चर्चा प्लस
जलवायु परिवर्तन की तेज गति में जरूरी है लचीली कृषि पद्धति
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
पिछले कुछ वर्षों से जलवायु परिवर्तन और लचीली कृषि पद्धति बहुत चर्चाएं हुई हैं। यह एक बहुत ही आवश्यक चर्चा है। लेकिन मुझे लगता है कि हमें जलवायु परिवर्तन की गति के बारे में गंभीरता से जानने की आवश्यकता है ताकि हम भविष्य की कृषि के लिए सही रणनीति बना सकें। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। जलस्तर घट रहा है। हम कभी नहीं चाहेंगे कि हमारा भी माया सभ्यता जैसा हश्र हो। ऐसा माना जाता है कि माया सभ्यता भयंकर सूखे के कारण समाप्त हो गई थी, जबकि उनकी सिंचाई प्रणाली उच्च गुणवत्ता वाली थी। माया सभ्यता को याद करने का कारण यह है कि हम इन दिनों पूरी दुनिया में पर्यावरण शरणार्थियों या जलवायु शरणार्थियों की बढ़ती संख्या देख रहे हैं। इसलिए दुनिया के कई देशों में लचीली कृषि पद्धति यानी रेजिलिएंट एग्रीकल्चर को अपनाया जा रहा है।
मैं कोई प्राणीशास्त्री नहीं हूँ, मैं कोई कृषिशास्त्री नहीं हूँ, मैं कोई मृदाशास्त्री नहीं हूँ। लेकिन मैं एक पृथ्वीवासी हूँ। पृथ्वी को बचाने की दिशा में सोचना करना मेरा भी कर्तव्य है। मूल रूप से मैं एक लेखिका हूं और पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में आवाज़ उठाती रहती हूंँ और मैं आने वाली पीढ़ी के लिए एक सुंदर स्वस्थ समाज और एक सुरक्षित पृथ्वी चाहती हूँ। स्वस्थ समाज और सुरक्षित पृथ्वी दोनों ही संतुलित जलवायु पर निर्भर हैं।
मौसम में अनियमितता, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और जंगलों का विनाश आदि कुछ ऐसे कारण हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं। यहाँ एक नजर डालते हैं कि बाढ़ और हमारी गर्म होती दुनिया के बीच क्या संबंध है। हाँ! केवल एक चीज और वह है जलवायु परिवर्तन।
जलवायु परिवर्तन हमें तापमान और मौसम में अनियमितताओं के रूप में लगातार चेतावनी दे रहा है। दुर्भाग्य से हम उसे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इस तथ्य को हमेशा याद रखने की आवश्यकता है कि पहले केवल युद्ध शरणार्थी थे लेकिन अब पर्यावरण शरणार्थी हैं। सूडान और सोमालिया जैसे अफ्रीकी देशों में प्राकृतिक आपदाओं के कारण गृह युद्धों की तुलना में अधिक लोग शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हुए हैं। उनके गाँवों में पानी के स्रोत सूख गए, पानी की अनुपलब्धता के कारण उनके मवेशी मर गए और उनकी खुद की जान खतरे में पड़ गई। जिसके कारण उन्हें अपना गाँव, घर छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन उनका यह विस्थापन अवैध है क्योंकि पर्यावरण शरणार्थियों को शरण देने का कानून अभी तक किसी भी देश में नहीं बना है। ऐसे शरणार्थी, वास्तविक शरणार्थी होते हुए भी न तो शरणार्थी कहलाते हैं और न ही उन्हें कोई मदद मिलती है। ऐसा अनुमान है कि पर्यावरण परिवर्तन के कारण 2050 तक अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण एशिया से लगभग 140 मिलियन लोग पर्यावरण शरणार्थी के रूप में अपनी मुख्य भूमि को छोड़कर अन्य भूमि पर चले जाएंगे। भारत में भी पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही है। ये शरणार्थी पानी की अनुपलब्धता के कारण अपने गांवों को छोड़कर बड़े शहरों में काम की तलाश में भटक रहे हैं और दिहाड़ी मजदूर के रूप में अपना जीवन यापन करने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण देखते हैं कि हर दिन किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें आती रहती हैं। सरकार किसानों को हर संभव मदद देती है। फिर ये आत्महत्या क्यों? अगर राजनीतिक चश्मा उतारकर देखा जाए तो कारण समझ में आ जाएगा। आखिर सरकार द्वारा दिए गए पैसे से न तो फसल उगाई जा सकती है और न ही उसे बचाया जा सकता है। फसल उगाने के लिए पानी एक बुनियादी आवश्यकता है। हमारी लापरवाही के कारण पानी के स्रोत खत्म होते जा रहे हैं। तो भविष्य के लिए हमारा कृषि प्रयास क्या है? यही मुख्य बात है। इसलिए हमें जलवायु परिवर्तन की गति के बारे में जानना होगा। ताकि हम भविष्य की कृषि के लिए सही रणनीति बना सकें।
मैं एक इतिहासकार हूं। इसलिए, आदतन मैं हमेशा अपनी एक नजर अतीत पर और दूसरी नजर भविष्य पर रखती हूं। सैंकड़ों साल पहले हमारी धरती पर माया सभ्यता मौजूद थी लेकिन कुछ कारणों से यह सभ्यता खत्म हो गई। माया सभ्यता के अंत के पीछे क्या रहस्य है, वैज्ञानिक इसे जानने की आज भी कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में इस संबंध में एक और शोध सामने आया है। ऐसा कहा जाता है कि माया सभ्यता का अंत 100 साल से भी ज्यादा समय तक लगातार पड़े सूखे के कारण हुआ था। इसके लिए शोधकर्ताओं ने मरीन लाइफ बेलीज के मशहूर ‘‘ब्लू होल’’ और उसके आसपास पाए जाने वाले लैगून से लिए गए खनिजों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि 800 से 900 ईस्वी के बीच भयंकर सूखा पड़ा था, जो माया सभ्यता के अंत का मुख्य कारण बना। ‘‘लाइव साइंस’’ की रिपोर्ट के मुताबिक, 6वीं सदी से 10वीं सदी तक भयंकर सूखा पड़ा था। अब जरा भारत के वर्तमान पर दृष्टिपात करें तो भारत जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। बारिश के स्वभाव में बदलाव के कारण हिमालयी राज्यों की कई नदियों ने अपना रास्ता बदल लिया है। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि मौसम अजीब व्यवहार करने लगा है। पिछले कुछ दशकों में अरुणाचल प्रदेश और असम के कई गांव बह गए हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण कई नदियों ने अपना रास्ता बदल लिया है। पूर्वोत्तर भारत में काफी बारिश होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक पिछले कुछ दशकों में बारिश का स्वभाव बदल गया है। अब भारी और लंबे समय तक बारिश हो रही है। इस वजह से नदियों में बाढ़ आ रही है। भूगर्भीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कुछ नदियों ने 300 मीटर दूर तक अपना रास्ता बदल लिया है, जबकि अन्य जगहों पर वे 1.8 किलोमीटर दूर चली गई हैं। नई दिल्ली स्थित विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के अनुसार सामान्य जलवायु परिस्थितियों में पूरे साल वर्षा अच्छी तरह से वितरित होती थी, किन्तु अब ऐसा नहीं हो रहा है।
अगर हम कृषि की दशा परं ध्यान देंगे तो हमें मिट्टी की चीखें सुनाई देंगी। हाँ! अगर मिट्टी बोल सकती तो अपने साथ हो रहे अन्याय का विरोध करती। पिछले कुछ दशकों में हमने उस मिट्टी के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। जो मिट्टी हमें अनाज, फल, फूल, सब्जियाँ देती है, हमने उसे रासायनिक पदार्थों से दूषित कर दिया है, कभी रासायनिक खाद से, कभी रासायनिक और प्लास्टिक कचरे से तो कभी उसकी नमी को सुखाकर। अब स्थिति यह है कि हम पारंपरिक कृषि पद्धति से अपनी भविष्य नहीं बचा सकते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि हमें समय रहते लचीली कृषि पद्धति को अपना लेना चाहिए जो कम से कम पानी में भी उत्पादन दे कर हमारा पेट भर सके। जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशील फसलों की 35 किस्मों में चने की सूखा झेलने वाली किस्म, मुरझान और बांझपन मोजेक प्रतिरोधी अरहर, सोयाबीन की जल्दी पकने वाली किस्म, चावल की रोग प्रतिरोधी किस्में और गेहूं, बाजरा, मक्का और चने की जैव-फोर्टिफाइड किस्में शामिल हैं। हमें कृषि विज्ञान पद्धति में और अधिक विकास की आवश्यकता है जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपट सकें। उदाहरण के लिए, लचीली कृषि पद्धति को जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध उत्तम उपाय माना जा रहा है। सरल शब्दों में का जाए तो उन फसलों की, उस पद्धति से खेती किया जाना जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर सकें। जी हां, रेजिलिएंट एग्रीकल्चर या जलवायु-लचीली कृषि का अर्थ है ऐसी कृषि पद्धतियां जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेलने और उनके अनुकूल होने में सक्षम हों. इसमें बदलते मौसम के अनुकूल फसलें उगाना, पानी का संचयन, और मृदा स्वास्थ्य को बनाए की क्षमता हो।
जलवायु-अनुकूल कृषि के कुछ बुनियादी सिद्धांत हैं जिनसे इसकी विशेषताओं को समझा जा सकता है-
1. विविधीकरण- विभिन्न प्रकार की फसलें उगाना और विविध कृषि पद्धतियों का उपयोग करना एक ही फसल पर निर्भरता को कम करता है और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ावा देता है।
2. मृदा संरक्षण- बिना जुताई या कम जुताई वाली खेती, कवर क्रॉपिंग और फसल चक्र जैसी प्रथाएँ मिट्टी के स्वास्थ्य को बेहतर बनाती हैं और कटाव को कम करती हैं।
3. जल संचयन- सिंचाई के लिए वर्षा जल को इकट्ठा करना और संग्रहीत करना भूजल पर निर्भरता को कम करता है और जल सुरक्षा को बढ़ाता है।
4. कृषि वानिकी- पेड़ों को खेती की प्रणालियों में एकीकृत करने से छाया मिलती है, मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार होता है और जैव विविधता को बढ़ावा मिलता है।
5. जलवायु मित्र फसलें और पशु किस्में- फसल और पशु किस्मों का उपयोग करना जो बदलती मौसम स्थितियों के प्रति सहनशील हैं, लचीलापन बढ़ाता है।
जलवायु-अनुकूल कृषि के कई लाभ ळैं जिनमें से कुछ प्रमुख लाभ हैं-
1. बेहतर फसल पैदावार- जलवायु अनुकूल कृषि किसानों को बदलती मौसम स्थितियों के अनुकूल ढलने में मदद करती है, जिससे फसल की पैदावार में सुधार होता है और नुकसान कम होता है।
2. बढ़ी हुई खाद्य सुरक्षा- स्थायी कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देकर, जलवायु-अनुकूल कृषि खाद्य उपलब्धता और पहुँच सुनिश्चित करती है।
3. बढ़ी हुई आजीविका- जलवायु अनुकूल कृषि किसानों को वैकल्पिक आय स्रोत प्रदान करती है, जिससे उनकी आजीविका में सुधार होता है।
4. पर्यावरण संरक्षण- जलवायु अनुकूल कृषि पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ावा देती है, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करती है और जलवायु परिवर्तन को कम करती है।
यह ज़रूर है कि छोटे किसानों को जलवायु-अनुकूल प्रौद्योगिकियों और पद्धतियों के अनुकूल बनना होगा, सरकारों को जलवायु-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ बनानी होंगी तथा इसके लिए को जलवायु-अनुकूल पद्धतियों को अपनाने के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की सरकार को बडत्रे पैमाने पर व्यवस्था करनी होगी। लेकिन ये चुनौतियां उतनी बड़ी नहीं हैं जितनी की जलवायु परिवर्तन की चुनौती। अगर हम जलवायु परिवर्तन की गति को धीमा नहीं कर सकते, तो हमें बर्फ और आग, बाढ़ और सूखे में भी खेती करना सीखना होगा। क्या हम ऐसा कर पाएंगे? इस बारे में सोचते हुए कृषि की लचीली पद्धति को अपनाना होगा। यह अच्छा है कि ज्वार और बाजरे को अपने मुख्य खाद्य में अपना कर और इसकी खेती को बढ़ावा देकर हम लचीली कृषि पद्धति की ओर कदम बढ़ा चुके हैं।
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