Tuesday, July 26, 2022

पुस्तक समीक्षा | ‘‘पांचवां स्तम्भ’’ : रिपोर्टिंग व्यंग्यों की पैनीधार और नवाचार | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 26.07.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा के  व्यंग्य संग्रह  "पांचवां स्तम्भ" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
‘‘पांचवां स्तम्भ’’ : रिपोर्टिंग व्यंग्यों की पैनीधार और नवाचार
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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व्यंग्य संग्रह     -  पांचवां स्तम्भ
लेखक         -  जयजीत ज्योति अकलेचा
प्रकाशक        -  मेंड्रेेक पब्लिकेशंस, ए-6, बीडीए काॅलोनी, कोहेफ़िज़ा, भोपाल, म.प्र. -462001
मूल्य           -  199/-  
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साहित्य जगत में यह बात पिछले कुछ अरसे से चिंता का विषय रही है कि हिन्दी व्यंग्य की धार भोथरी हो चली है अर्थात शरद जोशी या हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों जैसी मारक क्षमता गुम होती जा रही है। आज का अमूमन व्यंग्यकार बच-बच कर चलना चाहता है यानी व्यंग्यकार व्यंग तो करना चाहता है लेकिन खुलकर कहने से बचता भी है। बहुत कम व्यंग्यकार ऐसे हैं जो खुल कर तंज़ करने का साहस करते हैं। लेकिन हाल ही में प्रकाशित हुए ‘‘पांचवा स्तम्भ’’ ने एक झटके से इस निराशा को दूर कर दिया है। यह व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा का प्रथम व्यंग संग्रह है। आज व्यंग्य में जिस धार, जिस पैनेपन की जरूरत है उसे जयजीत के इस व्यंग्य संग्रह में देखा जा सकता है। वस्तुतः यह समूचा संग्रह व्यंग्य की तपिश भरी फुहारों से सराबोर है जिसका आगाज़ आभार के पृष्ठ से ही हो जाता है। फिर एक के बाद एक हर व्यंग्य विचारों को आंदोलित करता जाता है।
जयजीत ज्योति अकलेचा इब्ने इंसा के इस मशहूर कथन से अपने संग्रह की शुरूआत करते हैं कि ‘‘हमने इस किताब में कोई नई बात नहीं लिखी है। वैसे तो आजकल किसी भी किताब में कोई नई बात लिखने का रिवाज़ नहीं है।’’ इब्ने इंसा के इस कथन के जरिए जयजीत व्यंग्य कला की दशा-दिशा पर ज़ोरदार पहली थाप देते हैं। फिर अनुक्रम की औपचारिकता के बाद धमाका होता है ‘‘आभार एवं अपने मन की बात’’ का। एक बानगी आभार की -‘‘सबसे पहले तो आभार उन नेताओं का जिनकी वज़ह से इस धरती के कण-कण में विडंबनाओं के दर्शन इतने सुलभ हो जाते हैं कि एक आम लेखक भी व्यंग्यकार होने के आत्मगौरव से भर उठता है।’’ लेखक ने अफ़सरों और आमजनता का भी आभार माना है, जिसको स्वयं पढ़ने का अपना ही आनंद है।
ग़ज़ब का चुटीलापन है हर वाक्य में। कोई बनावट नहीं, कोई कलाकारी नहीं, आम बोलचाल की भाषा में आमजन के मन की बात। लेकिन आमजन को भी नहीं छोड़ा है लेखक ने। वे आमजन की कमियों और भीरुता की ओर तर्जनी उठाने से नहीं चूकते हैं। इस संग्रह के व्यंग्यों की सबसे बड़ी विशेषता है इसकी शैली। जयजीत ने अपने व्यंग्यों को रिर्पोंटिंग शैली में लिखा है। किसी भी विषय को खांटी पत्रकारिता की खुरदरी भावहीन ज़मीन से उठ कर रसात्मक व्यंग्यों में ढाल देना व्यंग्यकार जयजीत के लिए मानो बांए हाथ का खेल है। लेखक की इसी महारत पर टिप्पणी करते हुए आलोक पुराणिक ने लिखा है (जो कि पुस्तक के पिछले बाहरी पृष्ठ पर प्रकाशित है) कि ‘‘जयजीत अकलेचा उन बहुत कम व्यंग्यकारों में हैं, जिनके पास व्यंग्य के नए प्रयोगों की क्षमता, साहस और विवेक सब है। पांचवां स्तम्भ में जयजीत जो कुछ रचते हैं, उसका एक सिरा पत्रकारिता से तो दूसरा सिरा साहित्य से जुड़ता है।’’ आलोक पुराणिक ने जयजीत के इस तेवर को ‘‘नए प्रयोगों का साहस’’ कहा है।
‘‘पांचवां स्तम्भ’’ के समूचे व्यंग्य तीन भागों में विभक्त हैं- रिपोर्टिंग आधारित व्यंग्य, इंटरव्यूज़ आधारित व्यंग्य और सूत्र आधारित कुछ ख़बरी किस्से।  रिपोर्टिंग आधारित व्यंग्यों में ‘‘ख़बरदार! यहां डरना मना है’’, ‘‘सत्य उर्फ़ एलियन से सीधी भिडंत’’, ‘‘एक डंडे का फ़ासला’’, ‘‘काबुलीवाले के चंद सवाल’’, ‘‘निठल्ली संसद और बापू’’, ‘‘नो वन किल्ड कोविड पेशेंट’’ आदि जैसे अतिसंवदेनशील और तीखे व्यंग्य हैं। आमजन कदम-कदम पर डरता रहता है। उसके दिल में इतने गहरे तक डर समाया हुआ है कि वह उस डर से अब बाहर आना ही नहीं चाहता है। जब कोई नेता अपना बुलेटप्रुफ हटवा कर आतंकी जगह से गुजरते हुए कहता है कि यहां डरने की जरूरत नहीं है तो क्या सचमुच वह आत्मघाती निडरता का परिचय दे रहा होता है? क्या प्रशासनिक सुरक्षा व्यवस्था की अदृश्य दीवार उसके चारों ओर खड़ी नहीं रहती है? यह ऐसा प्रश्न है जो आमजन और उसके भीतर बैठे डर को व्याख्यायित करता है। सत्य आज फ़ालतू-सी ग़ैरज़रूरी वस्तु बन गया है और इसीलिए उसे किसी न किसी दांवपेंच के ज़रिए कूड़ादान में पहुंचा दिया जाता है। इसलिए लेखक को रिपोर्टिंग करते समय सत्य कूड़ादान में छिप कर समय बिताता मिलता है, किसी एलियन की तरह। ‘‘सत्य उर्फ़ एलियन से सीधी भिड़ंत’’ आज के समय में सत्य की इसी दुरावस्था से परिचित कराता है। ‘‘एक डंडे का फ़ासला’’ ज़बर्दस्त कटाक्ष है। व्यंग्यकार जयजीत ने जनतंत्र के बारे में लिखा है कि यूं तो जन और तंत्र हमेशा साथ रहते हैं लेकिन ‘‘जन और तंत्र के बीच एक बहुत बड़ा डैश है। सरकारी स्कूलों का मास्टर उसे समझाने के लिए डंडा कहता है। यही डंडा तंत्र के पास है, जन के पास नहीं। इसीलिए दोनों साथ-साथ रहते हुए भी साथ नहीं हैं। एक डंडे का फ़ासला है दोनों के बीच।’’ इस तरह जनतांत्रिक व्यवस्था में जन पर अव्यवस्थाओं एवं भ्रष्टाचार के बोलबाले पर गहरी चोट की है लेखक ने।
‘‘काबुलीवाले के चंद सवाल’’ अफ़गानिस्तान पर तालिबानों के कब्ज़े के संबंध में दुनियाभर के देशों के रवैये के साथ ही संयुक्तराष्ट्र संघ के रवैए का भी पर्दाफाश करता है। वहीं, ‘‘नो वन किल्ड कोविड पेशेंट’’ एक ऐसा व्यंग्य है जो मौत की बिसात पर राजनीति की घिनौनी बाज़ियों को अपने निशाने पर रखता है। मुद्दा है कि सरकार ने बयान ज़ारी किया था कि आॅक्सीजन के अभाव से एक भी कोरोना पेशेंट नहीं मरा। जिनकी मौत हुई, वे रेमडीसीवर इंजेक्शन न मिल पाने के कारण मरे। व्यंग्यकार जयजीत इस पर कटाक्ष करते हैं कि ‘‘सरकार ने संसद में बताया कि कोरोना की दूसरी लहर में कोई भी व्यक्ति आॅक्सीजन की कमी से नहीं मरा। मतलब? सरकार की मानें तो आज आॅक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा, कल इंजेक्शन की कमी से कोई नहीं मरेगा...। तो स्साला आदमी मरेगा कैसे? इस व्यंग्य के पीछे बस यही चिंता निहित थी।’’
‘‘इंटरव्यूज़’’ के खंड में रखे गए व्यंग्यों के बारे में शृरू में ही लिखा गया है कि ‘‘कुरेद-कुरेद कर व्यंग्य निकालने की क़वायद वैसे ही जैसे रिपोर्टर अपने हर इंटरव्यू में ब्रेकिंग न्यूज़ की जुगाड़ लगाने की कोशिश करता है।’’ ज़ाहिर है कि इसके बाद जो व्यंग्य मिलेंगे उनमें हर तरह के विषयों का तड़का मिलेगा। इस खंड के व्यंग्यों की शुरुआत होती है इंटरव्यू ‘‘बुलडोज़र महाराज से’’। इसमें रिपोर्टर बुलडोज़र से पूछता है कि वह ग़रीबों का घर ही क्यों गिराता है, अमीरों का घर क्यों नहीं? और बुलडोज़र कुशल राजनीतिज्ञ की भांति कहता है-‘‘नो काॅमेंट!’’
एक इंटरव्यू है ‘‘नीरो की ऐतिहासिक बंसी से’’। बेहद रोचक और उतना ही प्रहारक। इस खंड में सबसे दिलचस्प दो इंटरव्यूज़ हैं जिन्हें हर कांग्रेसी को पढ़ना चाहिए और आत्मावलोकन करना चाहिए। यदि कांग्रेसी इन व्यंग्यों को पढ़ लें तो उन्हें किसी चिंतन-शिविर में जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। पहला व्यंग्य है-‘‘इंटरव्यू...कांग्रेस से (पहली मुलाक़ात)’’। रिपोर्टर दिल्ली में 24 अकबर रोड पर टहलने निकल गया। वहां उसे अचानक एक भूतनुमा बुढ़िया दिखाई दी। रिपोर्टर ने उससे बातचीत शुरू की-‘‘जी, मैं रिपोर्टर...मैं भी सालों बाद इस खंडहर इमारत के सामने से गुज़र रहा था तो आप दिख गईं। पहले तो मैं डर गया कि आप कोई भूत-वूत तो नहीं। फिर आपके पैरों से कंफर्म किया कि आप भूत ना हैं। पर आप हैं कौन?’’
चर्चा आगे चलती है और वह बुढ़िया रिपोर्टर को बताती है कि ‘‘बेटा, अब मैं क्या परिचय दूं? परिचय के लिए कुछ बचा ही नहीं। फिर भी बता देती हूं, मैं कांग्रेस हूं...135 साल की बुढ़िया। इसलिए मैं खुद को भूत कह रही थी, अतीतवाला भूत।’’
इसी तरह धांसू है ‘‘इंटरव्यू ... कांग्रेस से (दूसरी मुलाक़ात)’’। जब रिपोर्टर एक राज्य में कांग्रेस के दो दिग्गज नेताओं की आपसी लड़ाई बारे में ‘‘कांग्रेस अम्मा’’ से चर्चा करता है तो वह कहती है कि ‘‘लड़ रहे हैं, यह क्या कम है? कांग्रेसियों को लड़ते हुए देखे तो जमाना हो गया।’’ लेखक ने यहां कांग्रेस की वर्तमान दशा पर कटाक्ष करते हुए एक मजबूत, दमदार विपक्ष की चाहत अप्रत्यक्ष रूप से रखी है जोकि लोकतांत्रिक प्रणाली को बनाए रखने के लिए बेहद ज़रूरी है।
संग्रह का तीसरा खंड ‘‘सूत्र आधारित कुछ ख़बरी किस्से’’। इसके आरंभ में ही लेखक की टीप है-‘‘सब के सब झूठे, जैसे अमूमन होते हैं... पर व्यंग्य सच्चा, जैसा कि इस किताब में दावा किया गया है।’’ इस हिस्से के कुछ व्यंग्यों के शीर्षक देखिए जिनसे इनकी वज़नदारी का अंदाज़ा हो जाएगा-‘‘जब अर्णब ने अपने पैनलिस्ट के लिए शुरू की ईएमआई स्कीम’’, ‘‘जब मुलायम ने रख दी थी इतनी कठोर शर्त, खुद भी पास नहीं हो पाए थे’’, ‘‘जब बेशर्म रोड ने पांच बार की बारिश के बाद भी उखड़ने से कर दिया मना’’,‘‘जब चीन ने भारत से मांगे थे केवल और केवल 1000 नेता’’ आदि और भी छोटे-छोटे व्यंग्य लेख इस खंड में हैं जो इस दोहा-पंक्ति को चरितार्थ करते हें कि -‘‘ देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’’।
पत्रकारिता जगत के जयजीत ज्योति अकलेचा ने अपना प्रथम व्यंग्य संग्रह ‘‘पांचवा स्तम्भ’’ के साथ हिन्दी साहित्य जगत में रिपोर्टिंग व्यंग्य के नवाचार को ले कर जिस तरह धमाकेदार प्रवेश किया है वह दूर तरह गहरा असर डालेगा। व्यंग्यों में सहज सम्प्रेषणीयता, भाषा का प्रवाह है ओर विषय की ताज़गी विचारों को झकझोरने में समर्थ है। जयजीत के व्यंग्य ठीक वैसे ही हैं जैसा कि पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था-‘‘व्यंग्य वह है, जहां अधरोष्ठों में हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बनाना हो जाता है।’’ यानी हर मानक पर खरे हैं ये व्यंग्य। लिहाज़ा यह व्यंग्य संग्रह निश्चित रूप से पढ़े जाने योग्य और मनन किए जाने योग्य है।
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