Friday, March 3, 2023

चर्चा प्लस | अभी गांवों में शेष है हमारा असली अस्तित्व | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
अभी गांवों में शेष है हमारा असली अस्तित्व
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       यह कोई फिल्मी डाॅयलाग नहीं है कि हमारा अस्तित्व अभी भी गांवों में शेष है। यही सच है। लेकिन हम इसे भी धीरे-धीरे भुलाते जा रहे हैं। हमने खुद को भौतिकता की गति और दुगर्ति में झोंक दिया है। हम शहरी जो स्वयं को सभ्य समझते हैं, अपने पड़ोसी से भी तब तक बात करना गवारां नहीं करते हैं जब तक कि उससे हमारा कोई स्वार्थ न हो। अपने पड़ोसी या परिचितों के सुख-दुख से हमारा नाता महज़ दिखावे का रह गया है। लेकिन गांवों में ऐसा नहीं है। वहां अभी भी तमाम विसंगतियों, कठिनाइयों के बाद भी परस्पर चिंता और मिलनसारिता का भाव पाया जाता है। चलिए मैं साझा करती हूं अपने कुछ अनुभव जिन्हें पढ़ कर शायद आपको भी अपने अनुभव याद आ जाएं और आप महसूस सकें मेरे कथन की सत्यता को।  

अभी पिछली बजरिया की घटना है। पहले मैं बजरिया के बारे में बता दूं। मेरे रिहायशी क्षेत्र रजाखेड़ी में सप्ताह में दो बार बड़े पैमाने में सब्जी बाज़ार लगता है। रविवार और बुधवार को। रविवार और बुधवार को भरने वाला यह बाज़ार स्थानीय सब्जी विक्रेताओं के साथ ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले सब्जी विक्रेताओं से भी भरा होता है। हरी, ताज़ा सब्ज़ियां देख कर यह तय करना कठिन हो जाता है कि कौन-सी सब्जी ली जाए और कौन-सी छोड़ी जाए? हर सब्जी अपने थैलों में भर लेने का मन करता है। मैं आमतौर पर अब बजरिया कम जाती हूं। लेकिन पिछली बजरिया में मुझे जाना पड़ा। दरअसल, मुझे मुनगें (कोसें या ड्रमस्टिक) खरीदना था जो काॅलोनी में आने वाले सब्जी वाले ला नहीं रहे थे। तो सोचा कि संध्याभ्रमण भी हो जाएगा और मुनगें भी खरीद लाऊंगी। बजरिया पहुंची तो न चाहते हुए भी दो-चार सब्ज़ियां और ले लीं। फिर अंत में मुनगों का नंबर आया जो असल में मैं लेने गई थी। मैंने देखा एक देहाती दूकानदार अपने आगे सिर्फ़ मुनगे सजाए बैठा था। दो प्रकार के मुनगे उसके पास थे। एक मोटे किस्म के और दूसरे पतले-पतले। मैं पतले वाले मुनगें चुनने लगी तो वह दूकानदार मोटे वाले मुनगों की ओर इशारा कर के बोल उठा-‘‘बाई, दाल के लाने चाउने होय सो जे अच्छे रैंत आएं।‘‘ अर्थात् यदि दाल में डाल कर पकाना हो तो ये मोटे वाले मुनगें ठीक रहेंगे।
‘‘काय जे पतरे वारन में का बुराई आंए? जे सो जल्दी पक जाहें।’’ मैंने भी उससे बुंदेली में पूछा कि इन पतले मुनगों में क्या खामी है? ये तो जल्दी पक जाएंगे।
‘‘इनको स्वाद अलग रैत आए।’’ उसने फिर मोट वाले मुनगों की सिफारिश की।
‘‘काय जे बिक नोईं रए का, जो आप हमें पकरा रए।’’ मैंने उससे मजाक में कहा।
‘‘अरे, आपको पतो नइयां, जे इनकी टमाटर के संगे खूब नोनी चटनी बनत आए। आपने कभऊं खाई?’’ उसने पूछा।
‘‘नईं! हमने सो दाल में डार के पकाओ आए औ आलू टमाटर के संगे सब्जी बनाई आए।’’ मैंने उसे बताया।
‘‘ये लेओ! हमें पतो रओे के आपने कभऊं ने खाओ हुइए। आप कभऊं ऐसो करो के हमाए इते गांव आइयो, सो आपके लाने आपकी भौजी से ईकी अच्छी चटनी बंटवा देबी। गांकड़न के संगे खूबई नोनी लगत आएं।’’ वह सब्जीसाला उत्साह से भर कर बोल उठा। उसने मुझसे कहा कि मैं जानता था कि आपने कभी इसकी चटनी नहीं खाई होगी। तो आप ऐसा करना कि कभी मेरे गांव आना तो आपके लिए आपकी भौजी से इसकी यानी मुनगों की बढ़िया चटनी बनवा दूंगा, मोटी रोटियों के साथ अच्छी लगती हैं।
यानी उसने मुझे अपने गांव आने का निमंत्रण दे दिया, चटनी खिलाने का आफॅर दिया और अपनी पत्नी को मेरी भौजी यानी भाभी बता कर तुरंत मेरा भाई बन गया। एक ही संवाद में इतना सब कुछ।
‘‘आपको गंाव कहां है?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘गिरवर के पास। बस गिरवर स्टेशन पे उतरियो औ कोनऊं से पूछ लइयो हमाओ गांव, उते से पासई आए।’’ उसने अपने गांव का नाम बताते हुए कहा।
‘‘हऔ, कभऊं आबी!’’ मैंने उसे आश्वासन दिया।
‘‘कओ तो अगली बजरिया आपके लाने चटनी बंटवा लेत आहों।’’ वह और अधिक उत्साहित हो कर बोला।
‘‘नहीं-नहीं! मैं जब आपके गांव आऊंगी तभी वहीं खाउंगी, ताज़ा बंटी चटनी।’’ मैंने उसे समझाया और उसकी बातों से प्रभावित हो कर मैंने पतले मुनगों के साथ चार-छः मोटे मुनगें भी खरीद लिए। मैं जानती थी कि फ्रिज में ये कई दिन ताज़ा रहेंगे। सांभर का स्वाद तो मुनगों से ही आता है। जैसे-जैसे गर्मी पड़नी शुरू होती है, मेरी दाल में लहसुन के तड़के के बजाए सांभर मसाला पड़ने लगता है। बस, इसीलिए तो मुनगें खरीदने मैं बजरिया जा पहुंची थी। जहां मुझे वह ग्रामीण सब्जीवाला मिल गया। जिसकी आत्मीयता ने मुझे कई पुरानी घटनाएं याद दिला दीं। यह अपनत्व शहरी सब्जीवालों में नहीं मिलता है। यदि वे अपनत्व प्रकट भी करते हैं तो उसका बनावटीपन पहले ही छलक पड़ता है कि ये प्रोफेशनल अपनत्व है, दिल से निकला हुआ नहीं।
सब्जी ले कर घर लौटते समय मुझे याद आया कि जब मैं ‘‘पत्तों में कैद औरतें’’ किताब लिखने के लिए उन औरतों से मिलने गांव-गांव भटक रही थी जो तेंदू पत्ता तोड़ती हैं, तब मुझे एक गांव में ऐसा ही दिलचस्प अनुभव हुआ था। ये बात है सागर से छतरपुर के बीच बड़ा मलहरा के पास के एक छोटे से गांव की। वनपरिक्षेत्र में बसे इस गांव में अधिक से अधिक बीस घर रहे होंगे। सभी मिट्टी और घास-फूंस के। लेकिन करीने से लिपेपुते। एकदम साफसुथरे। वहां के रहवासियों के कपड़ों को देख कर ही वहां की माली हालत का पता चल रहा था। घर के बाहर आंगन में लकड़ी के मोटे लट्ठों पर खांचे बना कर मटके रखने का स्टैंड बनाया गया था। जिसे देख कर उनके हस्तकौशल का अनुमान लगाया जा सकता था। वह समय दोपहर बाद का समय था। तेंदू पता तोड़ कर सुखाने के लिए ठेकेदार के पास जमा करा कर कुछ औरत- आदमी घर लौट चुके थे और कुछ लौटने वाले थे। मुझे आया हुआ देख कर वहां मौजूद महिलाओं मुझे घेर लिया। वे जानने को उत्सुक थीं कि मैं उनके गांव क्यों आई हूं। मैंने उन्हें बताया कि मैं उनसे उनके काम के बारे में जानने आई हूं तो उनमें से एक बोली,‘‘तनक सुस्ता लेओ। चाय-माय पी लेओ, फेर बात करबी।’’
मुझे उसकी बात सुन कर बहुत अच्छा लगा क्योंकि शहरी क्षेत्र का मेरा अनुभव इससे भिन्न था। एक बार एक अधिकारी से कुछ जानकारी लेने उससे समय तय कर के उसके निवास पर पहुंची। तो पहले तो उसने मुझे आधा घंटा प्रतीक्षा करवाई। फिर अपनी व्यस्तता का प्रदर्शन करते हुए बोला,‘‘हां, तो बताइए कि आप मुझ से क्या जानना चाहती हैं?’’ ठेठ दो-टूक लहज़ा। चाय तो दूर, पानी पूछने की भी सभ्यता उसने नहीं दिखाई। बहरहाल मुझे जो जानकारी चाहिए थी उस पर उससे चर्चा की और वहां से सूखे गले ही वापस आ गई। एक बूंद पानी के योग्य भी उसने मुझे नहीं समझा। जोकि हर आगंतुक के लिए सबसे पहले पेश किया जाना चाहिए।
वहीं उस गांव की महिला मुझसे कह रही थी कि मैं पहले सुस्ता लूं, चाय पी लूं, फिर जो पूछना चाहती हूं, वह पूछूं। यही तो इंसानीयत है जो उन ग्रामीणों में शेष है जिन्हें हम तथाकथित सभ्य लोग अनपढ़, गंवार कह देते हैं। उन्होंने मुझे लोटा भर पानी दिया पीने को, चाय पिलाई और वापसी के समय मेरी पानी की बोतल में लबालब पानी भर दिया। जबकि उन्हें तीन-चार किलोमीटर दूर से पानी ढो कर लाना पड़ता था। उनका यह अपनापन देख कर मेरी आंखों में आंसू आ गए थे। उनसे विदा लेते समय मुझे ऐसा लगा था कि जैसे मैं अपनी बहनों, अपने परिवार से विदा ले रही हूं। यही तो गांव का असली चेहरा है जो हमें लुभाता है, अपनी ओर खींचता है और अपनेपन के सच्चे अर्थ समझाता है।
सोचने की बात तो ये है कि उनके अपनेपन के बदले हम शहर वाले उन्हें क्या दे रहे हैं? भूख, प्यास, दिखावा, विस्थापन, पलायन की मजबूरी- यही सब न?
एक घटना और है जो मुझे आज भी ताज़ा सी लगती है। उन दिनों मैं ज़मीनी पत्रकारिता कर रही थी। पन्ना जिले के पुरैना ग्राम जाने का अवसर मिला। उन दिनों तो बहुत छोटा-सा गांव था। उन दिनों फसल कट चुकी थी और खेतों में फसल के कटे हुए तने जड़ सहित (ठूंठ, ठडूले) खड़े थे। उनमें बहुत तेज धार होती है। उन पर पैर पड ़जाने पर पैर में गहरा घाव हो जाता है। मुझे इसका अंदाज़ा नहीं था। मैं और मेरे साथी पत्रकार बात करते-करते बेख़याली में खेत के उस हिस्से में पहुंच गए जहां वे कटे हुए तने थे। मरो दायां पांव उनमें से एक पर पड़ गया और वह तना मेरे जूते को छीलता हुआ पांव में लगभग धंस गया। असहनीय दर्द शुरू हो गया। साथी पत्रकारों के पास सलाहें तो बहुत थीं लेकिन ईलाज एक भी नहीं था। तभी खेत के पास ही काम कर रहे एक खेतिहर मजदूर ने मेरी दशा देखी तो दौड़ा-दौड़ा आया।
‘‘जो का कर लओ! देख के नईं चल सकत्तीं।’’ उसने मेरा घाव देख कर चिंता जाहिर करते हुए मुझे झिड़क भी दिया। बिलकुल किसी परिजन की तरह। जो चिंता भी करता है और डांटता भी है, लगभग एक साथ। मैं अपना पांव पकड़ कर वहीं बैठ गई थी। उसने साधिकार मेरा हाथ पकड़ कर मेरा हाथ हटाते हुए कहा,‘‘तनक मोए तो देखन देओ।’’ यानी ज़रा मुझे तो देखने दो। मुझे उसकी यह हरकत ज़रा भी बुरी नहीं लगी क्योंकि उसमें अपनत्व था, मेरे प्रति चिंता थी, दिखावा बिलकुल भी नहीं।
फिर उसने आवाज़ दे कर एक बच्चे से पानी और चूल्हे की राख मंगाई और खुद कोई पत्ते तोड़ लाया। शायद आंक और छेवला यानी सागौन के पत्ते थे। उसने खुद अपने हाथों से मेरे पैर का घाव धोया। उस पर आंक के पत्ते का रस लगाया। फिर उस पर राख मल दी और फिर उसके ऊपर सुतली से छेवला के पत्ते बांध दिए।
‘‘बस, हो गओ! अबई देखियो, पांच मिनट में दरद ठीक हो जेहे। जे पत्ता चौबीस घंटे के पैले ने खोलियो।’’ उसने मुझे हिदायत दी।
मैं झूठ नहीं कहूंगी कि मुझे उसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उस राख को ले कर मैं सशंकित थी कि कहीं कोई इंफेक्शन न हो जाए। लेकिन सचमुच पांच मिनट बाद दरद ठीक हो गया और मैं अपने पांव पर चलने की स्थिति में आ गई। आज मैं सोचती हूं कि मैं उसकी कौन थी जो उसने मेरी इतनी चिंता की? कोई नहीं! मैं उसकी कोई नहीं थी। न तो मैं उसका नाम जानती थी और न वो मेरा नाम जानता था। चोट लगने के पहले तक हमने एक-दूसरे की ओर देखा तक नहीं था। लेकिन मेरी चोट और मेरी पीड़ा ने उसे मेरे करीब ला दिया। वह भी इतने निःस्वार्थ भाव से कि ईलाज करने के बाद हमारे बीच फिर कोई नाता नहीं रहा। जबकि हमने अपने शहरों को इतना बदल लिया है कि अब यहां दुर्घटना, चोट और किसी की कराह सोशल मीडिया के लिए वीडियोग्राफी का विषय होती है। यदि किसी ने किसी की मदद कर भी दी तो वह बदले में कुछ न कुछ पा लेने की चाहत में लगा रहता है। जबकि गंावों में आज निःस्वार्थ आत्मीयता अभी शेष है।
      मुनगे वाले से मेरी वार्ता हुई। उसने भौजी के हाथों बनी चटनी खिलाने का निमंत्रण भी दिया लेकिन न तो मुझे उसका नाम पता है और न उसने मेरा नाम पूछा। बस, उसने अपने गांव का नाम मुझे बताया क्योंकि शायद वह जानता है कि यही उसकी असली पहचान है। काश! की गांव का वह अपनत्व और निःस्वार्थभाव संवेदनहीन होते अपने शहरों में भी हम फिर से ला सकें। क्योंकि मनुष्यत्व ही तो मनुष्य होने की असली पहचान है, हमारा असली अस्तित्व है, जिसे हम खोते जा रहे हैं।
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1 comment:

  1. बढिया पोस्ट। उम्मीद है आपके मुनगे की सब्ज़ी अच्छी बनी होगी।

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