Tuesday, July 12, 2022

पुस्तक समीक्षा | जीवन के कठोर यथार्थ से चुना गया कथानक | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 12.07.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कथाकार राजनारायण बोहरे के  उपन्यास  "आड़ा वक़्त" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
जीवन के कठोर यथार्थ से चुना गया कथानक
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास       -  आड़ा वक़्त
लेखक         -  राजनारायण बोहरे
प्रकाशक        -  लिटिल बर्ड पब्लिकेशन, 4637/20, शाॅप नं. एफ-5, प्रथम तल, हरि सदन, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली-02
मूल्य           -  280/-  
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‘‘आड़ा वक़्त’’ वस्तुतः वह मुहावरा है जो जीवन की कठिनाइयों एवं विसंतियों की ओर संकेत करता है। यदि किसी का आड़ा वक़्त चल रहा है तो इसका आशय है कि वह मुसीबतों से घिरा हुआ है। एक किसान और एक ईमानदार आदमी हमेशा मुसीबतों से घिरा रहता है। किसी न किसी रूप में उसे आड़े वक़्त का सामना करना पड़ता है। ‘‘आड़ा वक़्त’’ यही नाम है इस बार के समीक्ष्य उपन्यास का। कथाकार राजनारायण बोहरे का उपन्यास ‘‘आड़ा वक़्त’’ खेती-किसानी के मूल कथानक से आरम्भ होता हुआ अनेक उपकथानकों से जुड़ता चला जाता है। उपन्यास के दो प्रमुख पात्र हैं- जुगल किशोर एवं स्वरूप। वे कृषक परिवार के हैं। जुगल किशोर बड़ा भाई है और स्वरूप छोटा भाई। स्वरूप अपने बड़े भाई का बहुत सम्मान करता है। वह उसे ‘दादा’ कह कर पुकारता है। दोनों की एक बहन भी है सुभद्रा। 
कहानी वहां से आरम्भ होती है जब अविभाजित मध्यप्रदेश में सागर जिले की बीना तहसील के बेरखेड़ी गांव के किसान का छोटा बेटा स्वरूप छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में लोकनिर्माण विभाग का ओवरसियर बन कर पदभार ग्रहण करने जाता है। उसे पहुंचाने उसके बड़े भाई यानी दादा भी जाते हैं। लेखक ने जशपुर के आसपास के क्षेत्र का वर्णन किया है। जिसमें सोन नदी की रेत छान कर सोना निकालने का अवैध रूप से काम करने वाले आदिवासियों और एशिया के सबसे बड़े चर्च माने जाने वाले कुनकुरी के चर्च का भी जिक्र किया है। स्वरूप और उसके दादा को वहां जा कर पता चलता है कि गांव के सामान्य आदिवासी सरकारी अधिकारियों से डरते हैं। वहां दादा को एक ऐसा किसान मिलता है जिसकी जमीन लोकनिर्माण विभाग के ओपन-स्टोर बनाए जाने के लिए अधिगृहीत की जाने वाली है। दादा को यह उचित नहीं लगता है और उनका कृषक मन जाग उठता है। वे स्वरूप से कहते हैं कि उस किसान की जमीन को बचा लो। अपनी नई-नई नौकरी में पुराने आदेश की अवहेलना करने से स्वरूप झिझकता है। वह अपने बड़े भाई को आदिवासियों के निरंतर संपर्क में आता देख कर चिंतित हो उठता है और उनकी वापसी की टिकट मंगवा लेता है। भरे मन से दादा स्वरूप को वहीं छोड़ कर वापस लौट जाते हैं।
यहां से कथानक दो धरातल पर चलता है जिसमें फ्लैशबैक भी शामिल है तथा वह घटनाक्रम भी जो जुगलकिशोर यानी दादा के जीवन में घटित हुआ था। पिता की बीमारी और अकाल की स्थिति के कारण जुगल किशोर को अकाल राहत केंद्र के जरिए सड़क निर्माण का काम करना पड़ा था। जहां हर तरह का भ्रष्टाचार चरम सीमा पर था। महिला मजदूरों का शोषण आम बात थी जो जुगलकिशोर बर्दाश्त नहीं कर सका और एक महिला मजदूर को बचाते हुए उसने राहत केंद्र का अपना काम छोड़ दिया। उधर दूसरे कालखण्ड में स्वरूप भ्रष्ट ठेकेदारों के साथ कड़ाई बरतते हुए अपनी नौकरी करता रहता है। इसी दौरान एक आदिवासी स्त्री बंशो सर्पदंश से उसके प्राण बचाती है। फिर वही बंशो रोजी-रोटी के लिए धर्म परिवर्तन करके इसाई बन जाती है। मिशनरी बंशो को पैसे देते हैं, नर्स की ट्रेनिंग देते हैं और एक अच्छे जीवन का रास्ता दिखाते हैं। लेखक प्रभावी ढंग से इस तथ्य को सामने नहीं रख सका है। किन्तु धर्मपरिवर्तन के मूल कारण की तरफ स्पष्ट संकेत किया है जो आदिवासी क्षेत्रों में धर्म परिवर्तन को प्रेरित करता है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो यह भूख और धर्म का समीकरण है। 
उपन्यास में कई संदर्भों में चारित्रिक दृश्य कंट्रास्ट हो कर सामने आया है। जैसे स्वरूप ठेकेदारों पर दबाव बनाए रखता है कि वे निर्माण कार्य में ईमानदारी बरते तथा वह रिश्वत भी नहीं लेता है। लेकिन सही काम करते हुए कोई उसे ‘‘भेंट’’ में रुपए देता है तो वह स्वीकार कर लेता है। दूसरा उदाहरण है कि स्वरूप अपने अथवा अपने पत्नी-बच्चों के लिए रुपए जोड़ने के बजाए ‘‘भेंट’’ के पूरे के पूरे रुपए अपने बड़े भाई के पास देता रहता है। साथ ही कहता है कि इसे देने के लिए मुझे साल में एक-दो बार स्वयं आना होगा। तीसरा और सबसे बड़ा कंट्रास्ट है स्वरूप के बड़े भाई जुगल किशोर यानी दादा के चरित्र में। पिता की मृत्यु के बाद स्वयं पढ़ने के बजाए अपने छोटे भाई स्वरूप को पढ़ता-लिखाता है। उस पर जान छिड़कता है। उसे पहली पोस्टिंग में स्वयं छत्तीसगढ़ के सुदूर गांव में स्वयं छोड़ने जाता है। वहां छोटे भाई को ‘‘अनजान लोगों के बीच’’ छोड़ कर लौटते समय उसका हृदय व्याकुलता से भर उठता है। लेकिन स्वरूप की मनचाही पोस्टिंग के लिए खेत का कुछ हिस्सा बेच कर रिश्वत देने की बात आती है तो वही जुगलकिशोर क्षेत्र के विधायक को साफ मना कर देता है। उसे लगता है कि खेती का कुछ हिस्सा बेचने से तो अच्छा है कि उसका छोटा भाई नक्सल प्रभावित क्षेत्र में ही रहे। जुगलकिशोर का कृषिभूमि का प्रेम यही नहीं ठहरता है अपितु आगे चल कर अतिरेक पर जा पहुंचता है। एक समय ऐसा आता है जब स्वरूप को किडनी के ईलाज के लिए रूपयों की जरूरत पड़ती है। स्वरूप के द्वारा भेजे गए रुपए जुगलकिशोर पहले ही उधार आदि में गवां चुका है अतः खेत बेच कर पैसे जुटाने की नौबत आती है। तब जुगलकिशोर मरणासन्न अपने लाड़ले छोटे भाई के प्राण बचाने के लिए भी खेत का हिस्सा बेचने से मना कर देता है। दोनों भाइयों के बीच वैमनस्यता के अभाव के बावजूद बड़े भाई का यह चरित्र उसे एक झटके में नायकत्व से खलनायकत्व में पहुंचा देता है, जो अटपटा लगता है। हां, यह जरूर है कि इस घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में किडनी फेल होने पर छोटे अस्पतालों के सीमित साधनों और एम्स तक जा कर ईलाज कराने की त्रासद अंतर्कथा है।
उपन्यास में किसान आंदोलन का भी विवरण है। किस तरह आंदोलन में दंगाई प्रवेश कर जाते हैं और आंदोलन का स्वरूप ही बदल जाता है, इस बिन्दु को भी रखा गया है। असमाजिक तत्वों की घुसपैंठ द्वारा किसान आंदोलन को समाप्त करने की साजिश को सहज ढंग से रखा गया है। लेखक ने कृषि से जुड़ी समस्याओं एवं किसानों के जीवन की कठिनाइयों को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया है। एक किसान को चौतरफा जूझना पड़ता है। खेती के लिए पैसे का जुगाड़, खड़ी फसल को पक्षियों से ले कर नीलगाय जैसे पशुओं से भी बचाना और उस पर सबसे बड़ा संकट है- कभी सड़क विस्तार तो कभी बांध निर्माण आदि के लिए सरकार द्वारा उनकी कृषि भूमि का अधिग्रहण कर लिया जाना। उपन्यास में अधिग्रहण से उत्पन्न विस्थापन का भी वर्णन है जो सहसा हरसूद का विस्थापन याद दिला देता है। यदि जुगलकिशोर के कृषि भूमि के प्रति अतिरेकपूर्ण प्रेम को छोड़ दिया जाए तो किसानों की दशा का विवरण इस उपन्यास का सबसे सशक्त पक्ष है। 
लेखक ने जिस प्रकार कृषक-जीवन को निकटता से दर्शाया है यदि उसी प्रकार छत्तीसगढ़ के नक्सलवाद का भी कुछ विवरण दिया होता तो उपन्यास की सार्थकता और बढ़ जाती। यह सर्वविदित है कि नक्सलप्रभावी क्षेत्रों में विकासकार्य कराने वाले सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियों को नक्सलियों से सबसे अधिक वास्ता पड़ता है। यद्यपि उपन्यास के आरम्भिक भाग में उस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य और हाट-बाज़ार की गहनता से चर्चा की गई है। यह भी कि वहां हाट बाज़ार में पैसों के बजाए वस्तु-विनिमय की प्रधानता रहती है।    
जहां तक उपन्यास की भाषा और शैली का प्रश्न है तो वह रोचक है। एकाध स्थान को छोड़ दिया जाए तो कथानक का प्रवाह कहीं भी बाधित नहीं हुआ है। आद्योपांत जिज्ञासा भरी रोचकता बनी रहती है। आम बोलचाल की हिन्दी के साथ ही बुंदेली का भी भरपूर प्रयोग है। दिलचस्प बात यह है कि बुंदेली बोली ही नहीं अपितु हिन्दी वाक्यों में बुंदेली व्याकरण का प्रयोग किया गया है। ‘‘साल’’(वर्ष) पुल्लिंग शब्द है किंतु बुंदेली में प्राय स्त्रीलिंग के रूप में प्रयोग किया जाता है और लेखक ने भी एक-दो स्थान पर ‘‘साल’’ शब्द का स्त्रीलिंग के रूप में प्रयोग किया है। जैसे- ‘‘पूरी साल निकल गई।;’’ स्वास्थ्य संबंधी विवरण में भी बुंदेली लहज़ा आया है जहां ‘पेशाब’ या ‘यूरिन’ के बदले ‘बाथरूम’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जैसे-‘‘शाम को डाॅक्टर आया तो उसने कहा कि इनके पेट में इनकी बाथरूम रुक रही है, अगर इनका डायालिसिस नहीं किया गया तो यह बहुत परेशान हो जाएंगे।’’ 
बहरहाल, उपन्यास रोचक है और इसके कथानक को जीवन के कठोर यथार्थ से चुना गया है। यह जीवन की अनेक विसंगतियों से परिचित कराने में सक्षम है और इस दृष्टि से पठनीय है।    
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