटनागर मैक्सिलोफेशियल सर्जन और सागर, मध्यप्रदेश स्थित मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। कथा साहित्य में उनका रुझान है। वे दो बेटियों की माँ हैं अतः स्वाभाविक रूप से वे एक ऐसे संसार की कल्पना अपने कथानक में करती हैं जहां स्त्री को अपनी इच्छानुरूप जीवन जीने का अवसर मिले। ‘‘गोल्डेन केज: ए वूमेन्स जर्नी थ्रू एक्सपेक्टेशन्स एंड इंपावरमेंट’’ उनका पहला उपन्यास है। अंग्रेजी में है। यह उपन्यास एक पड़ताल है स्त्री की महत्वाकांक्षा और परिस्थितियों के पारस्परिक टकराव की। यह उपन्यास बात करता है स्त्री के स्त्री होने के साथ ही एक मानव होने की। यह उपन्यास प्रश्न करता है स्त्री की अभिलाषाओं के बारे में।

यह प्रश्न हमेशा बहस का विषय रहा है कि एक स्त्री क्या चाहती है? वह किस प्रकार का जीवन जीना चाहती है? स्त्रीवादी स्वर कहता है कि स्त्री दैहिक स्वतंत्रता चाहती है। गैरस्त्रीवादी सामाजिक स्वर कहता है कि स्त्री के लिए आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है। किन्तु जब किसी आम स्त्री से पूछा जाता है तो वह भ्रमित स्वर में उत्तर देती है कि ‘‘मुझे पता नहीं, मुझे क्या चाहिए?’’ स्त्री जीवन की समाज द्वारा जो यात्रा सुनिश्चित की गई उसमें विवाह, संतानोत्पत्ति एवं गृहणी धर्म का पालन जैसे पड़ाव एवं कर्तव्य निर्धारित किए गए। किन्तु समय के साथ स्त्री ने अपने घर की खिड़की से बाहर झांका। पहले डरते-डरते और दृढ़ता से। उसे घर की खिड़की से बाहर की दुनिया अधिक स्वतंत्र और ताज़ा दिखाई दी। कुछ ने सहमति पा कर, कुछ ने विद्रोह कर और कुछ ने मात्र कौतूहलवश बाहर की दुनिया को देखने के लिए धर से बाहर कदम रखा। रास्ता चुना धनोपार्जन का। आर्थिक स्वतंत्रता का। इससे एक कामकाजी स्त्री ने अवतार लिया। आर्थिक लाभ भला किसे पसंद नहीं? उसके इस कदम का स्वागत किया गया, भले ही अहसान जताने के भाव से। घर में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी। वह प्रसन्न हुई। लेकिन उसकी यह स्वतंत्रता पुरुषों की भांति नहीं थी। उसे संतान को जन्म देना था, बच्चों को पालना था, घर भी सम्हालना था, भोजन पकाना था, समस्त रिश्तों का यथावत निर्वाह करना था। अर्थात उसे कामकाजी होने पर पारिवारिक दायित्वों से कोई छूट नहीं थी। शिकायत करने की गुंजाइश नहीं थी क्योंकि ‘‘यह तुम्हारा निर्णय था’’ अथवा ‘‘तो छोड़ दो नौकरी’’ का ताना उसके लिए तय था। इस तरह कामकाजी स्त्री दो फड़ में बंट गई। वह सुपर वूमेन बनने के प्रयास में ह्यूमन भी नहीं रह गई। एक रोबोट जिसे में भावनाएं एवं इच्छाएं नहीं होनी चाहिए। यही तो है स्त्री का ‘सुनहरा पिंजरा’ जो है तो सोने का किन्तु पिंजरा ही है।     
 
 उपन्यास की नायिका साहित्या नामक एक महत्वाकांक्षी स्त्री है जो अपने महत्वाकांक्षी सपनों और पारिवारिक अपेक्षाओं के बीच संतुलन बिठाती है। साहित्या में शैक्षणिक प्रतिभा है। वह अपने करियर में सफल है लेकिन विवाह के बाद स्थितियां जटिल होने लगती हैं। एक स्थिति ऐसी भी आती है जब कार्यस्थल में भी उसे निराशा का सामना करना पड़ता है और व्यक्तिगत विश्वासघात उसे तोड़ने का पूरा प्रयास करता है। किन्तु साहित्या जीवट है। वह हार नहीं मानना चाहती है। वह संघर्ष करती है। जब उसे लगता है कि उसका अस्तित्व बिखर रहा है, उसकी पहचान खो रही है, ठीक उसी समय वह स्वयं को सम्हालती है और एक बार फिर उठ खड़ी होने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देती है। अपने प्रयासों से नया व्यवसाय खड़ा करना कठिन था फिर भी वह अपनी शर्तों पर अपना व्यवसाय फिर से बनाती है। अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करती है। यह साहित्या का एक ऐसा प्रयास था जो उसे उसके सुनहरे पिंजरे से आजादी दिला सकता था।

मशहूर उर्दू उपन्यासकार कुर्रतुलैन हैदर नारीवादी लेखिका नहीं थीं लेकिन वे स्त्री स्वतंत्रता की प्रबल समर्थक थीं। एक बार एक साक्षात्कार में उनसे पूछा गया कि ‘‘आपके हर उपन्यास की नायिका पुरुषों के समान सशक्त और सक्षम होती है, फिर भी आप मानती हैं कि आप नारीवादी नहीं है, ऐसा क्यों?’’ इस प्रश्न का बड़ा सटीक उत्तर दिया था कुर्रतुलैन हैदर ने,‘‘स्त्री का जीवन कोई वाद नहीं है और न ही उसकी स्वतंत्रता की आकांक्षा को नींव बना कर उस पर किसी वाद का महल खड़ा किया जा सकता है। हां, मैं स्त्री स्वतंत्रता की प्रबल पक्षधर हूं किन्तु यह नारा बन कर हवाओं में सिर्फ उछलता रहे यह भी मुझे स्वीकार नहीं है।’’ यही बात ध्वनित होती है डाॅ. श्वेता भटनागर की कहानी में। उनके उपन्यास की नायिका स्वतंत्रता चाहती है किन्तु अपनी उन शर्तों पर जहां उसका स्त्री होना उसे खुद भी बोझ प्रतीत न हो।

        यह भी एक विचित्र स्थिति है कि शैशवावस्था छोड़ते ही परिवार और समाज तय करने लगता है कि लड़की को लड़की बनना है और लड़के लड़का। यद्यपि यह बात तो बायोलाॅजिकली प्रकृति ही तय कर चुकी होती है। फिर भी लड़की को गुड्डे-गुड़िया और लड़के को गाड़ी, हथियार आदि खिलौनों के रूप में सौंपा जाता है। यह दोनों की सामाजिक एवं पारिवारिक स्किल तय करने का परंपरागत सामाजिक तरीका है। इससे आगे क्या होता है इस पर डाॅ. श्वेता भटनागर ने उपन्यास की प्रस्तावना में सटीक शब्दों में लिखा है कि ‘‘हर छोटी बच्ची एक दिन कामयाब होने और अपनी काबिलियत के लिए जानी जाने का सपना देखती है। किसी भी छोटी बच्ची से पूछिए कि वह बड़ी होकर क्या बनना चाहती है, तो आपको मासूम मगर महत्वाकांक्षी जवाब मिलेंगे- शिक्षक, डॉक्टर, वैज्ञानिक, वगैरह। लेकिन अपनी जिंदगी में मैंने कभी किसी छोटी बच्ची को यह कहते नहीं सुना कि वह गृहिणी बनना चाहती है। वही छोटी बच्ची बड़ी होकर अपने सपनों के लिए अथक परिश्रम करती है, उसे अपने उज्ज्वल भविष्य की संभावना पर विश्वास होता है। कुछ लोग उच्च शिक्षा और अपने सपनों को प्राप्त करने में भाग्यशाली होते हैं, जबकि कुछ को बचपन से ही इस बुनियादी जरूरत के लिए संघर्ष करना पड़ता है। एक दिन, वह कॉलेज में होती है - हँसती-खिलखिलाती, और आजादी की दुनिया में जी रही होती है। जैसे ही उसकी शिक्षा पूरी होती है, अक्सर शादी अगला पड़ाव बन जाती है, और वह एक ऐसे घर में प्रवेश करती है जहाँ उसके छोटे से छोटे फैसले भी सूक्ष्म स्वीकृति की माँग करते हैं। उसके सपने और इच्छाएँ, जो कभी बहुत ज्वलंत थीं, चुपचाप गौण हो जाती हैं। उसकी महत्वाकांक्षाएँ एक अदृश्य कारागार में बंद हो जाती हैंः परिवार, समाज की अपेक्षाओं और परंपराओं के अदृश्य भार से निर्मित एक सुनहरा पिंजरा। सुनहरा पिंजरा सिर्फ एक कहानी नहीं है, यह उन अनगिनत महिलाओं के जीवन का दर्पण है जो आजादी की चाहत में चुपचाप इन बोझों को सहती हैं।’’

उपन्यास के आरंभ में तीन टिप्पणियां भी हैं जिनका उल्लेख करना समीचीन होगा। पहली टिप्पणी है केशव भटनागर की। वे कहते हैं कि ‘‘हमेशा खुद पर विश्वास रखें। अगर आपके दो काम करने वाले हाथ, दो काम करने वाले पैर और एक काम करने वाला दिमाग है, तो आप दुनिया के सबसे भाग्यशाली लोगों में से एक हैं। इनका अच्छा इस्तेमाल करें। अपना रास्ता खुद बनाएँ।’’ उनके बाद प्रवीण खरे का कथन है कि ‘‘आप दुनिया में सफल होना चाहते हैं, तो अपने दुश्मनों को न्यूनतम रखें।’’ और तीसरी टिप्पणी है श्वेता भटनागर खरे की कि ‘‘ईश्वर ने तुम्हें एक ही जीवन दिया है, अपने आप पर एक उपकार करो, इसे अपनी इच्छानुसार जियो।’’

उपन्यास की नायिका इन्हीं टिप्पणियों के अनुसार अपने जीवन को नया आकार देने के लिए कृतसंकल्प दिखाई देती है। उपन्यास के कुछ प्रसंग सहसा ध्यान खींचते हैं। जैसे -‘‘आखिरकार, चेयरमैन ने मेज पर जोर से हाथ पटक दिया। ‘‘बस, बस,‘‘ उनकी आवाज में आदेशात्मक भाव था। ‘‘आर्थिक नुकसान से इनकार नहीं किया जा सकता। हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। क़ानूनी कार्रवाई जरूर होनी चाहिए।’’ साहित्या का दिल धड़क उठा। वे उसे लड़ने का मौका दिए बिना ही उसकी किस्मत पर मुहर लगा रहे थे। फिर, पहली बार, पराग बोले। ‘‘इस समय कोई भी कानूनी कार्रवाई लंबी जाँच की माँग करेगी। इससे न सिर्फ कंपनी की छवि धूमिल होगी, बल्कि लंबित परियोजनाओं में भी देरी होगी, और फिर जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई नामुमकिन होगी।’’ उन्होंने सहजता से कहा। ‘‘सबसे अच्छा यही होगा कि उनकी सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी जाएँ और एक सार्वजनिक बयान जारी किया जाए।’’ साहित्या ने बीच में कहा, ‘‘मैं किसी भी जांच से गुजरने को तैयार हूं, मैं आपको सार्वजनिक रूप से मेरी छवि खराब नहीं करने दूंगी, अन्यथा मैं कानूनी कार्रवाई करूंगी और इस कंपनी को मानहानि के तहत जिम्मेदार ठहराऊंगी।’’
पराग बोला, ‘‘साहित्य, तुम ठीक से सोच नहीं रहे हो, सारे सबूत तुम्हारे खिलाफ हैं और अगर तुम दोषी पाए गए तो सिर्फ तुम ही नहीं, तुम्हारे मातहत काम करने वाले सभी निर्दोष लोगों पर गबन, चोरी और धोखाधड़ी समेत वित्तीय भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे।’’ उसी समय, साहित्या के मोबाइल पर एक मैसेज आया, जिसमें लिखा था, ‘‘चली जाओ, वरना।’’
कमरे में सन्नाटा छा गया। आखिरी वार हो चुका था।
साहित्या जड़वत खड़ी रही, उसका मन दौड़ रहा था। सब खत्म हो गया था।’’
इसी तरह उपन्यास में एक और प्रसंग है जो हार को जीत की ओर ले जाने का प्रस्थान बिन्दु बन कर उभरता है। दृश्य कुछ इस प्रकार है कि ‘‘बिना ठोस सबूत के, कंपनी उस पर मुकदमा कर सकती थी, जिससे वह कानूनी पचड़े में पड़ सकती थी और उसके नए उद्यम में देरी हो सकती थी। वह अतीत को अपने भविष्य को बर्बाद करने नहीं दे सकती थी। उसने खुद को याद दिलाया कि हर चीज का एक समय होता है। फिलहाल, उसे अपना स्टार्टअप बनाने पर ध्यान केंद्रित करना था। बदला तो इंतजार कर सकता था, लेकिन उसके सपने नहीं। वह खिड़की के पास बैठी, विचारों में खोई हुई, सामने के बगीचे को घूर रही थी। निराशा का बोझ उस पर भारी पड़ रहा था। तभी, दो नन्हे हाथों ने उसकी कमर को थाम लिया। आर्या की उत्साह भरी आवाज गूँजी, ‘‘मेरी मम्मा सबसे अच्छी हैं! मेरी मम्मा सबसे अच्छी हैं!’’ साहित्या की आँखों में आँसू आ गए। शायद उसे बस यही चाहिए था। कोई ऐसा जो उस पर विश्वास करे। उसने ऊपर देखा तो उसके पिता बगीचे के दूर छोर पर घास काट रहे थे। उन्होंने आर्या की नजरें पकड़ लीं और हाथ हिलाया। आर्या ने भी उत्साह से हाथ हिलाया। उसके मन में उसके शब्द गूंजने लगे, ‘‘यदि एक रास्ता अवरुद्ध हो, तो दूसरा रास्ता अपना लो, किसी छोटी सी बाधा के कारण चलना मत छोड़ो।’’

‘‘गोल्डन केज’ यद्यपि अंग्रेजी में लिखा गया है किन्तु इसकी भाषा सरल है। इसे आसानी से पढ़ा और समझा जा सकता है। फिर भी यह एक अच्छी और सारगर्भित कृति है अतः इसे अनुवाद हो कर उस तबके पाठकों तक भी पहुंचना चाहिए जिनसे इसके कथानक का अधिक सरोकार है अर्थात हिन्दी जानने वाले मध्यमवर्गीय पाठकों का। डाॅ. श्वेता भटनागर की लेखनी में अपार संभावनाएं हैं और वे स्त्री जीवन के प्रति एक सशक्त लेखन क्षमता रखती हैं। यह उपन्यास निश्चित रूप से पठनीय है।
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(23.09.2025 )
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