नवभारत मेंं 03.07.2022 को प्रकाशित/हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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संस्मरण
कहानियों की कहानी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
मुझे एक कथा लेखिका बनना ही था। अच्छी, बुरी, छोटी, बड़ी कैसी भी, लेकिन कहानियां तो मुझे लिखनी ही थीं। मेरे बचपन से ही कहानियां मेरे जीवन में रच-बस गई थीं। मुझे सबसे अधिक कहानियां सुनने को मिलीं अपने नाना संत श्यामचरण सिंह जी से। उनके पास कहानियों का अगाध भंडार था। लगभग रोज रात को मैं और मेरी वर्षा दीदी नाना जी के बिस्तर पर जा बैठते और उनसे कहानी सुनाने का आग्रह करते। उन्होंने जो कहानियां सुनाईं उनमें से अधिकांश वे प्रसिद्ध कथाएं थीं जो स्कूली जीवन में मैंने कथा-पुस्तक के रूप में पढ़ीं। जैसे- अरेबियन नाईट्स की कहानियां, सिंहासन बत्तीसी, सिंदबाद के साहसिक कारनामे, हातिमताई के किस्से आदि। इसके अलावा महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, राजाराम मोहन राय आदि की जीवनियां भी नाना जी हमें सुनाया करते थे। उन्हें अनेक लोककथाएं भी मालूम थीं। लेकिन वे अधिकतर छत्तीसगढ़ी लोककथाएं सुनाया करते थे। शायद इसलिए कि छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि रही और वहां के लोक जीवन से उन्हें अगाध लगाव था।
मेरे कमल मामा भी कहानियां सुनाने में माहिर थे। उनकी कहानियों के पात्र प्रायः शेर, भालू, सियार आदि वन्यपशु होते थे। ‘‘रंगा सियार’’ की प्रसिद्ध कथा सबसे पहले कमल मामा ने ही मुझे सुनाई थी। इनमें से कई ‘‘पंचतंत्र’’ की कहानियां होती थीं। नानाजी और मामाजी से हम दोनों बहनों ने खूब कहानियां सुनीं। मेरी तो यह दशा थी कि मुझे कहानी सुने बिना नींद नहीं आती थी और कई बार कहानी सुनते-सुनते सो जाने कि कारण कहानी का अंत का पता नहीं चल पाता था जिससे दूसरे दिन मैं फिर उसी कहानी को सुनाने की जिद करती। इन कहानियों ने मुझे कल्पनालोक में विचरण करने का भरपूर अवसर दिया। न जाने कितनी बार मैं सिंदबाद के साथ साहसिक यात्राओं पर गई। मुझे आज भी याद है कि सिंदबाद की एक कहानी में कुछ इस प्रकार की घटना थी कि सिंदबाद अपने जहाजियों सहित समुद्र की यात्रा कर रहा था। महीनों बीत गए थे लेकिन उन्हें कोई टापू दिखाई नहीं दिया था। अंततः उन्हें एक छोटा-सा टापू दिखाई दिया और जहाजी खुशी से उछल पड़े। सिंदबाद को उस टापू पर शंका हुई कि यह समुद्र के बीचोबीच कहां से आ गया? लेकिन उसके साथियों ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया और वे टापू पर उतर गए। वह टापू चटियल और चिकना था। फिर भी जहाजियों ने उस पर टहलना और खाना पकाना शुरू कर दिया। कुछ देर बाद अचानक वह टापू हिल उठा। सभी जहाजी इधर-उधर गिरने लगे। कुछ तो समुद्र में ही जा गिरे। वे सम्हल पाते इससे पहले ही वह टापू जोर से गोल घूमा और बड़ा-सा भंवर बनाता हुआ समुद्र में समा गया। उस भंवर से सिंदबाद का जहाज डगमगा गया और पलट गया। सिंदबाद का एक और एडवेंचर। सिंदबाद समझ गया कि वह टापू नहीं एक बड़ी व्हेल मछली थी जो पानी की सतह पर आराम कर रही थी और उसकी पीठ पर जहाजियों के द्वारा खाना पकाने से उसे आंच लगी जिससे वह विचलित हो गई और गहरे पानी में चली गई। उन दिनों व्हेल मछली को हमने मात्र चित्रों में देखा था। उन दिनों डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफी या बीबीसी अर्थ जैसे टीवी चैनल तो हुआ नहीं करते थे कि हम व्हेल को देख पाते। उस समय तक बस छोटी-छोटी मछलियां देखी थीं वह भी मेरे पन्ना शहर के छत्रसाल ग्राउंड में लगने वाले वार्षिक मेले में। उन्हीं नन्हीं मछलियों के आधार पर बड़ी-सी व्हेल की कल्पना करना मुझे बहुत अच्छा लगता था। एक इतनी बड़ी मछली कि जिसकी पीठ पर जहाजी टहल सकें और खाना पका सकें। मेरे लिए भी सिंदबाद की तरह रोमांचकारी रहता था। आज भी जब टीवी चैनल्स में व्हेल को पानी की सतह पर छपाके मारते और गहरे भंवर बनाते देखती हूं तो यह कहानी मेरे मानस में ताज़ा हो जाती है।
मामाजी के नौकरी पर बाहर चले जाने के बाद उनके बदले कहानी सुनाने का जिम्मा वर्षा दीदी ने उठा लिया। वे ग़ज़ब की स्टोरी-टेलर थीं। उनकी विशेषता यह थी कि वे कहानियां मन से बना-बना कर सुनाती थीं। न जाने कितनी कहानियां उन्होंने मुझे सुनाईं। इस लिहाज़ से उन्हें कथालेखिका बनना चाहिए था। लेकिन शायद भीतर से वे मेरी अपेक्षा अधिक भावुक थीं, इसीलिए उन्होंने आगे चल कर ग़ज़ल ओर अपनी प्रतिभा मोड़ दी। जबकि मैं कथा संसार में रमी रही।
मुझे कहानियां सुनाने का श्रेय सिर्फ नानाजी, मामाजी और वर्षा दीदी को ही नहीं है, मेरे घर खाना पकाने वाली महाराजिन जिन्हें हम ‘‘बऊ’’ कह कर पुकारते थे, उन्हें भी हैं। जब हम रात्रि का भोजन करने रसोईघर में चूल्हे के पास जा बैठते, तब उनसे कहानी सुनाने का आग्रह करते और वे थोड़ी व्यस्तता का बहाना करने के बाद कहानी सुनाना शुरू कर देतीं। यह नखरे दिखाना उनकी स्टाईल में शामिल था ताकि उनकी महत्ता बनी रहे। जबकि उनकी कहानियां हमारे लिए तो महत्वपूर्ण रहती ही थीं। उनकी कहानियों में भूत-प्रेत, भगवान के चमत्कार आदि भी शामिल रहते थे। लेकिन वे डरावनी नहीं होती थीं। उनकी एक कहानी का पात्र मैं कभी भूल नहीं सकती हूं, वह पात्र था ‘‘मजरसेठ’’। इस पात्र की कई कहानियां उन्होंने हमें सुनाई और यह भी बताया कि वे मजरसेठ के घर पर भी खाना पकाने का काम कर चुकी हैं। उनकी इस बात ने हमें बहुत प्रभावित किया। एक दिन किसी चर्चा के दौरान मैंने मां से पूछ लिया कि ये मजरसेठ कहां रहते हैं? उनकी दूकान कहां पर है जहां बैठ कर वे न्याय करते हैं। मां को पहले तो कुछ पल मेरा प्रश्न समझ में नहीं आया लेकिन जब समझ में आया तो वे खूब हंसी। उन्होंने बताया कि वह मजरसेठ नहीं ‘‘मजिस्ट्रेट’’ है। उसकी कोई दूकान नहीं है, वे तो अपनी अदालत में बैठ का फैसला सुनाते हैं। यह जानने के बाद भला मैं कैसे भूल सकती थी इस पात्र को? आज भी मजिस्ट्रेट शब्द सुनते ही मजरसेठ याद आ जाता है।
लिखना-पढ़ना सीख जाने पर मैंने अखबारों में पहले मां की रचनाएं पढ़नी शुरू कीं। फिर दीदी की रचनाएं पढ़ने को मिलने लगीं। जाहिर है कि मेरे मन में भी लिखने और छपने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। मैंने पहली कहानी जो कि बच्चों के काॅलम के लिए लिखी थी, मां और दीदी से छिपा कर चुपचाप पोस्ट कर दी। कहानी को लिखने से कहीं अधिक मुझे यह पता लगाने की मेहनत करना पड़ी कि मां और दीदी अपनी रचनाएं कैसे भेजती हैं। उन दिनों डाक से ही रचनाएं भेजी जाती थीं। एक लिफाफे में अपनी रचना, संपादक के नाम एक पत्र और अपना पता लिखा, टिकट लगा लिफाफा रख कर। लिफाफे पर वजन के अनुसार टिकट लगा कर पोस्ट करना पड़ता था। मैंने एक-दो बार ध्यान से देखा कि वे लोग किस तरह पत्र लिखती हैं, कैसे लिफाफा बंद करती हैं और फिर कहानी लिखने के बाद मैंने भी वहीं सब किया। धन्य हैं उस जमाने के साहित्य संपादक जो छोटे बच्चों को प्रोत्साहित करने में विश्वास रखते थे। वरना मेरी गंदी लिखावट के आधार पर मेरी कहानी रिजेक्ट हो सकती थी। लेकिन निश्चित रूप से उन्होंने कहानी को पढ़ा होगा और उन्हें लिखावट के बजाए कहानी अच्छी लगी होगी। असली मजा तो तब आया जब कहानी छप गई और अखबार हमारे घर आया। हमेशा की तरह सबसे पहले मां ने अखबार पढ़ने को उठाया। बच्चों के काॅलम में मेरी कहानी देख कर वे चकित रह गईं। उन्होंने मुझसे पहला प्रश्न यही किया कि -‘‘यह कब भेजी?’’ फिर दूसरा प्रश्न था कि ‘‘भेजने से पहले मुझे बताया क्यों नहीं?’’ मैंने भी बड़ी ईमानदारी से उन्हें उत्तर दिया कि यदि मैं आप लोगों को बता कर भेजती और यदि कहानी नहीं छपती तो आप लोग मेरी हंसी उडातीं। मेरा उत्तर सुन कर मां को कैसा लगा मुझे ठीक-ठीक अंदाज़ नहीं है लेकिन यह जरूर याद है कि उन्हें लाड़ से मेरे सिर पर हाथ फेरा था।
आज स्थितियां बहुत भिन्न हैं। आधुनिक जीवन शैली ने हमें बहुत कुछ दिया है। आज ऐसे इलेक्ट्राॅनिक डिवाईस हमारे पास हैं जो बच्चों को लोरी और कहानियां (बेड टाईम स्टोरीज़) सुनाने का काम करते हैं। लेकिन क्या उसमें मां, पिता, दादा-दादी या नाना-नानी का ममत्व भरा स्वर शामिल रहता है? नहीं। ये डिवाईस मात्र यंत्र हैं जो भावना से नहीं यांत्रिकता से चलते हैं। इन्हें सुनते हुए ‘हुंकारू’ भरने की ज़रूरत नहीं होती है क्योंकि मशीन को परवाह नहीं है कि सुनने वाला सो गया या सुन रहा है। जबकि इंसान को परवाह होती थी कि वह जो कुछ सुना रहा है, सुनने वाला उसे ध्यान से सुन रहा है या नहीं। अपनी सजगता दिखाने के लिए ‘हुंकारू’ भरना जरूरी होता था। वह आत्मीयता, ममत्व और कल्पनाशीलता बच्चों से छिनती जा रही है। आज उनके सामने सब कुछ दृश्यरूप में है। दरअसल, उनके लिए बाजार सोच रहा है और मशीनों की भावहीनता के रूप में परोस रहा है।
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