Sunday, March 26, 2023

जब लोकजीवन नाट्यशास्त्र से मिलता है तो बज उठता है रमतूला - कलासमीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

🎭 कल शाम स्थानीय रविंद्र भवन में एक बहुत रोचक नाटक मंचित किया गया... जिसकी मेरे द्वारा की गई समीक्षा आज "आचरण" समाचार पत्र में प्रकाशित हुई है। इसे पढ़कर आप नाटक की विशेषताओं के बारे में जान सकेंगे📣🌷
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🎭 नाट्य समीक्षा
*बुंदेली हास्य नाटक ‘‘ऐरी बऊ...कबे बज हे रमतूला’’ का सफल मंचन*
*जब लोकजीवन नाट्यशास्त्र से मिलता है तो बज उठता है रमतूला*

- कलासमीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

लोक ही जनमानस, जनचिंतन और जनजीवन का असली एवं मौलिक स्वरूप होता है। इस लोकजीवन में सभी नौ रस मौजूद होते हैं। कठिन श्रम करने वाला आमजन जब हास्य में अपनी कठिनाइयों का हल ढूंढता है और इसी प्रक्रिया से जन्म लेते हैं ‘‘ऐरी बऊ... कबे बज हे रमतूला’’। दरअसल रमतूला एक बुंदेली वाद्ययंत्र हैॅ जिसका सीधा संबंध शुभकार्यों से है। आज भी ग्रामीण अंचल में वैवाहिक अवसरों पर रमतूला बजवाया जाता है। इसीलिए इस वाद्य ने विवाह के संदर्भ में एक कहावत का भी रूप ले लिया है। घर में रमतूला बजना अर्थात् विवाह सम्पन्न होना। सागर नगर की अग्रणी नाट्य संस्था अन्वेषण थिएटर ग्रुप द्वारा बुंदेली हास्य नाटक ‘‘ऐरी बऊ... कबे बज हे रमतूला’’ का सफल मंचन किया गया। बुंदेली लोकनाट्य शैली स्वांग पर आधारित इस नाटक का लेखन और निर्देशन किया वरिष्ठ रंगकर्मी जगदीश शर्मा ने, जो नाट्यकला क्षेत्र ही नहीं वरन फिल्मी दुनिया में भी अपनी विशेष पहचान रखते हैं। जहां तक स्वांग का प्रश्न है तो उसका मूलस्वर हास्य और व्यंग्य है।
      इस मूलतः बुंदेली नाटक पर चर्चा करने के पूर्व जरूरी है उल्लेख करना इसके टिकट एवं ब्रोशर का। चूने या छुईमिट्टी नीला रंग मिला कर तैयार किए गए रंग से घर की बाहरी दीवार, गहरे नीले रंग का लकड़ी का पररंपरिक दरवाज़ा, दरवाज़े पर बने आले में स्वस्ति चिन्ह, चिन्ह के साथ लिखा ‘शुभ विवाह’, उसके नीचे आम के पत्तों का तोरण और दरवाज़े की बायीं ओर मंगलकलश- इस सुंदर दृश्य के साथ ठेठ बुंदेली वैवाहिक टिकट एवं ब्रोशर। लेकिन सस्पेंस यह कि ‘कबे बज हे रमतूला?’’ यानी विवाह की तैयारियां पूरी हैं लेकिन कहीं कोई मसला है जिसके कारण रमतूला नहीं बज पा रहा है। ऐसे टिकट एवं ब्रोशर को ‘‘हुकअप इंविटेशन’’ कहते हैं जो थिएटर में पहुंचने से पहले ही दर्शकों को अपने साथ जोड़ लेता (हुक कर लेता) है। ऐसी गहन दृष्टि रखने वाले नाट्यदल का नाटक सफल होना ही था। नाटक में कन्हैया यानी कल्लू के रोल को कपिल नाहर ने बखूबी निभाया। वैसे सभी कलाकारों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया।
     कहानी एक ऐसे बुंदेली ग्रामीण परिवार की है जहां विवाह की दृष्टि से प्रौढ़ होते युवक का कई बाधाओं के चलते विवाह नहीं हो पा रहा है, जिससे आकुल होकर वह बार-बार पूछता है कि मेरा रमतूला कब बजेगा यानी मेरा विवाह कब होगा? बाधाओं से दो-चार होते हुए इस परिवार और युवक की छटपटाहट हर पल एक हास्य पैदा करती है और साथ ही सोचने पर विवश करती है। इस नाटक का कथानक मर्मस्पर्शी है,  संदेशप्रद है तथा हास्य रस का संचार करने में भी पूर्ण सक्षम है। सभागार रह-रह कर हंसी और ठहाकों से गूंजता रहा। अभिनय, वस्त्र विन्यास, मंच सज्जा, प्रकाश प्रभाव तथा पार्श्व संगीत के साथ ही बुंदेली लोकगीतों के सटीक उपयोग ने इस नाटक को प्रभावी बनाने में अपना पूरा योगदान दिया । 
       दर्शकों से खचाखच भरा सभागार नाटक की सफलता का प्रमाण प्रस्तुत करता रहा। इस
 नाटक की रोचकता इसे बार-बार देखे जाने का आह्वान करती है। 
      इस नाटक को सफल बनाने में जिन लोगों का योगदान रहा वे थे-  *मंच पर*- संदीप दीक्षित, दीपक राय, देवेंद्र सूर्यवंशी, आयुषी चौरसिया, सुमित दुबे, अमजद खान, मनोज सोनी, अतुल श्रीवास्तव, सतीश साहू, ज्योति रैकवार, ग्राम्या चौबे, आस्था बानो, हर्षिता तिवारी, निधि चौरसिया तथा पांडे महाराज के रोल में स्वयं जगदीश शर्मा ने अपने अभिनय का लोहा मनवाया। वही, *मंच से परे* - मंच प्रबंधन सम्हाला डॉ. अतुल श्रीवास्तवने। गायक संजय साहू एवं मितेंद्र सिंगर, वादक गौरव तिवारी, संजय साहू, अतुल श्रीवास्तव, जगदीश शर्मा ने अपनी आवाजों से रंग भरा तो वहीं समूह गायन में सुमित दुबे, सतीश साहू, मनोज सोनी, अतुल श्रीवास्तव एवं आयुषी चौरसिया का स्वर रहा। लोकगीत पारंपरिक चौकड़िया गीत रचना सतीश साहू की, नृत्य निर्देशन आस्था बानो का, दृश्य परिकल्पना राजीव जाट, सेट निर्माण प्रेम जाट एवं देवेंद्र जाट द्वारा, प्रकाश परिकल्पना संदीप दोहरे की, वस्त्र विन्यास अतुल श्रीवास्तव का, ब्रोशर डिजाइन तरुणय सिंह, ध्वनि प्रभाव संचालन मासूम आलम का रहा तथा सहयोगी रहे रविन्द्र दुबे कक्का, अश्विनी साहू, कृष्ण भाटिया एवं अजय यादव का।
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🚩हार्दिक आभार #आचरण 🙏
🚩हार्दिक बधाई भाई Jagdeesh Sharma  ji एवं भाई Atul Shrivastava   ji🙏 
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