संस्मरण
पढ़ाई का भंवरजाल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
बचपन से ही मैं पढ़ाई में अच्छी रही। फिर भी समूचे स्कूली जीवनकाल में पांच बार मुझे सज़ा मिली, वह भी मात्र दो विषयों में। उस जमाने में जब मुझे सज़ा मिली थी, तब भी मुझे लगा था कि मुझे ग़लत सज़ा दी जा रही है और आज मैं जब उन घटनाओं के बारे में सोचती हूं तो मुझे और अधिक विश्वास हो जाता है कि मुझे ग़लत सज़ा दी गई थी। उन सज़ाओं के पीछे दोष मेरा नहीं बल्कि एक मामले में शिक्षक की शिक्षण शैली का दोष था तो दूसरे मामले में शिक्षक की धन-लिप्सा का दोष था।
चलिए विस्तार से बताती हूं। बात उन दिनों की है, जब मैं आठवीं कक्षा की छात्रा थी। उन दिनों आठवीं कक्षा तक संस्कृत एक अनिवार्य विषय के रूप में था। संस्कृत की मेरी जो शिक्षिका थीं वे महाराष्ट्रीयन थीं। संस्कृत पर उनकी बड़ी अच्छी पकड़ थी। मां उनकी बहुत तारीफ करती थीं। लेकिन उनकी शिक्षण शैली बहुत भयानक थी। किसी भी भाषा को कभी रट कर नहीं सीखा जा सकता है। लेकिन वे संस्कृत के श्लोक रट कर आने को कहती थीं, साथ ही रूप, धातु आदि भी रटने का होमवर्क दिया करती थी। यानी रामौ, रामा, रामाभ्याम.. हमें रट कर स्कूल पहुंचना पड़ता था। फिर जब मेडम कक्षा में आतीं तो एक-एक छात्रा को खड़ी कर के उनसे रूप, धातु आदि सुनाने को कहतीं। जिन छात्राओं की स्मरण शक्ति तेज थी, वे धाराप्रवाह सब कुछ सुना दिया करती थीं लेकिन मेरी जैसी छात्राएं जो किसी भी विषय को बिना समझे याद रख पाने में कच्ची थीं, गड़बड़ा जातीं। जो भी रूप और धातु सुनाने में अटक जाता उसको खड़े रहने की सज़ा मिलती। मैं भी सुनाते-सुनाते भूल जाती थी लिहाज़ा मुझे भी कुल 4 बार सज़ा भुगतनी पड़ी। यह मेरे लिए दुखद था। क्योंकि मेरी समस्या सज़ा पाकर ख़त्म हो जाने वाली नहीं थी। मैं उसी स्कूल में पढ़ रही थी, जहां मां व्याख्याता थीं। संस्कृत वाली टीचर मुझे तो सज़ा देतीं ही और कक्षा के बाद जाकर मां से शिक़ायत कर देती थीं कि - आपकी लड़की का मन नहीं लगता है पढ़ने में। आज भी वह धातु याद करके नहीं आई, आदि-आदि। सो, मुझे कक्षा में तो सज़ा मिलती ही, साथ ही घर में भी डांट खाने की नौबत आ जाती।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मुझे संस्कृत भाषा से चिढ़ होने लगी और मैं इस बात की प्रतीक्षा करने लगी कि कब आठवीं कक्षा पास कर लूं और इस संस्कृत भाषा से मेरा पीछा छूट जाए। नौवीं कक्षा से संस्कृत और अंग्रेजी दो ऐच्छिक (ऑप्शनल) विषय थे, इनमें से कोई भी एक चुना जा सकता था। ज़ाहिर है कि नौवीं कक्षा में पहुंचते ही मैंने संस्कृत को अलविदा कह दिया। इसके कई वर्षों बाद जब मैं प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय में एम.ए. कर रही थी तब मुझे पालि और संस्कृत भाषाओं के प्राचीन लेखों को पढ़ने की आवश्यकता पड़ी। तब मैंने संस्कृत के व्याकरण को समझने का प्रयास किया। मुझे महसूस हुआ कि यह भाषा न तो बहुत कठिन है और न भयानक है जैसी कि मुझे स्कूल के जमाने में लगी थी। यदि इसके व्याकरण को उस जमाने में समझा-समझा कर पढ़ाया गया होता तो मुझे संस्कृत से पहले ही प्रेम हो गया होता। यद्यपि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि मैं आज संस्कृत में पारंगत हो गई हूं लेकिन आज मेरे मन में संस्कृत के प्रति चिढ़ नहीं बल्कि बहुत सम्मान है।
स्कूल में सज़ा पाने की दूसरी घटना है उस समय की, जब मैं अपने मामा जी कमल सिंह चौहान के पास तत्कालीन शहडोल जिले के कोल माइंस एरिया बिजुरी के सरकारी स्कूल में 11वीं कक्षा के छात्रा थी। मेरी त्रासदी यह थी कि इस स्कूल में मामा जी व्याख्याता थे। यानी जो शिक़ायत के ख़तरे पन्ना में मेरे लिए थे वही ख़तरे बिजुरी में भी थे। अतः मैं मन लगाकर पढ़ाई करती और ऐसा अवसर नहीं आने देती कि मेरे टीचर को मेरी शिक़ायत करने का मौका मिले। चूंकि मेरी वर्षा दीदी बायो ग्रुप से पढ़ रही थीं इसलिए मैंने भी जोश में आकर बायो ग्रुप ले रखा था, जिसमें बॉटनी, जूलॉजी, केमिस्ट्री, फिजिक्स के साथ अंग्रेजी और हिंदी भाषाएं हुआ करती थीं। हम लोगों के केमिस्ट्री वाले टीचर केमिस्ट्री के बहुत अच्छे जानकार थे लेकिन अफ़सोस कि वे धनलिप्सा से पीड़ित थे। उन दिनों कोचिंग सेंटर्स नहीं होते थे बल्कि शिक्षक घर पर ट्यूशन पढ़ाते थे। देखा जाए तो यह कोचिंग सेंटर का आरंभिक संस्करण था। केमिस्ट्री वाले सर चाहते थे कि मैं भी उनके घर ट्यूशन के लिए पहुंचा करूं, जबकि मुझे ट्यूशन पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मुझे स्वाध्याय अच्छा लगता था। विषय को समझने और याद रखने का मैंने अपना मौलिक तरीका ढूंढ निकाला था। मैं केमिस्ट्री के फार्मूले भी लिख-लिख कर याद करती थी। इससे होता है यह था कि जब मुझे कोई फार्मूला भूलने लगता था तो मैं उस लिखे हुए कागज का ध्यान करती थी और मुझे वह लिखावट याद आ जाती, जिससे पूरा फार्मूला याद आ जाता था। मेरा यह तरीक़ा सिर्फ केमिस्ट्री के लिए नहीं बल्कि सभी विषयों पर कारगर था। मैंने इसी तरह से इतिहास की तारीखों को भी क्रमबद्ध तरीके से याद रखा और वे तारीखें आज भी मुझे अच्छी तरह याद है। जबकि इतिहास के लिए यह माना जाता है कि- रात भर पढ़ा और सवेरे सफा।
तो मैं बता रही थी कि उन केमिस्ट्री वाले टीचर ने पहले तो कक्षा में मुझे डांटना शुरू किया और फिर बात-बात में इस बात का सुझाव देने लगे कि तुम्हें ट्यूशन की जरूरत है। तुम अगर ट्यूशन नहीं पढ़ोगी तो फेल हो जाओगी। उस पर प्रैक्टिकल में भी बहुत बुरे नंबर आएंगे ।जब उन्होंने देखा कि उनकी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ रहा है तो एक दिन उन्होंने मुझसे एक फार्मूला पूछा। चूंकि उसके पिछले दिन में स्कूल नहीं गई थी इसलिए मुझे पता नहीं था कि उस दिन वह फार्मूला याद करके कक्षा में सुनाना है। यदि मुझे पता होता तो मैं निश्चित रूप से याद करके पहुंचती। दुर्भाग्य से उस कक्षा में साइंस के कुल 7 विद्यार्थी थे जिसमें 6 लड़के थे और मैं अकेली छात्रा थी अतः मेरे कोई सहेली भी नहीं थी जो मुझे इस होमवर्क के बारे में बताती। सर तो मानो बहाना ही ढूंढ रहे थे। उन्होंने मुझसे फर्मूला पूछा। मैं नहीं बता सकी। यद्यपि मैंने उनसे कहा कि मुझे नहीं मालूम था क्योंकि मैं कल स्कूल नहीं आई थी। मेरी बात सुनकर सर बिगड़ उठे और अपना गुस्सा प्रकट करते हुए मुझसे कहने लगे कि- अगर तुम ट्यूशन में आती होतीं तो तुम्हें पता रहता कि क्या होमवर्क दिया गया है? अब चलो, अपना हाथ आगे करो! मैंने डरते- डरते अपना दायां हाथ आगे कर दिया। सर ने स्केल से मेरी हथेली पर प्रहार किया। चोट लगने का दर्द इतना अधिक नहीं था जितना कि गलत सज़ा मिलने का दर्द था। मेरी आंखों में आंसू आ गए। यद्यपि मैं रोई नहीं। क्योंकि मैं लड़कों के सामने रोना नहीं चाहती थी। लेकिन मैं इस बात से डर गई कि यदि केमिस्ट्री वाले सर इसी तरह नाराज़ रहे तो निश्चित रूप से प्रैक्टिकल में मेरे नंबर काट लेंगे या शायद मुझे फेल ही कर दें। अतः घर लौटने पर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने मामा जी को सारी बात बताई। तब मामा जी ने केमिस्ट्री वाले सर से चर्चा की और उन्हें स्पष्ट शब्दों में समझा दिया कि मेरी भांजी आपके पास ट्यूशन पढ़ने अगर नहीं आना चाहती है तो वह नहीं आएगी और इसके बदले आप उसे किसी प्रकार की सज़ा देने के बारे में सोचिएगा भी नहीं। हां, यदि वह पढ़ने में गड़बड़ी करें तो भले दंडित करिए लेकिन ट्यूशन के नाम पर दंड देने का विचार मन में मत लाइएगा।
केमिस्ट्री वाले सर मामा जी की बात समझ गए और इसके बाद उनका मेरे प्रति रवैया सुधर गया। लेकिन इस घटना से हुआ यह कि मुझे साइंस के शिक्षकों से ही नफ़रत होने लगी। मुझे लगा कि ये लोग ट्यूशन और प्रैक्टिकल के नंबरों के नाम पर छात्रों पर अनावश्यक दबाव डालते हैं अतः 11वीं बोर्ड की कक्षा के बाद कॉलेज में दाखिला लेने के समय मैंने अपनी फैकल्टी ही बदल ली। मैं साइंस स्टूडेंट से आर्ट स्टूडेंट बन गई। यद्यपि इसके पीछे एक कारण और भी था जो ज़रा हास्यास्पद था, जिसकी चर्चा फिर कभी करूंगी लेकिन यदि साइंस के शिक्षकों का ट्यूशन और प्रैक्टिकल वाला दबाव न होता तो शायद मैं साइंस छोड़ने पर विचार न करती।
यह कहा जाता है कि गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है लेकिन गुरु विद्वान होते हुए भी यदि उचित शिक्षण पद्धति काम में न लाएं तब भी ज्ञान प्राप्त करना मुश्क़िल होता है और इसका जीता-जागता अनुभव मेरा स्वयं का रहा है। काश! उस संस्कृत टीचर ने सही ढंग से संस्कृत पढ़ाई होती, काश! उस केमिस्ट्री टीचर ने लालच किए बिना केमिस्ट्री पढ़ाई होती है तो मैं इन दोनों विषयों से मुंह न मोड़ती। यह शिक्षक ही होता है जो शिक्षा को रोचक और उपयोगी बना सकता है अथवा उसे भंवर जाल में तब्दील कर सकता है।
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नवभारत | 24.07.2022
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