Tuesday, September 30, 2025

पुस्तक समीक्षा | द्वैताद्वैत की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का काव्यात्मक आख्यान | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | द्वैताद्वैत की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का काव्यात्मक आख्यान | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा
द्वैताद्वैत की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का काव्यात्मक आख्यान
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह- कारे कन्हाई के कान लगी है
कवि     - डाॅ. अवध किशोर जड़िया
प्रकाशक - शशिभूषण जड़िया, विनायक जड़िया, हरपालपुर, छतरपुर, म.प्र.
मूल्य     - 80/-
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       राधा-कृष्ण का प्रेम कवियों के लिए प्रिय विषय रहा है क्योंकि राधा-कृष्ण के प्रेम का वर्णन विचारों एवं भावनाओं को मात्र लौकिक नहीं वरन अलौकिकता तक ले जाता है। भक्त कवियों में अधिकांश ने राधा-कृष्ण के परस्पर प्रेम को अपने काव्य के लिए चुना। इसके द्वारा वे आत्मा एवं परमात्मा के स्वरूप की समुचित व्याख्या कर पाए। पद्मश्री डाॅ. अवधकिशोर जड़िया ने भी अपने काव्य में राधा-कृष्ण के प्रेम के विविध रूपों को वर्णित किया है। उनके काव्य संग्रह ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ में उन्होंने बृषभान एवं कृष्ण के प्रेम के विविध स्वरूपों का वर्णन किया है। यूं तो कई कवियों ने वृषभान अर्थात राधा को ‘वृषभानलली’ अथवा ‘‘वृषभानुजा’’ कह कर संबोधित किया है किन्तु कुछ काव्यों में उन्हें सुविधानुसार ‘‘वृषभान’’ भी कहा गया है। कृष्ण और राधा के प्रेम को ले कर अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार कृष्ण और राधा का प्रेम सांसारिक बंधनों से मुक्त था। वहीं दूसरा मत है कि कृष्ण के साथ राधा के विवाह को ब्रह्मा जी ने संपन्न कराया था जोकि आध्यात्मिक विवाह था।
राधा-कृष्ण के प्रेम को ले कर आत्मा और परमात्मा के परस्पर संबंधों को भी विविध दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया गया है। जैसे द्वैताद्वैत मत में आत्मा और ईश्वर के बीच भेद और अभेद दोनों को स्वीकार किया गया है। इसका आशय है कि आत्मा और परमात्मा एक ही समय में अलग भी हैं और एक भी हैं। इस द्वैताद्वैत सिद्धांत के प्रवर्तक 12वीं-13वीं शताब्दी के आचार्य निम्बार्क थे, जो वैष्णव संप्रदाय के थे। यह एक ऐसा दर्शन है जो नदी और समुद्र के संबंध की तरह, जीवात्मा और परमात्मा के बीच स्वाभाविक भिन्नता और एकता दोनों को प्रस्तुत करता है। इसके अनुसार ब्रह्म जीव से भिन्न भी है और अभिन्न भी। जैसे पत्ते, प्रभा तथा इन्द्रियाँ पृथक स्थिति रखते हुए भी वृक्ष, दीपक और प्राण से अभिन्न हैं, उसी प्रकार जीव भी अपना अलग अस्तित्व रखते हुए ब्रह्म से अभिन्न है। उल्लेखनीय है कि धर्मोपासना में राधा की यह महत्ता निम्बार्क संप्रदाय में ही प्रथम बार स्वीकृति हुई थी। श्री निम्बार्काचार्य के ‘‘दशश्लोकी’’ के प्रसिद्ध श्लोक में राधा के इसी महत्तम स्वरूप का स्मरण किया गया है-
अंगे तु वामे वृषभानुजा मुदा विराजमाना मनुरूपसौभगा।
सख्यै सहस्त्रैः परिसेवितां सदा, स्मरेमि देवीं सकलेष्ट कामदां।।

डाॅ अवध किशोर जड़िया ने अपने काव्य संग्रह ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ में द्वैताद्वैत के सिद्धांत को आधार रूप में लिया है। यद्यपि उनकी यह कृति उनके काव्यात्मक उदयकाल की कृति है। कई बार रचनाएं इच्छित समय पर प्रकाशित नहीं हो पाती हैं। किन्तु इससे श्रेष्ठ रचना के स्वरूप पर कोई अन्तर नहीं आता है। इस कृति के सृजन एवं प्रकाशन के बारे में डाॅ. जड़िया नेे ‘‘अनुरोध’’ के अंतर्गत स्वयं लिखा है कि ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है- वर्ष 1968 की रचना है। इस कृति के विषय में यह कहना अत्यंत आवश्यक है कि जिस समय यह शतक लिखा गया, उस समय मेरी आयु 20 वर्ष की थी। मैं शास. आयुर्वेद चिकित्सालय महाविद्यालय ग्वालियर म.प्र. में तृतीय वर्ष का छात्र था, इसी के मध्य कालेज में हड़ताल चली और उन्हीं दिनों में यह शतक भी पूरा हुआ। कृति का वर्ण्य विषय यह है कि, जब से श्रीराधा, श्रीकृष्ण के कहने में लगीं हैं और इस कारण उनमें जो परिवर्तन आए हैं उन्हीं सारे परिवर्तनों को समर्पित होता हुआ यह सम्पूर्ण शतक है। संयोगवश उन्हीं दिनों मेरे पूज्य गुरुवर श्री शंकर लाल जी सूरौठिया ने मेरे लिये जो शुभकामना लिखी थी वह आज फलीभूत हो रही है, उस समय यह छंद, पत्र द्वारा मुझे प्राप्त हुआ था।’’ 

जिस समय शंकर लाल सूरौठिया जी ने इस कृति की भूमिका लिखी उसी समय उन्होंने पहचान लिया था कि कृति का मूल स्वरूप द्वैताद्वैत पर आधारित है। सूरौठिया जी ने लिखा है -‘‘बड़े गौरव की बात है कि नवयुवक कवि डॉ. किशोर का प्रथम प्रयास पद्य की प्राचीन पद्धति से ही प्रस्फुटित हुआ है। ‘कारे कन्हाई से कान लगी है’ रचना से स्पष्ट हो जाता है कि कवि प्राचीन काव्य धारा के प्रति कितना जागरूक है, साथ ही वर्तमान में जब कि अतुकांत कविता का बोलबाला है, प्राचीन काव्य परम्परा के प्रति प्रेरणा प्रदान करने वाला है। द्वैताद्वैत के सिद्धान्त पर आधारित यह रचना पाठकों को भौतिक जगत को भूलकर भगवान की भावना में विभोर होकर लीन होने का अवसर प्रदान कर देती है। ‘कारे कन्हाई के कान लगी है’ रचना में वृषभानुजा एवं बृजेश की संयोगावस्था का चित्रण प्रसादगुण युक्त चित्रात्मक भाषा में बड़े ही मार्मिक ढंग से हुआ है। स्वाभाविकता कविता का प्रमुख लक्षण है। मत्तगयन्द छंद हृदय को रसमय कर देने में पूर्ण सफल है। ....मुझे विश्वास है कि किशोर कवि में एक महान कवि का बीज विद्यमान है।’’ 

सुखद संयोग यह रहा कि सूरोठिया जी की भविष्यवाणी इतनी सटीक सिद्ध हुई कि पेशे से चिकित्सक रहे डाॅ अवध किशोर जड़िया को साहित्य के लिए ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। किन्तु जिस समय डाॅ जड़िया ने एक युवा कवि एवं विद्यार्थी के रूप में इस कृति की रचना की थी उस समय हिन्दी काव्य आधुनिक काव्यशैली एवं प्रगतिशील विचारों का अनुपालन कर रहा था। इस तथ्य को ‘‘आशंसा’’ के रूप में सागर विश्वविद्वालय के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष पद्मश्री डॉ. लक्ष्मीनारायण दुबे ने कुछ इस प्रकार लिखा है- ‘‘आजकल प्राचीनता के नाम पर लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं और कविता को उन्होंने सामान्य अभ्यास की वस्तु बना लिया है। परन्तु इस प्रकार की काव्यकृतियों का अनुशीलन करने पर विदित होता है कि काव्य संस्कार, साधना और अनुभूति की वस्तु है। सुकवि ‘किशोर’ को काव्य का स्फुरण और दायित्व उनके पूज्य और वरेण्य पिता के माध्यम से सच्चे और सार्थक रूप से प्राप्त हुआ है। उन्होंने ब्रजवाणी तथा मत्तगयन्द, सवैया आदि छंदों का सफल उपयोग करते हुए कृष्ण काव्य की पुनीत तथा समृद्ध परिपाटी को एक कदम और आगे बढ़ाया है। टेक या समस्यापूर्ति पर आधारित इस काव्य की मुख्य पंक्ति को कृति का शीर्षक देना एक स्वस्थ तथा सात्विक लक्षण है।’’

छांदासिकता से परिपूर्ण इस काव्य संग्रह में राधा अर्थात वृषभानुजा को आत्मा एवं कृष्ण को परमात्मा मानते हुए उनके लौकिक एवं अलौकिक दोनों स्वरूपों का वर्णन किया गया है। आरंभिक छंदों में वृषभानुजा के कृष्ण के प्रति प्रेम का संयोगात्मक विवरण है तथा उत्तरार्द्ध के छंदों में कृष्ण के वियोग का विवरण है। इसके साथ ही बारामासी प्रभावों को भी रेखांकित किया गया है। डाॅ. जड़िया ने अनुप्रास अलंकार का परंपरागत ढंग से बहुत सुंदर प्रयोग किया है, इसका उदाहरण देखें-  
गोपीं कहें सुन राधे लली, कत रान लगी कतरान लगी है।
रावै इतै, इतरावै नहीं, उत रान लगी उतरान लगी है।
बात सुनी एक, बागन में, बृज बल्लभ सों बतरान लगी है।
भान नहीं वृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।

‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ के टेक के साथ हर छंद का समापन अपने आप में रसानुभूति की अनूठी छवि प्रस्तुत करता है। 
सोचत सो चित चेत उठी, पुनि प्रीति पुनीत लगी सुलगी है।
कान्ह से कान करें का कहो, कुलकान की कान तो जात भगी है।
जानत जान जहान सबै, पर जा नित जात बनी सु-सगी है
भान नहीं वृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।
कुछ छंदों में दृश्यात्मकता एवं यथार्थबोध का स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। जैसे झूला झूलते समय पींगे उठने पर राधा डरने लगती हैं और तब वे अपना डर दूूर करने के लिए कृष्ण का गुणगान करके अपना ध्यान बंटाती हैं। यह बहुत ही सुंदर एवं स्वाभाविक वर्णन है- 
झूला झुलावन लागी सखी, उर में ललना डरपान लगी है।
वेगवती मिचकी जो भई, डर सों नयना मिचकान लगी है।
प्रेम पगी मधुसूदन की, गुणग्राम गुपाल के गान लगी है।
भान नहीं वृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।

वहीं कृष्ण के मथुरा छोड़ कर चले जाने पर गोप-गोपियों की जो दशा है उसका वर्णन भी अत्यंत हृदयस्पर्शी है। चंद्र के समान कृष्ण के जाने से मथुरा में अमावस्या का अंधकार छा गया है और राधा के मुख की कांति भी अमावस्या की कालिमा से ढंक गई है-
चन्द्र गयो बृज को मथुरा बृज बीच अमावश आन लगी है।
राधिका के मुख चन्द्र को चोप, -गयो तन दीप्ति बिलान लगी है।
व्योम के तीसरे चन्द्र की आज सें-सारी कला बिनसान लगी है।
भान नहीं बृषभान की कान की, कारे कन्हाई के कान लगी है।
डाॅ. अवध किशोर जड़िया की यह कृति ‘‘कारे कन्हाई के कान लगी है’’ द्वैताद्वैत भक्ति के साथ छंद की पारंपरिक सृजनशीलता को भी सामने रखती है अतः इसकी महत्ता अपने-आप में स्वयंसिद्ध है। यह द्वैताद्वैव की कसौटी पर राधा-कृष्ण प्रेम का सुंदर आख्यान है। इसे पूरा पढ़ने पर ही इसका वास्तविक लालित्य बोध अनुभव किया जा सकता है। छांदासिक काव्यप्रेमियों के लिए यह कृति अत्यंत रुचिकर है।   
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