Tuesday, May 25, 2021

पुस्तक समीक्षा | गुलमोहर : स्त्रीमन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण में प्रकाशित

मित्रो, प्रस्तुत है आज 25.05.2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई काव्य संग्रह "गुलमोहर" की  पुस्तक समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
गुलमोहर : स्त्रीमन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक   - गुलमोहर (काव्य संग्रह) 
कवयित्री - चंचला दवे             
प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, लेन नं.1,वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-2 
मूल्य    - रुपए 350 मात्र                                           
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कविता एक अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जिसमें कठोर यथार्थ को भी कोमल शब्दों में और मधुरता से व्यक्त किया जा सकता है। समकालीन हिन्दी कविता ने काव्य का ऐसा अलग ही धरातल गढ़ा है। एक ऐसा धरातल जो वातावारण और परिस्थितियों से सीधा संवाद करता है, कई बार आंखों में आंखें डाल कर। यह इसलिए संभव हुआ कि हिन्दी कविता में कवयित्रियों ने अपने अंतर्मन को खुल कर सामने रखा। चाहे निजता हो या सांसारिकता, कभी-कभी दोनों को एक साथ साधते हुए कविताएं लिखीं। समष्टि से व्यष्टि और व्यष्टि से समष्टि का पारस्परिक क्रम समकालीन कवयित्रियों की कविताओं में देखा जा सकता है। ‘‘गुलमोहर’’ कवयित्री चंचला दवे की काव्यकृति है जिसमें गर्मी की तपन और गुलमोहर की छांह है, भूमि का धूसर रंग तो गुलमोहर के फूलों का अग्निदग्धा चटख रंग भी है। चंचला दवे की कविताओं पर दृष्टिपात करने से पूर्व यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने अहिन्दी भाषी होते हुए भी हिन्दी को अपनी मातृभाषा की तरह अपनाया है और हिन्दी में अपनी कविताओं की प्रवाहमान अभिव्यक्ति की है।  
समकालीन हिंदी कविता के संदर्भ में देखा जाए तो बाज़ारवाद के प्रभाव से सांस्कृतिक विघटन और पारिवारिक संरचना का रक्षा संघर्ष महज स्त्री का संघर्ष न होकर विश्व में मानव मुक्ति के संघर्ष का आह्वान करता है। ये कविताएं सभी वर्ण, जाति, लिंग के स्त्री-समाज की सामूहिक संवेदना को अपने देश-काल , परिवेश , संस्कृति और समय -संदर्भों की भाषा में अभिव्यक्त कर के स्त्री अस्मिता के सभी प्रश्नों और संभावनाओं को समाहित करती हैं। चंचला दवे की कविताओं में मां के अस्तित्व को ले कर गंभीर रचनाकर्म है। वे मां संबंधी अपनी कविताओं में मां से संवाद करती हैं, उनके अधिकारों की पुनर्स्थापना करना चाहती हैं और वर्तमान परिवार में मां का स्थान सुनिश्चित करना चाहती हैं। चंचला दवे की कविताओं में विस्तृत परिवृत्ति है जो व्यापक मानवीय सहानुभूति को बनाएं रखना चाहती है। उनकी एक बहुत छोटी-सी कविता है - ‘‘मां घर की देहरी पर’’। यह कविता चंद पंक्तियों में मां के अस्तित्व का विशद आख्यान प्रस्तुत कर देती है। कविता देखिए-
घर की देहरी पर
बिना बाप की
बेटी के लिए
चौकसी करती
राह तकती
दरवाज़े पर
बाप बनी खड़ी
रहती है मां।

यह मां की एक ऐसी परिभाषा है जिसे पढ़ कर संस्कृत का यह श्लोक याद आ जाता है-
    नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
    नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा।।
अर्थात् माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस विश्व में कोई जीवनदाता नहीं।

मां को स्मरण करती हुई चंचला दवे की एक और कविता है ‘‘मां अब तुम नहीं हो’’। इस कविता में मां की आत्मिक उपस्थिति के समक्ष दैहिक अनुपस्थिति नगण्य दिखाई देती है। कवयित्री लिखती हैं-
मां बहुत याद आती हो, तुम
नहीं हो, पर घुली हो रक्त में नमक बन कर
प्यार बन कर, दौड़ती हो मेरी रग-रग में
मां तुम कहां हो?
सदा हो मेरे साथ
साथ रहना।

अर्जेन्टीना के विश्वविख्यात कवि पाब्लो नरूदा ने अपनी सौतेली मां के साथ अपना बचपन गुज़ारा। जिनके बारे में उन्होंने लिखा है कि- ‘‘हां, मैं एक अच्छी सौतेली मां को जानता हूं। वह सौतेली थी, लेकिन फरिश्तों जैसी थी।’’ अपनी उस मां के लिए पाब्लो नरूदा ने एक लम्बी कविता लिखी थी जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं- 
तुम्हारे लिए मैं पसंद करूंगा ख़ामोशी
तब जबकि तुम अनुपस्थित हो
और सुन सकती हो मुझे कहीं दूर से
जबकि मेरी आवाज स्पर्श नहीं कर सकती तुम्हें

पाब्लो नरूदा की सौतेली मां में और चंचला दवे की कविता की सगी मां में कोई भावनात्मक अंतर नहीं है और मां के प्रति संतान की संवेदना में भी अलगाव नहीं है। संवेदनाओं को तार्किकता के पैमाने से नहीं नापा जा सकता है। संवेदना अंतकरण की लहलहाती उपज होती है जो भावनाओं साथ-साथ वैचारिकता का भी पोषण करती है। 

चंचला दवे मां को अपनी कविता में समेटते समय पिता के अस्तित्व को भी ध्यान में रखती हैं। पिता पर केन्द्रित उनकी कविताओं में एक बहुत ही कोमल कविता है ‘‘यादों में पिता’’। यह कविता पिता को ब्रह्माण्ड के अस्तित्व से एकाकार करती हुई पिता को अभिव्यक्ति देती है। -
उगते सूरज की लाली
के उस पार
खड़े होते पिता/सूरज बन कर 
उतर आते/धरती पर 
आकाश में गोल घूम कर
फिर डांटते-डपटते 
स्मृति में/बार-बार पिता
बरसों पुरानी रोशनी/फैलती है
बन कर उजाला।

समाज की आधुनिक संरचना और मूल्यों में सकारात्मक परिवर्तन भी चंचला दवे की विताओं में मुखर हुआ है। परंपरागत पारिवारिक ढांचें में स्त्री का स्थान सबसे आखिरी पायदान पर रहा है। स्त्री का दायित्व निर्धारित किया गया कि वह घर सम्हाले, कपड़े धोऐ, पानी भरे, अनाज पीसे, बच्चे पैदा करे, बच्चों का पालन करे आदि-आदि। लेकिन ग्लोबल होते समाज में युवा पीढ़ी एक अलग पारिवारिक संरचना को स्वीकृति देती जा रही है जिसमें स्त्री को घर की चहार दीवारी से बाहर भी मनचाहे अधिकार हैं। युवा पीढ़ी के रचे समाज में स्त्री परंपरागत बेड़ियों से मुक्त दिखाई देती है। इसी बात को लक्षित करते हुए चंचला दवे ने कविता लिखी है- ‘‘बातें’’-
बच्चों ने कई बातें
अभी से सीख ली हैं
जैसे/अपनी पत्नी से 
नहीं करवाएंगे काम
बच्चों से नहीं धुलवाएंगे कपड़े
खूब आज़ादी देंगे
खूब उड़ाएंगे पतंग/गाएंगे गाने
उड़ जाएंगे आकाश तक
तोड़ लाएंगे तारे
होने वाले बीवी बच्चों के लिए।

चंचला दवे की कविताओं में ‘स्पर्श’ का लालित्य और ‘मुर्दाघर’ का खुरदरा अहसास भी है। ‘उदास गोधूलि’ से गुज़रता हुइ ‘प्रेम’ है, ‘शब्द’ है, स्मृतियां हैं, गांव है अर्थात् एक अनूठी समग्रता है। यह काव्य संग्रह स्त्रीमन की एक ऐसी काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो पढ़े जाने का स्वतः आग्रह करता है। कवयित्री को भाषाई अधिकार और अभिव्यक्ति की कला बखूबी आती है जिसे उनकी इस कृति ‘‘गुलमोहर" में अनुभव किया जा सकता है।
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#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह

2 comments:

  1. चंचला दवे की कविताओं से रूबरू करवाने के लिए शुक्रिया, सुंदर समीक्षा, बधाई !

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