Tuesday, March 7, 2023

पुस्तक समीक्षा | एक उपन्यास जिसे पुनः प्रकाशित होना चाहिए | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 07.03.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक अनिल चंद्र मैत्रा  की पुस्तक "टूटते इंद्रधनुष" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
एक उपन्यास जिसे पुनः प्रकाशित होना चाहिए
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह 
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उपन्यास     - टूटते इंद्रधनुष
लेखक      - अनिल चंद्र मैत्रा
प्रकाशक     - साहित्य प्रचारक, 3011, बल्लीमारान, दिल्ली-110006 
मूल्य        - 20/- (1980 के संस्करण का मूल्य)
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यूं तो प्रत्येक दशक में अनेक उपन्यास लिखे गए किन्तु लेखक अनिल चंद्र मैत्रा के सन् 1980 में प्रकाशित उपन्यास ‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ का पुनः प्रकाशन होना चाहिए, यह बात मुझे महसूस हुई इसे पढ़ने के बाद। यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि जब मैंने अनिल चंद्र मैत्रा जी का उपन्यास ‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ पढ़ने को उठाया तो उस समय एक पूर्वाग्रह मेरे मन में मौजूद था कि इस उपन्यास में कहीं न कहीं शरतचंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर या बंकिमचंद्र की छाप अवश्य होगी। इसमें निश्चित रूप से बंगाली औपन्यासिक विन्यास मिलेगा। निःसंदेह, मैत्रा जी ने बंगाल की कथा परंपरा को अपने उपन्यास में विस्तार दिया होगा। लेकिन जब मैंने इस उपन्यास को पढ़ना आरंभ किया तो आरंभ के 2 पृष्ठ के बाद ही मेरा यह पूर्वाग्रह समूल समाप्त हो गया। यह उपन्यास पूरी तरह से बुंदेलखंड की सामाजिक भावभूमि का उपन्यास सिद्ध हुआ। इस उपन्यास में कथाकार अनिल चंद्र मैत्रा की अपनी एक मौलिक शैली आरंभ में ही परिलक्षित होने लगी जिस पर बंगाली कथाशैली का रत्तीभर प्रभाव नहीं था।  संवाद, चरित्र, कथानक - सभी कुछ सागर और बुंदेलखंड अंचल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यदि परंपरा की बात की जाए तो इसमें ठेठ हिंदी उपन्यास की परंपरा का निर्वहन स्पष्ट दिखाई दे रहा था। बंगाली भाषा और अंग्रेजी साहित्य के ज्ञाता अनिल चंद्र मैत्रा की यह अपनी विशेषता थी कि उन्होंने अपने आसपास के परिवेश को अपने उपन्यास के कथानक रूप में चुना और जैसे-जैसे मैं उपन्यास के पन्ने पलटती गई वैसे-वैसे जिज्ञासा बढ़ती गई। उपन्यास के चरमोत्कर्ष पर पहुंचते-पहुंचते बहुत सारी स्थितियां स्पष्ट होने लगीं, तो बहुत कुछ गोपन रहकर अंत की ओर बढ़ने को प्रेरित करता रहा। ‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ उपन्यासकार अनिल चंद्र मैत्रा का यूं तो दूसरा उपन्यास है किंतु यह अपने आप में एक सशक्त उपन्यास है और उनके औपन्यासिक विन्यास कौशल से परिचित कराने में पूर्णतया सक्षम है।
यह उपन्यास मुझे अनिल चंद्र मैत्रा जी की पुत्री डाॅ निवेदिता मैत्रा के सौजन्य से प्राप्त हुआ जोकि डाॅ. हरी सिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में इंग्लिश एवं योरोपियन लेंग्वेज़ेस विभाग की सीनियर प्रोफेसर हैं और स्वयं भी अंग्रेजी की एक अच्छी साहित्यकार हैं। 
इस उपन्यास के कथानक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह स्त्री को केंद्र में रखकर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और न्यायायिक विमर्श करता है। समूची कथा उपन्यास की नायिका मीना और नायक विनय के इर्द-गिर्द घूमती है। नायिका मीना विश्वविद्यालय की छात्रा है और वह गायन विधा में इतनी निपुण है कि यूथ फेस्टिवल में उसे प्रथम स्थान प्राप्त होता है। वह सागर नगर का गौरव है। सभी उसकी प्रशंसा करते हैं। किंतु वह है तो एक लड़की ही। जब बात अधिकारों और विवाह संबंध की आती है तो उसके सारे गुणों को ताक में रखकर एक लड़की के रूप में उसे देखा जाने लगता है। यहीं से आरंभ होता है वास्तविक स्त्रीविमर्श जो बुंदेलखड के एक सामान्य परिवार में स्त्री के अधिकारों की पड़ताल करता है। 
उपन्यास के आरंभ में ही नायिका मीना के सशक्त चरित्र को सामने रखते हुए लेखक ने एक घटना का विवरण दिया है कि नगर के एक जाने-माने राजनीतिज्ञ का बेटा मीना को देखकर गाना गाता है और आपत्तिजनक फब्तियां कसता है। इस पर क्रोधित होकर मीना उस आवारा लड़के की पिटाई कर देती है। यह दृश्य देखकर वहां से गुजरने वाले लोग भी जुड़ जाते हैं और सब मिलकर उस लड़के की पिटाई करते हैं। उसी दौरान पुलिस आ जाती है और उस लड़के को थाने ले जाती है। तब आवारा लड़के का राजनीतिक पिता थाने पहुंचकर सौदेबाजी करता है और जो थानेदार पहले उसूलों की बात कर रहा था वह लालच में फंसकर सौदेबाजी कर लेता है और केस को न बनाते हुए लड़के को छोड़ देता है। इसी घटना से जुड़ा दूसरा पक्ष एक मुख्य समाचार पत्र के दबंग संपादक का है जो इस घटना पर बहुत ही उत्साहित होकर स्वयं रिपोर्ट तैयार करता है और मीना की भूरी भूरी प्रशंसा करता है किंतु जब नेताजी उस अखबार के दफ्तर में पहुंचते हैं और संपादक को विज्ञापन का लालच देते हैं तो वह भी अपनी ईमानदारी को साथ में रखकर पूरी कहानी ही बदल देता है। जहां एक पल पहले वह मीना के साहस की प्रशंसा का समाचार बना रहा था, वहीं वह मीना के विरोध में समाचार बना देता है। इस प्रकार देखा जाए तो लेखक ने समाज के 3 महत्वपूर्ण स्तंभों का वह चेहरा दिखाया है जो पूरी तरह से वीभत्स है। अखबार जो समाज का चैथा स्तंभ माना जाता है, वह कितना खोखला हो चुका है यह इस उपन्यास में खुलकर सामने रखा गया है। एक दबंग दिखाई देने वाले संपादक का भीतरी चरित्र कितना कमजोर है, यह इस उपन्यास को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है। मीना का पक्ष लेने के बजाय थानेदार अपने हित साधने के चक्कर में एक अपराधी मनोवृति के लड़के को छोड़कर स्वयं अपराध करता है, जिसके दुष्परिणाम का उसे अनुमान भी नहीं है कि आगे चलकर वह लड़का क्या गुल खिलाएगा। इसी तरह विज्ञापन का लालची संपादक भी एक अपराधी का पक्ष लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता है।
यह उपन्यास समाज में लड़कियों के प्रति समाज की विचारधारा को विश्लेषणात्मक ढंग से सामने रखता है। यदि लड़की पढ़ी-लिखी न हो तो विवाह में समस्या आती है और यदि लड़की ज्यादा पढ़-लिख जाए तो भी समस्या आती है। विवाह के संदर्भ में ही एक और दृष्टिकोण है जिसे उपन्यासकार अनिल चंद्र मैत्रा ने बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया है। यह दृष्टिकोण है जाति और धर्म पर केंद्रित। मीना ब्राह्मण परिवार की लड़की है जबकि उसके पिता के स्वर्गीय मित्र का बेटा विनय जो बचपन से ही उसके घर आता जाता रहा है, वह कायस्थ परिवार का है। पुराने विचारों के पोषक मीना के पिता कभी यह सोच भी नहीं पाते हैं कि मीना के जीवनसाथी के रूप में विनय को चुना जा सकता है। मीना की मां परंपराओं की पोषिका होते हुए भी एक स्त्री के रूप में मीना की पीड़ा को समझती है और उसका पूर्ण समर्थन करती है। किंतु पुरुष प्रधान समाज में न मीना की कोई सुनवाई है और न उसकी मां की। यह उपन्यास कई दशक पहले लिखा गया किंतु यदि हम देखें तो स्थितियां आज भी वही हैं। लड़की को अपने इच्छा अनुसार वर चुनने का अधिकार खुशी से आज भी नहीं दिया जाता है। 
मीना के पिता के एहसानों तले दबे विनय के वश में नहीं है कि वह खुलकर कदम बढ़ा सके। अतः वह स्वयं को इस योग्य साबित करने में जुट जाता है कि जिससे एक दिन मीना के पिता स्वेच्छा से उसे स्वीकार कर लें। दूसरी ओर मीना अविवाहित रहते हुए अपने जीवन से संघर्ष करने के लिए दूसरे शहर यानी सागर से इंदौर चली जाती है। जहां वह नौकरी करके अपना जीवन यापन करती है। किंतु समाज में छोड़ दिए गए आपराधिक मनोवृत्ति के व्यक्तियों के द्वारा कभी भी किसी भी स्त्री को चोट पहुंचाए जाने की पूरी संभावना रहती है। फिर भी ऐसे व्यक्तियों को छोड़ दिया जाता है। उन पर कोई धारा नहीं लगाई जाती है। जिसका परिणाम यह होता है कि वे अपराध की दिशा में दबंगई से बढ़ते चले जाते हैं। मीना का सामना एक बार फिर उस आवारा लड़के से होता है जिसे उसने अपने कॉलेज के दिनों में अभद्रता करने पर पीटा था। वह लड़का प्रतिशोध की गांठ मन में बांधकर घूम रहा था तथा अवसर पाते ही मीना से बदला लेने का प्रयास करता है
यहां से उपन्यास का एक और नया अध्याय शुरू होता है जिसमें अदालत, पुलिस, अपराध सभी कुछ है किंतु केंद्र में मीना ही है। चूंकि लेखक स्वयं वरिष्ठ अधिवक्ता रहे हैं, कानून के ज्ञाता रहे हैं, उन्हें गहन अदालती अनुभव रहा है अतः अदालत और कानून से संबंधित सारे दृश्य बहुत ही रोचक विश्लेषणात्मक और तर्कसंगत ढंग से लिखे गए हैं। इनसे उपन्यास में रोचकता बढ़ती जाती है। यह एक सामाजिक उपन्यास होने के साथ ही मीडिया और राजनीति के दूषित गठबंधन को उजागर करता है। चाहे प्रशासनिक स्तर हो अथवा राजनीतिक क्षेत्र अपने पद का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति पर करारा  प्रहार करता है। जैसे नेता जी अपने पुत्र की आवारागर्दी के केस को लेकर जब हाईकमान के दरबार में पहुंचते हैं तो हाईकमान पर भी इस बात का दबाव बनाते हैं कि उनके साथ उनके जैसे 4-5 एमएलए का गुट है, इसलिए हाईकमान के लिए यही बेहतर है कि वह भी नेताजी का साथ दें। किसी स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाने का हथियार, सबसे अचूक हथियार इस समाज ने बना रखा है जिसका दुरुपयोग हर वह व्यक्ति करने से नहीं चूकता है जिसे किसी स्त्री को नुकसान पहुंचाना हो। उपन्यास में अनेक दिलचस्प घटना क्रम हैं। 
‘‘टूटते इंद्रधनुष’’ का भाषा विन्यास प्रभावी है। संवाद रोचक है। कथाप्रवाह पूरे समय पाठक को बांधे रखने में सक्षम है। उपन्यासकार अनिल चंद्र मैत्रा ने इस उपन्यास में एक प्रखर स्त्रीविमर्श प्रस्तुत किया है किंतु वे किसी विशेष विचारधारा अथवा खेमे में खड़े हुए दिखाई नहीं देते हैं अपितु एक निष्पक्ष साहित्यकार के रूप में वे उपन्यास के पात्रों को चुनते हैं और कथावस्तु को संवारते हैं। वे उपन्यास के हर चरित्र के साथ न्याय करते हुए दिखाई देते हैं, चाहे वह चरित्र सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक। जो चरित्र नकारात्मक है वह ऐसा क्यों है, इस तथ्य को भी लेखक ने शामिल किया है। यदि कोई पिता जो स्वयं ही भ्रष्टाचार में डूबा हो, अनियमितताओं और अन्याय का पक्षधर  हो तथा अपने पुत्र को हर अपराध से अपने पद का दुरुपयोग करते हुए बचाता रहे, तो ऐसा पुत्र अपराधी बनेगा ही। जबकि एक अच्छे वातावरण में पलने, बढ़ने वाला युवक एक अच्छे चरित्र और अच्छे भविष्य को प्राप्त करेगा। इन तथ्यों को रखते हुए भी लेखक कहीं भी उपदेशात्मक नहीं हुआ है। लेखक ने उपन्यास की रोचकता और प्रवाह के साथ कोई समझौता नहीं किया है। सारे तथ्य नपेतुले तरीके से उपन्यास में पिरोए गए हैं। यह उपन्यास बुंदेलखंड के सामाजिक परिवेश को बखूबी रेखांकित करता है। साथ ही इस भू-भाग के संस्कारों, परंपराओं और सामाजिक दोषों को भी बेझिझक प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास वस्तुतः प्रेमचंद की परंपरा से एक कदम आगे और धर्मवीर भारती के ‘‘गुनाहों के देवता’’ के निकट है क्योंकि इसमें पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी बड़ी बारीकी से किया गया है। इसीलिए जरूरी है ऐसे उपन्यासों का पुनः प्रकाशन ताकि पाठक इनके द्वारा अतीत की निर्मम सच्चाई से परिचित हो सकें और अतीत से वर्तमान की तुलना कर सकें।     
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