Wednesday, March 22, 2023

चर्चा प्लस | बदलती जलवायु और संकट से घिरता मानवाधिकार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
बदलती जलवायु और संकट से घिरता मानवाधिकार
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                   
       दोनों ज्वलंत विषय हैं - जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकार। क्या दोनों विषयों के बीच कोई संबंध है? हां, हम कह सकते हैं कि मानव जीवन उनकी जलवायु पर निर्भर करता है। लेकिन केवल एक ही संबंध नहीं है। जलवायु और मानव जीवन कई तरह से संबंधित हैं। जलवायु में परिवर्तन मानव अधिकारों को हर तरह से प्रभावित कर रहा है। अतः यदि जलवायु में हानिकारक परिवर्तन होते हैं, तो मानव जीवन में गंभीर परिवर्तन स्वतः ही हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव जीवन और उसके अधिकारों के लिए अच्छा नहीं है।    
मध्यप्रदेश के सागर जिले में एक गांव है पटना बुजुर्ग। बहुत छोटा-सा। प्यारा-सा। उस गांव से गुजरते समय मुझे सड़क के दोनों ओर मौजूद छोटे-छोटे खेतों की सुंदरता को देखने का मौका मिला। गेहूं की बालियां अपनी छटा बिखेर रही थीं। मार्च का मध्य और बादलों से ढंका आसमान। बारिश की प्रबल संभावना। यह मौसम बारिश का नहीं होता है फिर भी बादलों का इस तरह घुमड़ना बारिश की चेतावनी दे रहा था। घूमने के हिसाब से मौसम मनोरम था। न गरमी और न ठंड। हल्की नमी लिए हुए हवाएं। मैंने खेतों में गेहूं की उस फसल को देखा जो कहीं पक कर तैयार हो चुकी थी, तो कहीं अधपकी थी। किसान अपनी पकी हुई दिख रही फसल की कटाई नहीं कर पाए थे। वहीं गेहूं की अधपकी बालियों में हरापन साफ दिखाई दे रहा था। उनके पकने में अभी समय था। मुझे उन फसलों को देखते हुए इस बात की चिन्ता हुई कि यदि तेज बारिश हुई तो इन फसलों का क्या होगा? और कहीं अगर ओले गिर गए तो ये फसल तो पूरी तरह से मिट जाएगी। यह सोच कर भी मुझे सिहरन हुई। मैं देख रही थी वहां की जमीन को। पथरीली जमीन को खेती लायक बनाने में किसानों ने कितनी अधिक मेहनत की होगी, इसका अंदाज़ा भी मैं नहीं लगा सकती थी। लाल मुरू जैसी मिट्टी वाली पथरीली जमीन। पुराने जंगल की पथरीली जमीन को खेती योग्य बना कर खेती करने वाले किसान की मेहनत को हर कोई नहीं समझ सकता है। जो फसल मौसम के आसन्न संकट तले मेरे सामने लहलाहती दिखाई पड़ रही थी उसे उगाने में भी किसानों का अथक श्रम और पूंजी लगी होगी। कुछ छोटे किसानों को तो अपनी पूरी पूंजी लगानी पड़ी होगी। उन्हें आशा होगी कि जब अच्छी फसल आएगी तो उनकी पूंजी उन्हें लाभ के साथ वापस मिल जाएगी। लेकिन मौसम में होने वाले अप्रत्याशित परिवर्तन के कारण उनकी यह आशा पूरी हो सकेगी? सच तो यह है कि इस बारे  में सोचने में भी मुझे डर लगता है।

एक समय था जब मैं फील्ड जर्नलिज्म में थी। उस दौर में मैंने मध्यप्रदेश के ही पन्ना जिले में नेताओं और अधिकारियों के समूह के साथ मौसम प्रभावित खेतों के दौरे किए थे। उन दिनों मौसम में इतने अधिक परिवर्तन नहीं होते थे। फिर भी चने और गेहूं के पौधों को टूट कर मिट्टी में मिलते हुए मैंने देखा था। वह स्मृतियां आज भी मुझे डराती हैं। मुरझाए चेहरे और आंखों में आंसू भरे किसान। जिनका सबकुछ लुट चुका हो। सरकारी सहायता उन्हें सांत्वना ही दे सकती थी, उनकी नष्ट हुई फसल और मेहनत उन्हें नहीं लौटा सकती थी। मैं ऐसे दृश्य और नहीं देखना चाहती हूं क्योंकि एक फसल एक किसान का जीवन तो होती ही है, साथ ही हर व्यक्ति की भूख का ईलाज और देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती भी होती है।
जिन्दा रहने के लिए भोजन और पानी मिलना मनुष्य का सबसे पहला अधिकार है। अतः यदि जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों के चक्र पर प्रभाव पड़ रहा है। मौसम के अचानक परिवर्तन के कारण फसलों को नुकसान पहुंच रहा है तो मनुष्य को भोजन मिलने का उसका पहला और प्राथमिक अधिकार ही नहीं मिल पाएगा। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देने के पीछे यह भी एक कारण है कि परिवर्तित होती जलवायु में फसल की उपलब्धता बनी रहे। जिन फसलों को उगाने में कम पानी की जरूरत पड़ती है तथा जिनको एक साल में दो या तीन बार उगाया जा सकता है, उन फसल को किस्मों को अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जा रहा है। ताकि फसल की उपलब्धता बनी रहे और किसी को भूखा न रहना पड़े।

कड़वी सच्चाई यह है कि प्रत्येक वर्ष होने वाली मानव मौतों में से लगभग एक-तिहाई के लिए गरीबी संबंधी कारण जिम्मेदार होते हैं। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव के कारण भविष्य में यह स्थिति और भी बदतर होगी। गरीबों में महिलाओं और लड़कियों का अनुपात भी अधिक है, जिसके कारण वे इस समस्या के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण भारत में, भोजन और पानी प्रदान करना विशेष रूप से महिलाओं की जिम्मेदारी है। अतः जलवायु परिवर्तन का भूमि की उपज, जल की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों का सीधा प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है। यानी जिस उम्र में लड़कियों को अपनी पढ़ाई और बचपन की गतिविधियों पर ध्यान देना चाहिए, उन्हें अपने घरों में दूर के जलाशयों से पानी लाना पड़ता है। गर्भवती महिला या प्रसूता को जब आराम की जरूरत होती है तो उसे अपने सिर पर पानी का घड़ा ढोना पड़ता है। भले ही राज्य सरकारें नलकूप खोदती हों, लेकिन जलवायु और मौसम में बदलाव के कारण हर साल जल स्तर गिर रहा है। यह स्थिति जहां एक ओर महिलाओं के मानवाधिकारों पर आघात कर रही है, वहीं दूसरी ओर पुरुषों के पेयजल के प्राथमिक अधिकार पर भी संकट बढ़ा रही है।
भले ही जलवायु के प्रभाव धीरे-धीरे हमारे लिए आम बात होते जा रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली प्राकृतिक आपदाएं और चरम मौसम की घटनाएं पहले से ही उन आबादी पर कहर बरपा रही हैं और आने वाले समय में बढ़ेंगी। इसलिए, अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं को पर्यावरण की रक्षा और भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों को बचाने पर ध्यान देना चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे दुनिया भर में जोखिम वाली आबादी की तत्काल विकास चुनौती को संबोधित करें। इसके लिए किसी भी देश को विशेष बंधनों में नहीं बांधा जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन पर बहस समानता, ऊर्जा तक पहुंच और साझेदारी पर केंद्रित हो। विकास न केवल एक आर्थिक और सामाजिक आवश्यकता है, बल्कि यह जलवायु परिवर्तन के संबंध में अपनाया गया सबसे अच्छा समाधान भी है। कमजोर आबादी के जीवन, स्वास्थ्य और आजीविका के मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा के लिए, यह जरूरी है कि हम ऐसे विकास को बढ़ावा दें जो ऐसे विशेष समूहों और उनकी संपत्तियों के लचीलेपन को बढ़ाता है, जबकि साथ ही वह जलवायु परिवर्तन के उपायों को सफलतापूर्वक लागू कर सकता है। .
वास्तव में, जलवायु परिवर्तन हमारी पीढ़ी के मानवाधिकारों के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है, जो दुनिया भर में जीवन, स्वास्थ्य, भोजन और व्यक्तियों और समुदायों के जीवन के पर्याप्त स्तर के मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। इसी वर्ष फरवरी 2023 में दोहा, कतर में आयोजित जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकार-प्रभाव और उत्तरदायित्व पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, एनएचआरसी, भारत के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने सभी देशों को बताया कि ग्रीनहाउस मानव-प्रेरित विकास जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है जो मानवाधिकारों के बारे में गंभीर चिंता पैदा करता है। विकासशील देशों से समान उत्सर्जन मानकों का कड़ाई से पालन करने की अपेक्षा करना अनुचित है। उन्हें अक्सर अधिक संसाधनों और प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। इसे पूरा करने के लिए वैश्विक समुदाय को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण क्षमता निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी। जस्टिस मिश्रा ने कहा कि एक समावेशी जलवायु परिवर्तन कार्रवाई में ऐसी नीतियां बनाना शामिल है जो निष्पक्ष और सुलभ और न्यायसंगत हों। इसके लिए सबसे कमजोर और सीमांत लोगों सहित सभी हितधारकों की जरूरतों और दृष्टिकोणों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।

कृषि कार्यों से पलायन और विस्थापन के परिणामों का ही विकराल रूप हैं जलवायु शरणार्थी। सूडान जैसे देश इस समस्या को झेल रहे हैं। आफ्रिकी देशों से ही नहीं, बलिक अब लगभग हर देश में कमोबेश यही स्थिति बनती जा रही है कि जलवायु परिवर्तन के कारण लोगों को अपनी मूल भूमि छोड़ कर दूसरी जगह जा कर शरण लेनी पड़ रही है।
पर्यावरण संरक्षण आमतौर पर मानवाधिकार संधियों में शामिल नहीं रहा है। बल्कि पर्यावरण संरक्षण उन अधिकारों से प्राप्त होता है जो उन संधियों की रक्षा करते हैं, जैसे जीवन, भोजन, पानी और स्वास्थ्य के अधिकार। इसीलिए अब यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि जलवायु परिवर्तन नीति-निर्माण के संदर्भ में मानवाधिकार कानून बुनियादी मानवाधिकारों के न्यूनतम मानकों को स्थापित करने में मदद मिल सकती है, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय जलवायु समस्याओं के अनुकूलन उपायों के रूप में अपनाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के संदर्भ में स्थानीय ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को बढ़ावा देने के साथ जलवायु संबंधी नीतियों और कार्यक्रमों में मानवाधिकार के मुद्दों को भी शामिल करना होगा। अगर अब भी इस पर गौर नहीं किया गया और इसे यूं ही अनदेखा किया गया तो आने वाले समय में तापमान इस कदर बढ़ जाएगा कि मानव जीवन पर संकट आ सकता है। भयावह सूखा पड़ सकता है, समुद्री जल स्तर बढ़ सकता है और इन सब प्राकृतिक आपदाओं के फलस्वरूप कई प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। आज पूरी दुनिया पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है। जलवायु में होने वाला यह परिवर्तन ग्लेशियर व आर्कटिक क्षेत्रों से लेकर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों तक को प्रभावित कर रहा हैं। यह प्रभाव अलग-अलग रूप में कहीं ज्यादा तो कहीं कम पड़ रहा है। भारत का सम्पूर्ण क्षेत्रफल करीब 32.44 करोड़ हेक्टेयर है। इसमें से 14.26 करोड़ हेक्टेयर में खेती की जाती है। अर्थात देश के सम्पूर्ण क्षेत्र का 47 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। मौसम परिवर्तन देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है।

जलवायु परिर्वतन का एक और क्षेत्र पर गंभीर असर पड़ रहा है जिसकी ओर कम ही लोगों का ध्यान जाता है। यह क्षेत्र है पशुपालन का। भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या का पोषण करने में कृषि के साथ-साथ हमारे पशुधन का बहुत बड़ा योगदान रहा है, परन्तु निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन से तापमान में काफी तबदीली हुई है जिससे भारत ही नहीं, दुनिया भर के पशुधन गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं। वातावरणीय तापमान में तीव्र परिवर्तन से जानवरों का स्वास्थ्य, प्रजनन, पोषण इत्यादि प्रभावित होता है, जिससे पशु उत्पाद तथा इनकी गुणवत्ता में भी गिरावट होती है। अन्य जानवरों की तुलना में संकर डेयरी मवेशी जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हंै जिनकी संख्या भारत में अधिक है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ते हुए तापमान, अनियमित मानसून, भयंकर ठंड, ओले, तेज हवा आदि जानवरों के स्वास्थ्य, शारीरिक वृद्धि और उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। मौसम में तनाव के कारण डेयरी पशुओं की प्रजनन क्षमता कम हो रही है। परिणामस्वरूप गर्भधारण दर में भी काफी गिरावट हो रही है। जलवायु परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली कार्यक्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इससे थनैला रोग, गर्भाशय की सूजन तथा अन्य बीमारियों के जोखिम में वृद्धि हो रही है। भारत में उष्मीय तनाव पशु उत्पादकता को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है। द फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाईजेशन (एफएओ) के शोध के अनुसार, ‘‘पशुपालकों को पिछड़ा और अनुत्पादक माना जाता है और ऐतिहासिक रूप से प्रतिकूल कानूनों की वजह से उन्हें कम कर के आंका गया है। पशुचारक संसाधन की कमी और गतिशीलता पर प्रतिबंधों के प्रति संवेदनशील होते हैं। चूंकि उन्हें उत्पादक क्षेत्रों से बाहर कर दिया जाता है, इसलिए उन्हें सीमित उपलब्ध चराई संसाधनों पर निर्भर होना पड़ता है। गतिशीलता की रक्षा और विनियमन करने वाले कानून के अभाव में, पशुचारक अन्य संसाधन उपयोगकर्ताओं और राज्य के साथ संघर्ष में फंस जाते हैं।’’

देखा जाए तो जलवायु में इस तरह के भयावह परिवर्तनों के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। वास्तव में हमें जलवायु परिवर्तन और मानव अधिकारों के बीच के अंतर्संबंध को समझना होगा और उसी के अनुसार सरकारी और व्यक्तिगत योजनाएं बनानी होंगी। क्योंकि हम मानें या न मानें, जलवायु परिवर्तन के कारण मानवाधिकारों का क्षरण होना शुरू हो गया है और इस क्षरण को रोकना जरूरी है।   
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