Thursday, July 7, 2022

चर्चा प्लस | 6 जुलाई जन्मदिन विशेष: चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो होने का अर्थ | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस : 6 जुलाई जन्मदिन विशेष:
चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो होने का अर्थ 
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           चीन आज दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिक शक्ति है लेकिन वह आज भी जिस व्यक्ति से घबराता है, वे हैं चौदहवें दलाईलामा तेनजिंग ग्यात्सो। चीन ने उन्हें डराने और चुप कराने का हर संभव प्रयास किया लेकिन दलाईलामा ने घुटने नहीं टेके। वे आज भी तिब्बत के भू-भाग को चीन से मुक्त कराने के लिए संघर्षरत हैं। 06 जुलाई 2022 को वे 87 वर्ष की आयु पर पहुंच गए हैं किन्तु उनका तेजस्वी चेहरा युवा-स्फूर्ति से दमकता रहता है। यही मानवतावाद की वह आंतरिक आभा है जो विश्व जनमत को जोड़ने में सक्षम है और उन्हें सच्चे अर्थों में दलाईलामा सिद्ध करती है।
लगभग दस वर्ष पूर्व टेलीविजन पर एक डाॅक्यूमेंट्री फिल्म देखी थी ‘‘दलाई लामा रेनासां’’। इसे बनाया था अमेरिकी डाॅक्यूमेंट्री प्रोड्यूसर कश्यार दारर्विच ने। सन् 2007 में बनी यह डाॅक्यूमेंट्री उस भेंट पर आधारित थी जो सन् 1999 में सिंथेसिस ग्रुप और दलाईलामा के बीच भारत के धर्मशाला नामक स्थान में हुई थी। इस डाॅक्यूमेंट्री ने 12 पुरस्कार जीते थे तथा 40 से अधिक अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसका आधिकारिक रूप से प्रदर्शन किया गया था। इससे पूर्व 1989 में दलाई लामा को विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया जा चुका था। इससे भी पहले उनकी पुस्तक ‘‘काइंडनेस, क्लेरिटी एंड इनसाइट’’ प्रकाशित हुई थी जिसने सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों का ध्यान दलाई लामा की ओर आकर्षित किया था। वस्तुतः वर्तमान अर्थात् चैदहवें दलाईलामा तेनजिन ग्यास्तो एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जो आध्यात्मिक गुरु होने के साथ ही दुनिया को शांतिपूर्ण राजनीति का मार्ग दिखा रहे हैं। वे एक ऐसे बौद्ध धर्मगुरु हैं जिन्हें भारत से निकलवाने के लिए चीन ने भारत पर नानाप्रकार से दबाव डाला किन्तु सफल नहीं हो सका। चीन आज दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिक शक्ति है लेकिन वह आज भी जिस व्यक्ति से घबराता है, वे हैं चैदहवें दलाईलामा तेनजिंग ग्यात्सो। चीन ने उन्हें डराने और चुप कराने का हर संभव प्रयास किया लेकिन दलाईलामा ने घुटने नहीं टेके। वे आज भी तिब्बत के भू-भाग को चीन से मुक्त कराने के लिए संघर्षरत हैं। 06 जुलाई 2022 को वे 87 वर्ष के हो गए हैं किन्तु उनका तेजस्वी चेहरा युवा-स्फूर्ति से दमकता रहता है। यही मानवतावाद की वह आंतरिक आभा है जो विश्व जनमत को जोड़ने में सक्षम है और उन्हें सच्चे अर्थों में दलाईलामा सिद्ध करती है।
वर्तमान दलाईलामा का पूरा नाम है जम्फेल नगवांग लोब्सेंग येशे तेनजिन ग्यास्तो। सन् 1935 की 6 जुलाई को उत्तर पूर्व तिब्बत में ताक्त्सेर गांव में पैदा हुए तेनजिन ग्यास्तो का जन्म ही मानो धर्मगुरु बनने के लिए हुआ था। ‘‘दलाईलामा’’ एक मंगोलियाई पदवी है जिसका अर्थ होता है ज्ञान का महासागर। उन्हें अवलोकेतेश्वर बुद्ध के गुणों से परिपूर्ण माना जाता है। वस्तुतः दलाईलामा तिब्बतियों के सबसे बड़े और सर्वमान्य धर्मगुरु की पदवी है जिन्हें एक समय तिब्बत में राष्ट्राध्यक्ष जैसा गौरव प्राप्त था। चीन द्वारा सन् 1959 में तिब्बत का भू-भाग हथिया लिए जाने के बाद दलाई लामा ने भारत शरण ली। भारत सरकार ने भी उन्हें ससम्मान स्वीकार किया।
दलाईलामा का पद 14 वीं शताब्दी से चला आ रहा है। 17वीं शताब्दी से दलाई लामा ने राजनैतिक दायित्वों को भी स्वीकार किया। तात्कालीन दलाईलामा 14वें दलाईलामा हैं। इनसे पूर्व 13 दलाईलामा तिब्बती समुदाय का नेतृत्व कर चुके हैं। तिब्बतियों का विश्वास है कि जब भी किसी दलाईलामा की मृत्यु होती हैं तो तुरंत ही तिब्बत में कही और दलाई लामा का जन्म हो जाता हैं। अर्थात दलाईलामा की आत्मा वही होती हैं जो पहले लामा की रही हैं, आत्मा नष्ट नहीं होती, ये अमर हैं और शरीर बदलती रहती हैं।
13वें दलाई लामा का सन 1933 को देहांत हो गया था। उनके देहांत के समय अगले दलाई लामा को खोजने की प्रक्रिया आरम्भ हो गई। अंततः नए दलाई लामा के तिब्बत के उत्तरी पूर्वी भाग में होने का आभास हुआ और ये प्रतीत हुआ कि दलाई लामा मठ के पास किसी अजीब सी जगह पर रह रहे हैं। बहुत मठ के बौद्ध भिक्षु उन्हें ढूंढने निकल पड़े। वे एक छोटे से गांव ताक्त्सेर पहुंचे जहां उन्हें ल्हामो धोंडअप  का घर मिला। धोंडअप किसान थे और भेड़-बकरियां चराकर अपना गुजारा करते थे, वो बाजरा, आलू और अनाज की खेती करते थे। ल्हामो के अतिरिक्त उनके परिवार में 6 अन्य बच्चे भी थे जिनमें 4 लड़के और 2 लड़कियां शामिल थी। वहां उन्होंने ल्हामो के माता-पिता से चर्चा की और ल्हामो की परीक्षा ली। बौद्ध अपने साथ मठ से बहुत तरह की वस्तुएं लाये थे जिनमें कुछ तो 13 वे दलाई लामा की वस्तुएं थी। मात्र 2 वर्षीय ल्हामो ने 13 वे दलाई लामा की वस्तुओं को पहचान लिया और बौद्ध भिक्षुओं को समझ आ गया कि उन्हें उनका अगला दलाई लामा मिल गया हैं, इस तरह 13 वे दलाई लामा थुबटेन ग्यास्तो के बाद अगले दलाई लामा की खोजने की प्रक्रिया समाप्त हुई।
बौद्ध ल्हामो को तिब्बत के कुम्बुम के मठ में लेकर आए जहां अगले 2 वर्ष तक उस बालक को आवश्यक आरंभिक शिक्षा दी गई। इसके बाद उन्हें तिब्बत की राजधानी ल्हासा के पोटाला पैलेस लाया गया। पोटाला पैलेस पहाड़ों में स्थित एक हजार से ज्यादा कमरों का बना महल था। 22 फरवरी 1940 को जब वो केवल 4 वर्ष के थे तब भिक्षुओं ने उन्हें नया दलाई लामा घोषित किया और उनका नया नाम जम्फेल नगवांग लोब्सेंग येशे तेनजिन ग्यास्तो रखा गया। इसमें उनका छोटा नाम “तेनजिन ग्यास्तो” ही अधिक प्रचलित हुआ।
        पोटाला पैलेस में भिक्षुओं ने लामा लगभग हर विषय की शिक्षा दी गई। दलाईलामा तेनजिन ग्यास्तो को अध्ययन में स्वयं भी बहुत रुचि थी। उन्होंने इतिहास, धर्म, दर्शन, औषधि, ज्योतिष विज्ञान, नाटक, कला, संगीत, साहित्य आदि विविध विषयों का अध्ययन किया। दलाई लामा की औपचारिक शिक्षा 6 वर्ष की आयु में शुरू हुई थी। दलाई लामा को यांत्रिकी वस्तुएं काफी पसंद थी, उन्होंने टेलिस्कोप से दूर के दृश्य देखना बहुत भाता था। उन्हें घड़ियां और अन्य मशीनी उपकरण खोलकर फिर से सही करना अच्छा लगता था। उस समय पूरे तिब्बत मे केवल चार कार थी जिनमे से 3 कार 13वें दलाई लामा की थी, तेनजिन ग्यास्तो को इंजन के साथ काम करना और कार चलाना बेहद पसंद था। लगभग 23 की उम्र में उन्होंने ल्हासा के जोखन मंदिर में वार्षिक महान प्रार्थना के उत्सव में अंतिम परीक्षा दी  जिसमें वो ऑनर्स के साथ पास हुए और उन्हें ‘‘गेशे ल्हारम्पा’’ की उपाधि प्रदान की गई जो कि बुद्धिस्ट समुदाय में सबसे ऊंची उपाधि होती है।
नवम्बर 1950 में दलाई लामा को तिब्बत में राजनैतिक अधिकार मिले। उस समय चीनी कम्युनिस्ट आर्मी ने देश में बलात प्रवेश कर चुकी थी। उस समय दलाई लामा मात्र 15 वर्ष के थे और तिब्बत पर आई इस विपदा को रोकने का उन्होंने प्रयास किया। सन् 1950 में तिब्बत में चीन की घुसपैठ के बाद उन्हें न चाहते हुए भी राजनीति में आना पड़ा, लेकिन इससे पहले 1949 में द्वितीय विश्व युद्ध की हार के बाद से चीन एक कम्युनिस्ट देश बन गया था और 1950 के प्रारंभ में उसने लगभग 80 हजार चीनी सैनिकों को तिब्बत में भेज कर अपना दावा भी किया। दलाईलामा ने आतचीत करके याांति का मार्ग ढूंढने का प्रयास किया और चीन का दौरा कर के वहां के प्रशासन से तिब्बत छोड़ने का आग्रह किया। किन्तु चीन नहीं माना। दलाईलामा सन् 1954 में एक बार फिर बीजिंग गए। वहां उन्होंने माओ जेडोंग, देंग जिओपिंग और चै एनलाई जैसे अन्य चीनी नेताओं से बात की। लेकिन कोई सार्थक हल नहीं निकला। तिब्बत पर चीन के अत्याचार दिन प्रति दिन बढ़ते गए। एक समय ऐसा आया कि दलाईलामा के शिष्यों को लगा कि यदि दलाईलामा वहीं रहेंगे तो उन्हें चीन मरवा सकता है अतः उनके भारत जाने का प्रबंध किया गया। अप्रैल 1959 में दलाईलामा भारत के लिए रवाना हो गए। चीन की दृष्टि से बच कर निकलना आसान नहीं था किन्तु उनके अनुयायियों ने उनका साथ दिया और उन्हें सुरक्षित भारत पहुंचने में मदद की।
भारत में रहते हुए अपने निर्वासन के दौरान तिब्बत के लिए दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में आवाज उठाई। जनरल असेम्बली ने तिब्बत में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव दिए। 21 सितम्बर 1987 को संयुक्त राष्ट्रसंघ कांग्रेस में अपने भाषण के दौरान दलाई लामा ने तिब्बत के लिए 5 सूत्रीय शांति प्रस्ताव रखा- (1) समूचे तिब्बत को शांति क्षेत्र में परिवर्तित किया जाए। (2) चीन उस जनसंख्या स्थानान्तरण नीति का परित्याग करे जिसके द्वारा तिब्बती लोगों के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो रहा है। (3) तिब्बती लोगों के बुनियादी मानवाधिकार और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए। (4) तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण व पुनरूद्धार किया जाए और तिब्बत को नाभिकीय हथियारों के निर्माण व नाभिकीय कचरे के निस्तारण स्थल के रूप में उपयोग करने की चीन की नीति पर रोक लगे। (5) तिब्बत की भविष्य की स्थिति और तिब्बत व चीनी लोगों के सम्बंधो के बारे में गंभीर बातचीत शुरू की जाए।
15 जून 1988 को स्ट्रासबर्ग में यूरोपियन पार्लियामेंट के सदस्यों को संबोधित करते हुए उन्होंने अपने पांच सूत्रिय शान्ति प्रस्ताव को फिर से समझाया था। उन्होंने चीन और तिब्बत के मध्य वार्ता का प्रस्ताव रखा था जिससे तिब्बत के तीनों प्रोविंसेज में डेमोक्रेटिक पोलिटिकल पार्टी का शासन हो सके। यह रिपब्लिक ऑफ चायना के लोगों की सहायता से सम्भव हैं और यहां पर चीन की सरकार विदेश नीति और रक्षा के लिए जिम्मेदार होगी। मई 1990 में दलाई लामा के सुधार कार्यों के लिए तिब्बत का निष्कासन पूरी तरह से लोकतान्त्रिक हो गया, तिब्बत का मंत्रिमंडल (कशाग) जो कि तब तक दलाई लामा द्वारा नियुक्त था, उन्हें भी तिब्बत से निष्कासन में पार्लियामेंट में शामिल कर लिया गया। उसी वर्ष भारत और 33 से अधिक देशों में रह रहे निष्कासित तिब्बतियों ने ग्यारहवीं तिब्बत असेम्बली के लिए एक व्यक्ति-एक वोट के आधार पर चुना, और इस असेम्बली ने नए कैबिनेट के लिए सदस्य चुने।
1992 में सेंट्रल तिब्बत एडमिनीस्ट्रेशन ने भविष्य के स्वतंत्र तिब्बत के लिए गाइडलाइन प्रकाशित की हैं, जिसमें स्पष्ट कहा गया हैं कि तिब्बत के स्वतंत्र होते ही पहला कार्य अंतरिम सरकार बनाना होगा जिसकी जिम्मेदारी होगी कि वो संविधान सभा बनाये और देश में लोकतंत्र एवं संविधान बनाये, दलाई लामा ने ये आशा जताई हैं कि भविष्य के तिब्बत में तीन पारम्परिक प्रोविंस होंगे यु-संग , आमदो  और खाम  जिनमे संघीय और लोकतांत्रिक प्रशासनिक व्यवस्था होगी। दलाईलामा के इन शांतिपूर्ण प्रयासों को देखते हुए उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
दलाईलामा के व्यक्तित्व पर अनेक किताबें लिखी जा चुकी हैं, कई फिल्में बन चुकी हैं और अनेक राष्ट्राध्यक्ष उनसे भेंट कर चुके है। आज 87 वर्ष की आयु में भी वे तिब्बत की स्वतंत्रता का स्वप्न अपनी आंखों में सहेजे हुए हैं। उन्हें विश्वास है कि उनका यह सपना एक दिन अवश्य पूरा होगा। वस्तुतः वर्तमान दलाई लामा होने का अर्थ है तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए अनवरत संघर्ष और अपने लोगों में आशा और उत्साह का निरंतर संचार।
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