हार्दिक बधाई #अथग एवं भाई Jagdeesh Sharma ji 💐
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*नाट्य समीक्षा*
*अथग के बुंदेली हास्य नाटक ‘‘ऐरी बऊ...कबे बज हे रमतूला’’ के सफल मंचन का दूसरा दिन, दर्शकों ने कलाकारों को सराहा*
*हास्य की ज़मीन पर पुरातन और नूतन का मिश्रित स्वर बिखेरता रमतूला*
*- कलासमीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह*
बुंदेलखंड के पारंपरिक ग्रामीण समाज में चाहे लड़का हो या लड़की, एक निश्चित आयु तक यदि विवाह न हो तो मामला छींटाकशी तक जा पहुंचता है। ऐसी स्थिति में हास्य, व्यंग्य और मानसिक पीड़ा के साथ विवाह की आकुलता भी समाहित होती है। बुंदेली जनजीवन के इस पक्ष को सागर नगर की अग्रणी नाट्य संस्था अन्वेषण थिएटर ग्रुप ने बुंदेली हास्य नाटक ‘‘ऐरी बऊ... कबे बज हे रमतूला’’ के रूप में प्रस्तुत किया। नाटक के दो दिवसीय प्रस्तुति में प्रथम दिवस की सफलता के बाद दूसरे दिन भी इसे दर्शकों का अपार प्यार मिला। कुछ दर्शकों ने उन लोगों के लिए कुछ और शोज़ किए जाने की मांग की जो इन दो दिनों में इस नाटक को देखने से वंचित रह गए हैं। इससे इस नाटक के प्रति दर्शकों की रुचि का पता चलता है। दरअसल यह नाटक अपने आप में विशेष है। इसमें पुरातन और नूतन का सुंदर मेल है। इस नाटक की शैली परंपरागत हास्य नाट्यशैली स्वांग पर आधारित है। तथा इसमें रमतूला नामक बुंदेली वाद्य के बहाने समूचा कथानक प्रस्तुत कर दिया गया है। जैसाकि नाअक का नाम ही है कि ‘‘ऐरी बऊ... कबे बज हे रमतूला’’, तो यह उल्लेखनीय है कि रमतूला विवाह आदि शुभ अवसरों पर बजने वाला वाद्ययंत्र है। इसी लिए यह कहावत प्रचलित है कि घर में रमतूला कब बजेगा? अर्थात् कब विवाह सम्पन्न होगा? इस नाटक का लेखन और निर्देशन वरिष्ठ नाट्य निर्देशक, अभिनेता तथा नाट्य लेखक जगदीश शर्मा ने अन्वेषण थिएटर ग्रुप के बैनर तले किया।
नाटक का मूल कथानक कुछ इस प्रकार है कि कन्हैया उर्फ़ कल्लू एक ग्रामीण युवक है जो अपनी विधवा मां के साथ गांव में रहता है। उसके सांवले रंग तथा कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा है। कल्लू के मां की आस है कि उसके बेटे का विवाह जल्दी से जल्दी हो जाए किन्तु उसके प्रौढ़ हो चले बेटे को कोई अपनी लड़की देने को तैयार नहीं है। इन परिस्थितियों में बेमेल रिश्तों, झाड़फूंक, जादू टोना कराने की सलाहों आदि जैसे अनेक हास्यास्पद प्रसंग आते हैं। अंततः कल्लू को स्वयं अपने लिए लड़की ढूंढने निकलना पड़ता है। नाटक में कन्हैया यानी कल्लू के रोल में कपिल नाहर ने ज़बर्दस्त अभिनय किया। अतुल श्रीवास्तव, जगदीश शर्मा, सतीश साहू आदि सभी कलाकारों ने भी अपने शानदार अभिनय से दर्शकों का मन जीत लिया। नाटक में लगभग पूरे समय दर्शकों के ठहाकों से सभागार गूंजता रहा। इस नाटक की विशेषता यह भी रही कि इसमें चुटीले डाॅयलाॅग और हास्यमय अभिनय के साथ बहुत गंभर और जरूरी संदेश भी बड़ी सहजता से दर्शकों को दे दिए गए।
स्वांग शैली में आधारित नाटक होने के कारण समूचा गायक एवं वादक दल पूरे समय मंच पर उपस्थित दिखाई देते हैं लेकिन उनकी उपस्थिति एक अनूठा बैकड्राॅप प्रस्तुत करती है। इससे पात्रों के अभिनय के पार्श्व में स्वर-संगतियों की मौजूदगी को न केवल अनुभव किया जा सकता है बलिक देखा भी जा सकता है। यह इस नाटक की एक ऐसी विशेषता है जिसे मंच पर प्रकाश संचालक के लिए बड़ी चुनौती कहा जा सकता है। यह ध्यान रखना कि कब सामने अभिनय कर रहे पात्रों पर स्पाॅट लाईट डालनी है और कब स्वर-संगतियों को हाईलाईट करना है, इस काम को इतने सुचारु रूप से किया गया कि इससे नाटक में ग़ज़ब की जीवंतता आ गई। वस्त्र विन्यास एवं मंच सज्जा कथानक के अनुरूप और प्रभावी रही।
लोकगीत, पारंपरिक चौकड़िया गीत रचना सतीश साहू की, नृत्य निर्देशन आस्था बानो का, दृश्य परिकल्पना राजीव जाट, सेट निर्माण प्रेम जाट एवं देवेंद्र जाट द्वारा, प्रकाश परिकल्पना संदीप दोहरे की, वस्त्र विन्यास अतुल श्रीवास्तव का, ब्रोशर डिजाइन तरुणय सिंह, ध्वनि प्रभाव संचालन मासूम आलम का रहा तथा सहयोगी रहे रविन्द्र दुबे कक्का, अश्विनी साहू, कृष्ण भाटिया एवं अजय यादव का। दूसरे दिन की प्रस्तुति में भी मंच पर संदीप दीक्षित, दीपक राय, देवेंद्र सूर्यवंशी, आयुषी चैरसिया, सुमित दुबे, अमजद खान, मनोज सोनी, अतुल श्रीवास्तव, सतीश साहू, ज्योति रैकवार, ग्राम्या चौबे, आस्था बानो, हर्षिता तिवारी, निधि चौरसिया तथा जगदीश शर्मा छाए रहे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ‘‘ऐरी बऊ... कबे बज हे रमतूला’’ ने सुंदर हास्य की ज़मीन पर पुरातन और नूतन का जो मिश्रित स्वर बिखेरा उससे स्वांग जैसी पारंपरिक शैली का नादस्वर भविष्य में भी गूंजता रहेगा।
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