Tuesday, March 14, 2023

पुस्तक समीक्षा | अंतर्मन की दुविधा से उपजी कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 14.03.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि पी आर मलैया  के काव्य संग्रह "कैसे प्रेम गीत मैं गाऊं?" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
अंतर्मन की दुविधा से उपजी कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - कैसे प्रेम गीत मैं गाऊं?
कवि        - पी. आर. मलैया
प्रकाशक     - (स्वयं कवि) मुक्तिधाम मार्ग, झंडा चौक, गोपालगंज, सागर (म.प्र.)
मूल्य        - मुद्रित नहीं
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प्रेम एक विलक्षण भावना है। इसकी परिधि तय नहीं की जा सकती है। यह न वर्तुल में गतिमान रहता है और न आयताकार। वस्तुतः प्रेम निराकार है। यह विशुद्ध भावनात्मक आवेग है। दुविधा तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति प्रेम को स्वीकार करना चाहता है, उसे जीना चाहता है लेकिन निकट परिवेश, वातावरण और विसंगतियां उसे प्रेम के आनन्द का अनुभव करने से रोकती हैं। यह दुविधा स्पष्टरूप से देखी जा सकती है कवि पी. आर. मलैया के प्रथम काव्य संग्रह में। संग्रह का नाम है-‘‘कैसे प्रेम गीत मैं गाऊं?’’
कवि पी.आर.मलैया का पूरा नाम है प्रेमनारायण रामदयाल मलैया। सागर जिले के राहतगढ़ में सन 1956 में जन्मे पी.आर.मलैया को लोग जितनी उनकी साहित्यिकता के कारण जानते हैं उतना ही उन्हें उनके जनसमर्थक प्रयासों को ले कर जानते हैं। वे सत्तर के दशक से प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए और आज भी उससे संबद्ध हैं। शोषण, दमन विहीन समतामूलक समाज के निर्माण के लिए वे हमेशा तत्पर रहते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताओं में प्रेम और समय से संवाद का अनुपात घटता-बढ़ता रहता है। उनके इस प्रथम काव्य संग्रह में ‘‘हे गिरे सद्भाषिणी’’ तथा ‘‘श्री निग्र्रन्थ जिनेन्द्रदेव’’ कविताओं सहित कुल 43 कविताएं हैं। इनमें कुछ गीत का स्वर लिए हुए हैं तो वहीं अंतिम पृष्ठों में कुण्डलियां छंद हैं। अर्थात् भाव, कथ्य और शिल्प की विविधता इस काव्य संग्रह में देखी जा सकती है। कवि ने जहां सागर नगर की जलात्मा सागर झील की दशा पर कविता लिखी है वहीं पानी बचाओ का आह्वान भी किया है। फिर भी संग्रह का मूल संवाद आरम्भ होता है प्रेम गीत न गा पाने की विवशता को ले कर। बेशक़ कोई व्यक्ति प्रेम में कितना भी क्यों न डूबा हुआ हो किन्तु यदि उसके सामने कोई भूखा, बीमार आ खड़ा होगा तो उसे अपनी प्रेम भावना के आनन्द को स्थगित करना ही होगा। इसीलिए कवि पी.आर.मलैया ने अपनी कविता में अपनी दुविधा प्रकट की है कि -
कैसे प्रेम गीत मैं गाऊं?
शोषण, दमन रहित श्रमपूजक समाज न जब तक रच पाऊं
कैसे प्रेम गीत मैं गाऊं?
चारों ओर धरा अपनी, पर वातावरण विषैला है
अहंकार, अज्ञान, स्वार्थ का तिमिर चतुर्दिक फैला है
देखो जहां वहां शासक दल का अंतर्मन मैला है
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का ही नेतृत्व कुचैला है
इस कलुषित झंझा में बुझने से मैं कैसे दीप बचाऊं?
कैसे प्रेम गीत मैं गाऊं?

वातावरण चाहे राजनीतिक हो या पर्यावरर्णीय हो, विषाक्त हो चला है और यही कवि की चिंता का विषय है। समाज में व्याप्त विसंगतियों को देख कर उसका मन आलोड़ित होता है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह प्रेम भावना को नकार रहा है। कवि प्रेम विरत नहीं है। ‘‘पास तो आओ, कुछ स्नेह बरसाओ’’ शीर्षक कविता में कवि पी.आर.मलैया की अभिव्यक्ति शिल्प एवं भाषिक छटा पर छायावादी प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है-
जा रहे हो दूर क्यों? प्रिय, पास तो आओ
मनस्तल उत्तप्त है, कुछ स्नेह बरसाओ।
खड़ा है ले ओज का उपहार रवि,
हो रही प्रस्फुटित पल-पल नवल छवि,
दे रहे जन-यज्ञ में जन प्रेम-हवि,
साम निःसृत् कर रहे सानन्द कवि,
विरह ज्वाला जल रही, पर हृदय में आओ,
मनस्तल उत्तप्त है, कुछ स्नेह बरसाओ।
कर रही है प्रकृति सबका स्नेह अभिनन्दन,
वसन्तालिंगित रहा हंस हर्ष से उपवन,
पक्षियों के विमल रव से गूंजते कानन,
हो रहा सर्वत्र सुरभित जीवन स्पन्दन,
किन्तु हृत्तन्त्री पड़ी निःस्पन्द है आओ,
मनस्तल उत्तप्त है, कुछ स्नेह बरसाओ।

छायावादी प्रभाव कवि की प्रकृति संबंधी कविताओं में भी मुखर हो कर आया है। जैसे वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है ‘‘फिर वसन्त की बेला आई...’’-
नव संदेश प्रेम का लेकर, फिर वसन्त की बेला आई ।
फूल रहीं सरसों खेतों में, सुरभि बिखेरे केसर क्यारी,
नस-नस में ऊर्जा आलोड़ित, तनमन सब स्पन्दित भारी,
जागृत हुई मदिर आकांक्षा, मनसिज ने है ली अँगड़ाई,
नव संदेश प्रेम का लेकर, फिर वसन्त की बेला आई।
प्रतिपल नवजीवन उन्मीलन, प्रतिक्षण मधुर भावना नूतन,
नवल स्वप्न नयनों में पलते, प्रमुदित उत्फुल्लित सब तन-मन,
नव ऊष्मा दिनकर बरसाता, तीक्ष्ण शिशिर की हुई विदाई,
नव संदेश प्रेम का लेकर, फिर वसन्त की बेला आई ।
ग्राम-नगर, वन-उपवन सबमें, अभिगुंजित अभिनव खगकूजन,
सुमन-सुमन मकरन्द खोजते, सतत कर रहे मधुकर गुंजन,
मधुऋतु के मधुमय आमन्त्रण, प्रणयकेलि में रत तरुणाई,
नव संदेश प्रेम का लेकर, फिर वसन्त की बेला आई।

कवि पी.आर. मलैया अपने जिस वैचारिक तेवर के लिए जाने जाते हैं उसकी छटा भी उनकी कुछ कविताओं में देखी जा सकती है। संग्रह में एक कविता है ‘‘है यह समय विचित्र’’। इस कविता में कवि ने समसामयिक अव्यवस्थाओं और मानवीय चरित्र में आती जा रही ढिठाई का बिना किसी लागलपेट के वर्णन किया है अतः इस कविता की दृश्यात्मकता मन पर गहरे असर डालती है-
है यह समय विचित्र, समय की बड़ी विफलता।
सभी सफलता मंत्र, पड़ गये आज पुराने
हुई कौन सी भूल, भला जाने-अनजाने,
जिनके कारण हुए विफल, छिन गई सफलता।
ग्राम, नगर, वन सभी खो चुके हैं निर्मलता,
कचरों के अम्बार, पड़े हैं बीच सड़क पर,
नाली हैं अवरुद्ध, हो रहे प्रजनित मच्छर,
कचरा घूरे छोड़, भरी नाली में डलता।
अहंकार अति प्रबल हृदय इक इक में पलता,
मैं क्यों मानूं बात, किसी से नहीं डरूंगा,
मोटर साइकिल कार, सड़क पर खड़ी करूंगा,
करूं मार्ग अवरूद्ध, किसी के कहे न चलता।
सब जन हुये कठोर, क्षरित हो गई तरलता।
कलुष ग्रस्त हैं चित्त, मिट चुकी है निश्छलता।।
       कवि ने उन लोगों पर भी कटाक्ष किया है जो राजनीतिक वातावरण से प्रभावित हो कर अपना काव्य सरोकर बदल लेते हैं। ‘‘मैं छोटा कवि कहलाऊंगा’’ शीर्षक कविता में कवि पी.आर. मलैया इस विश्वास के साथ लिखते हैं कि जनसरोकार ही काव्य को दीर्घजीवी बनाता है-
तुमको लोग महान कहेंगे, मैं छोटा कवि कहलाऊंगा,
सब भी लोगों के अधरों पर, कवि मैं ही गाया जाऊंगा।
महाकाव्य का सृजन करो तुम, ले कोई गाथा पौराणिक,
राम, कृष्ण, हनुमान, बुद्ध-सा, चुन लो कोई कवि तुम नायक,
शौर्य, बुद्धि, कौशल, मर्यादा, या कि ज्ञान के बनो उपासक,
मेरा क्या मैं तो हूं केवल, लोकवेदनाओं का गायक,
तुम चमको साहित्यगगन में, मैं तो मात्र झिलमिलाऊंगा,
तब भी लोगों के अधरों पर, कवि मैं ही गाया जाऊंगा।
    सागर नगर के ही निमिष आर्ट एंड पब्लिकेशन सागर से मुद्रित यह काव्य संग्रह कवि पी.आर. मलैया की उन कोमल भावनाओं से भी परिचय कराता है जो उनके खुरदुरे यर्थाथपरक जनवादी स्वरों के भीतर मौजूद हैं। बस, इस संग्रह में सबसे बड़ा दोष है इसमें प्रूफ की अनगिन त्रुटियां। चूंकि संग्रह की कविताओं में संस्कृतनिष्ठ क्लीष्ट शब्दों का भी बाहुल्य है अतः प्रूफ की त्रुटि और अधिक कष्टदायक है। जहां तक कविताओं का प्रश्न है तो वे उत्तम हैं और पठनीय हैं।
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