- डाॅ. शरद सिंह
देश का विभाजन क्यों हुआ? कैसे हुआ? इसके लिए जिम्मेदार कौन था? क्या इसे रोका जा सकता था? ये चारो प्रश्न बार-बार उठते रहते हैं। आज राजनीतिक मंचों और टेलीविजन चैनल्स के डिस्कशन में जिस तरह कटुता भरे आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं उसे देख-सुन कर ऐसा लगता है गोया हम उसी बंटवारे के दौर में जा पहुंचे हैं। जबकि कुछ भी कहने से पहले बेहतर है कि पहले हम समझ लें तत्कालीन स्थितियों को। इस संदर्भ में मैं यहां अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: महात्मा गांधी’’ (सामयिक प्रकाशन नईदिल्ली, वर्ष 2015) के कुछ अंश दे रही हूं जिनसे तत्कालीन परिस्थितियां समझी जा सकती हैं।
अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति रंग लाने लगी थी। भारतीय मुस्लिमों और हिन्दुओं को दो धार्मिक समुदाय में बांटने में अंग्रेजों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनकी अलगाववादी नीतियों का ही प्रभाव था कि भारत का एक बड़ा मुस्लिम समुदाय भारत से अलग होकर मुस्लिम राष्ट्र के रूप में स्थापित होने के लिए व्याकुल हो उठा। आरम्भिक गतिविधियों के रूप में मार्च, 1940 में लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने मुस्लिमों के लिए एक अलग राज्य की मांग उठाई। मुस्लिम लीग के इस निर्णय के पीछे कुछ कट्टरपन्थी विचारधारा वाले मुस्लिमों का हाथ था। 8 अगस्त, 1942 को कांग्रेस द्वारा पारित ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा कांग्रेस के कई महत्त्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। कांग्रेस के नेताओं की अनुपस्थिति में मुस्लिम लीग को अपना राजनीतिक उद्देश्य पूर्ण करने के लिए मुस्लिम जनमत को अपने पक्ष में करने एक अच्छा अवसर मिल गया।
20 अक्टूबर, 1943 को जब लार्ड लिनलिथगो के स्थान पर फील्ड मार्शल वावेल को भारत का वायसराय बना कर भेजा गया तो उसका उद्देश्य भारत में उत्पन्न राजनीतिक गतिरोध को समाप्त करना और द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीयों का सहयोग लेना था। फील्ड मार्शल वावेल ने 5 मई, 1944 को महात्मा गांधी तथा अन्य नेताओं को रिहा कर दिया और विश्व युद्ध को समाप्त होता हुआ देखकर वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ 25 जून से 24 जुलाई, 1945 तक शिमला में बातचीत की। इस बातचीत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग भारत के भविष्य पर एकमत नहीं हो सके। विश्वयुद्ध की समाप्ति के एक सप्ताह के भीतर ही वावेल ने केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान परिषदों के लिए निर्वाचन की घोषण कर दी। मुस्लिम लीग ने केन्द्रीय विधान परिषद में मुस्लिमों के लिए आरक्षित सभी 30 सीटें जीत लीं। प्रान्तीय विधान परिषद् में मुस्लिम लीग को मुस्लिमों के लिए आरक्षित 560 सीटों में से 427 सीटें प्राप्त हुईं। सन् 1946 में कैबिनेट मिशन भारत आया। कैबिनेट मिशन ने प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ लम्बी बातचीत के बाद दो प्रस्ताव रखे। पहला प्रस्ताव एक संयुक्त भारत के निर्माण का सुझाव था। दूसरे प्रस्ताव में पंजाब और बंगाल के हिन्दू बहुसंख्यक क्षेत्रों में समीपवर्ती प्रान्तों को भारत में मिलने की स्वतंत्रता के साथ पाकिस्तान के रूप में एक अलग मुस्लिम राज्य को स्वीकार करने का सुझाव दिया गया था। मुस्लिम लीग ने पहले प्रस्ताव पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। यूं तो कांग्रेस ने भी इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति जताई किन्तु वह समूह सम्बन्धी व्यवस्था के पक्ष में नहीं थी तथापि अंतरिम साझा सरकार और संविधान सभा का गठन करने के लिए वायसराय फील्ड मार्शल वावेल ने राजनीतिक कार्यवाही शुरू कर दी।
चर्चा प्लस ... कौन जिम्मेदार था देश के विभाजन के लिए?- डाॅ. शरद सिंह |
कांग्रेस के अधिकतर नेता पंथ-निरपेक्ष थे और सम्प्रदाय के आधार पर भारत का विभाजन करने के विरुद्ध थे। महात्मा गांधी का विश्वास था कि हिन्दू और मुसलमान साथ रह सकते हैं और उन्हें साथ रहना चाहिए। उन्होंने विभाजन का घोर विरोध किया, ‘‘मेरी पूरी आत्मा इस विचार के विरुद्ध विद्रोह करती है कि हिन्दू और मुसलमान दो विरोधी मत और संस्कृतियां हैं। ऐसे सिद्धांत का अनुमोदन करना मेरे लिए ईश्वर को नकारने के समान है।’’
मुस्लिम लीग और कांग्रेस में विचारधारा के मतभेद उभरने शुरू हो गये थे। 27 जुलाई, 1946 को मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लिया और 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ के रूप में मनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। इससे कलकत्ता में दंगा भड़क उठा, जिसमें लगभग 5000 लोग मारे गये तथा 15000 लोग घायल हुए। इस दंगे में लगभग 1 लाख लोग बेघर हो गये थे। बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, नोआखाली और उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत में भी भीषण साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इस दौरान वाइसराय वावेल ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया पूर्ण कर ली थी। अंतरिम सरकार का मुस्लिम लीग ने पहले तो बहिष्कार किया लेकिन बाद में फिर वह अपना कोटा मंत्रालयों में भरने के लिए तैयार हो गयी। इस प्रकार देश में साझा अंतरिम सरकार का गठन हो गया। बाद में मुस्लिम लीग ने सरकार की कार्यवाहियों में अनेक बाधाएं खड़ी करनी शुरू कर दीं। मुस्लिम लीग द्वारा लगातार बाधा उत्पन्न करने की स्थितियों से व्यथित होकर जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल यह सोचने के लिए विवश हो गये कि साझा अंतरिम सरकार से तो बेहतर होता कि विभाजन के लिए ही कार्यवाही की जाती। इस तरह विभाजन को वैकल्पिक रूप से सही मानना तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए विवशता बन गयी थी। लगातार भारत में अपने विरुद्ध बिगड़ती हुई परिस्थितियों को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ने का निर्णय ले लिया।
जून, 1948 सत्ता हस्तान्तरण की अवधि घोषित की गई थी किन्तु भारत के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच लगातार गहरे होते जा रहे मतभेदों के कारण अंततः समस्त परिस्थितियों पर विचार करते हुए, 3 जून, 1947 को लार्ड माउंटबेटन ने भारत के विभाजन की घोषणा कर दी। सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त, 1947 की तिथि घोषित की गई। सत्ता हस्तांतरण की तिथि पूर्व घोषित तिथि जून, 1948 से अगस्त, 1947 कर दिए जाने के कारण देश के सामने गम्भीर चुनौतियां उत्पन्न हो गयीं। क्योंकि भारत और पाकिस्तान के रूप में देश का विभाजन होने के कारण उत्पन्न होने वाली प्रशासनिक और कानून व्यवस्था सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए कोई पूर्व निश्चित योजना तैयार नहीं की गयी थी। स्वयं रेडक्लिफ ने लिखा, ‘‘जब मैं नक्शे पर विभाजन की लकीर खींच रहा था, तब मुझे पता नहीं था कि मेरी खींची लकीर किसी के घर के बीच से गुज़र रही है, आंगन के बीच से गुज़र रही है अथवा शयनकक्ष के बीच से गुज़र रही है। लकीर खींचते हुए मेरे हाथ कांप रहे थे।’’ भारत का विभाजन हो गया। देश का 30 प्रतिशत भाग कटकर पाकिस्तान नाम से एक अलग देश बन गया। ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’- की घोषणा करने वाले महात्मा गांधी असहाय से देखते रहे।
वस्तुतः देश के विभाजन के लिए कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि के लिए हम तत्कालीन भारतीय ही जिम्मेदार थे जो अंग्रेजों के बहकावे में आ गए और आपस में बैर मान बैठे। चौंकन्ने रहना होगा कि कहीं वही बैर एक बार फिर न जाग उठे।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 05.02.2020)
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