Tuesday, May 6, 2025

पुस्तक समीक्षा | भारतीय लोक-चेतना के ब्रह्मांड से परिचित कराती पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 06.05.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा

भारतीय लोक-चेतना के ब्रह्मांड से परिचित कराती पुस्तक
समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - इतिहास-बोध और भारतीय लोक दृष्टि
लेखक      - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक   - नेशनल पब्लिकेशन्स, श्याम फ्लैट्स, फतेहपुरियों का दरवाजा चौड़ा रास्ता, जयपुर-302 003
मूल्य       - 495/-
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लोक के संदर्भ में लोक संस्कृतिविद डॉ श्याम सुंदर दुबे की एक अपनी मौलिक अंतर दृष्टि है। वह प्रत्येक वस्तुओं तथ्यों परिस्थितियों तथा सांसारिक गतिविधियों को अपनी दृष्टि से देखते परखते और उसकी व्याख्या करते हैं। लोक संसार पर केंद्रित उनके ललित निबंध लोक के ललित से सहज ही जोड़ देते हैं। डॉ दुबे के ललित निबंधों को पढ़ना गद्य के लालित्य में विचरण करने के समान होता है। उन्होंने बुंदेलखंड के ग्रामीण परिवेश को दिया है और उसके लोक तत्व की समय-समय पर सुंदर व्याख्याएं प्रस्तुत की है।
    “लोक” एक बहु प्रचलित शब्द है किंतु उसका पर्याय अथवा अर्थ ठीक-ठाक बता पाना सबके लिए आसान नहीं है। लोक किसे कहेंगे? यह प्रश्न उलझन में डाल देता है। हम जिस वातावरण में रहते हैं क्या वही लोक है? या फिर लोक वह है जिसमें जातीय स्मृतियां एवं साझा सांस्कृतिक मूल्य होते हैं? इन सभी प्रश्नों के उत्तर निहित है डॉ श्यामसुंदर दुबे की पुस्तक “इतिहास-बोध और भारतीय लोक दृष्टि” में।
     पुस्तक की भूमिका में ही लेखक डॉ दुबे ने लोक के प्रति अपने दृष्टिकोण की स्थापना के संबंध में जो लिखा है वह परिचयचयात्मक रूप से लोक की संपूर्णता को परिभाषित करने में सक्षम है। भूमिका का एक अंश देखें की कितनी सुंदरता से और कितने ललित पूर्ण ढंग से वह लोक के स्पंदन को प्रतिध्वनित करते हैं। वे लिखते हैं कि- “मैंने जिन लोक आशयों को आत्मसात किया है अमूमन वे मेरे आस-पास के अंचलगत प्रसार में व्याप्त लोकानुभव ही रहे हैं। इन लोक आशयों में मैं अपने परिगत के सन्दर्भों और जीवन-मूल्यों को प्राप्त करता रहा हूँ। यह एक तरह से लोक की वह जीवन-व्याप्ति थी जिससे जीवन को खोजने का सिलसिला प्रारम्भ होता है और जीवन को रचने की दृष्टि भी प्राप्त होती है। एक छोटे से गाँव की संकरी-सी गली में स्थित छोटे मकान के सीमित जनों वाले परिवार में मेरा पालन-पोषण हुआ। एक संसार था मेरी आँखों में जिसे मैं अपने बचपन में बहुत बड़ा संसार मानता था। एक अदद नाला, दो-तीन अमराइयाँ, चालीस-पचास घर की बस्ती! सौ-पचास खेतों में फैला कृषि का रकबा ! दो-चार सौ ढोर-डांगर और आठ-दस जातियों में बँटे परिवार! एक-दो मढ़िया-मन्दिर! तीन-चार किताबें ! दस-बीस चित्र ! एकाध लालटेन ! दो-एक बिसाती-इस परिवेश में सम्पन्न होने वाले शादी-ब्याह! तीज-त्यौहार, उत्सव समारोह! इनमें गाये जाने वाले लोकगीत, इनमें सुनाई जाने वाली कथा-वार्तायें! इन अवसरों पर की जाने वाली साज-सज्जा और इन सब में पलने वाले लोक-विश्वास और लोक आस्थाएँ। तब मेरे बाल-मन को कुछ इस तरह से सम्बोधित करने वाले प्रसंग थे कि मैं अनुभव करता था कि जैसे मैं संसार के केन्द्र में ही उपस्थित हूँ, मुझे यह अनुभव ही नहीं होता था कि मैं एक छोटी-सी जगह का निवासी हूँ। यह अनुभव सीमित लोक को अपार ब्रह्माण्ड में बदलने वाला था। ऐसा इसलिए कि लोक के पास खुला आकाश था-फैली फैली हरी-भरी धरती थी और, युगों के पार झाँकने वाली स्मृति थी-पेड़-पौधों के साथ बातचीत करती जिन्दगी की भाव-यात्रा थी।”
           डॉ श्याम सुंदर दुबे लोक में प्रकृति के तत्वों को देखते हैं, वे मनुष्यों के उल्लास और उत्सव धर्मिता को देखते हैं, वह परंपराओं के प्रवाह और आत्मिक गतिविधियों को देखते हैं। उनके लिए लोक जीवन का समग्र है। “इतिहास- बोध और भारतीय लोक दृष्टि” पुस्तक में संग्रहित लोक से संबंधित उनके निबंध शोधात्मक है जिनके संबंध में डॉ दुबे ने स्वीकार किया है कि उन्होंने “परंपरागत शोध की शुष्क प्रणाली” को नहीं अपनाया है। वस्तुत इसीलिए इस पुस्तक में संग्रहित उनके निबंध लालित्य पूर्ण हैं तथा पाठक के अंतर्मन से सीधा संवाद करने में सक्षम हैं।
        पुस्तक की संपूर्ण सामग्री को दो खंड में विभक्त किया गया है। प्रथम खंड है “लोक : अभिप्राय” तथा दूसरा खंड है “लोक का अंतर्लोक”।
        प्रथम खंड “लोक : अभिप्राय” कुल 11 निबंध हैं। इस खंड के प्रथम निबंध में लेखक ने “लोक की सौंदर्य शास्त्री भूमिका” में  उस समय का स्मरण किया है जब सागर विश्वविद्यालय में प्रो. श्यामाचरण दुबे कार्यरत थे। लेखक उनके कथन का स्मरण करते हुए उद्धृत करते हैं कि “उन्होंने उस समय कहा था कि लोक का स्वभाव प्रकृति के बाद सर्वोपरि सुन्दर है। हमने उनसे इस बात को विस्तार में जानना चाहा तो उन्होंने कहा था कि विस्तार तो अनन्त है। आप लोग कल्पना कीजिए कि लाखों वर्षों पूर्व जो मनुष्य जंगलों में विचरण करता होगा तो उस समय, समय की धारणा उसके लिए कुछ नहीं थी। उसके लिए वह कालातीत समय रहा होगा। रात-दिन का होना तो एक प्राकृतिक घटना है, ऋतुओं का आना-जाना भी प्राकृतिक परिवर्तन है। उसने इनका तो अनुभव किया होगा, किन्तु वह समयबद्ध नहीं था, क्योंकि उसके पास समय के मापन की धारणा ही नहीं थी। समय था किन्तु समय का बोध नहीं था। इस तरह उसके जीवन में स्थलगत स्थिरता नहीं थी। वह हवा जैसा बहता रहता था।” - लोक का यह परिचय शास्त्रीय मानकों पर भले ही खरा न उतरे किंतु सौंदर्यशास्त्रीय मानक पर एकदम खरा उतरता है। इसी निबंध में लेखक ने लोक की सामुहिता और उसके विभिन्न शेड्स की चर्चा की है तथा उन सब के अनुभवों को एक सिंफनी की तरह बताया है। एक बिल्कुल मौलिक अवधारणा है जो लोक के सांस्कृतिक मूल्यों को उद्घाटित करती है।
        प्रथम खंड के दूसरे निबंध से लोक के जिस प्राकृतिक बोध का आरंभ होता है वह मंगल धारणा से सिक्त होता हुआ किस्सागोई की अभिव्यक्ति में जाकर ठहरता है। दूसरे से ग्यारहवें निबंध तक के शीर्षक देखिए जिनको पढ़कर ही लोक के आचरण का अनुभव जाग उठेगा - वृक्ष-अभिप्राय : मोरे अँगनवा में चंदन के बिरछा, ईश्वर-प्रणय: दुर्बल भक्त द्वार पर खड़ा था, पशु-अभिप्राय : हिरनिया त मन अति अनमन हो, मंगल अभिप्राय : मोती बेराणा चंदन चौक में, सूरज-चंदा अभिप्राय : चंदा-सूरज दोऊ भैया अंगन बिच ऊँगियों, नदी अभिप्राय : बाबुल के रोये गंगा बहत है, मृत्यु के इरादे और लोक- दृष्टिकोण से यौन इरादे, पक्षी इरादा: मेरे तोते गौरैया के साथ जोड़ी, कथा अभिप्राय : किस्सागो का संसार।
       प्रत्येक निबंध की अपनी एक लोकगाथा है और एक लोक संवाद है। “मोरे अँगनवा में चंदन के बिरछा” के माध्यम से लेखक ने प्रकृति में मौजूद वृक्ष रूपी चेतन तत्वों से मानवीय सरोकारों की व्याख्या की है। इसी तरह निबंध “सूरज-चंदा अभिप्राय : चंदा-सूरज दोऊ भैया अंगन बिच ऊँगियों” में लोक द्वारा ब्रह्मांड के दो प्रमुख तत्वों चंदा और सूरज को अपने जीवन के अनुभवों में समेट लेने के कौशल से परिचित कराया है। लोक जड़ और चेतन को किस कुशलता से अपने जीवन का संबल बना लेता है इस ओर लेखक ने ध्यान आकृष्ट किया है।
           पुस्तक के “खण्ड-2 : लोक का अंतर्लोक” में कुल 14 निबंध हैं। इन निबंधों में लोक मान्यताओं, लोक साहित्य, लोक-संस्कृति की समन्वयवादिता तथा लोक की भक्ति परंपरा पर भी समुचित दृष्टि डाली गई है। ये निबंध हैं-  लोक राम-कथा : विभिन्न अन्तरीप, हिंदी क्षेत्र की बोलियाँ : अन्तर्संवादी स्वर, संस्कार गीतों की अन्तः क्रियाएँ, इतिहास-बोध और भारतीय लोक-दृष्टि, लोक साहित्य : जीवन-मूल्य और भारतीयता, पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) के संरक्षण में लोकगीतों की भूमिका, समकालीन सन्दर्भों में लोक-संस्कृति की समन्वयवादिता और उसकी भविष्य-दृष्टि, लोक-संस्कृति के सन्दर्भ में मूर्त और अमूर्त की दृष्टि, लोक नृत्य की गुरुत्वाकर्षण भेदन शक्ति, प्रदर्शनकारी लोक-कलाएँ और जन-संचार माध्यम,  लोककला की रचनात्मकता के अवरुद्ध होने के खतरे, बुन्देलखण्ड के लोक-जीवन में निर्गुण भक्ति-परम्परा और कबीर का प्रभाव, लोक में दीवाली प्रसंग, विन्ध्य और सतपुड़ा का लोक।
      इन निबंधों में  “लोक नृत्य की गुरुत्वाकर्षण भेदन शक्ति” को बानगी के रूप में देखें तो एक अद्भुत दृष्टि संसार से साक्षात्कार होता है। लेखक ने कोरियोग्राफर प्रभात गांगुली के हवाले से बताया है कि “भारतीय लोक नृत्य पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेदने की साहसिक ललक से उत्फुल्लित है। …. भारतीय कलाएँ जीवन की उत्क्रामिणी शक्ति से परिपूर्ण हैं। दिक् से ऊपर उठकर काल को भेदने के लिए तत्पर लोक नृत्य में महाकाल की ताण्डव मुद्रा भी लोकाभिनय से प्रवर्तित है। दक्षिण पैर पृथ्वी पर टिका है। वाम पैर आकाश की ओर उठा है। यह नृत्य अभिनय पृथ्वी से ऊपर उठने की मुद्रा को प्रदर्शित करता है। गुरुत्वाकर्षण को भेदकर दिक् काल के आवरण से मुक्त होने की आकांक्षा शिव की इस नृत्य मुद्रा में है।”
        जो व्यक्ति इतिहास, वर्तमान, चिंतन और प्रकृति के आधार पर लोक को जानने की अभिलाषा रखता हो उसके लिए डॉ श्याम सुंदर दुबे की यह पुस्तक “इतिहास- बोध और भारतीय लोक दृष्टि” एक अनुपम कृति है। डॉ दुबे की संस्कृति और भाषा दोनों में बहुत अच्छी पकड़ है। वे निबंध की गद्यात्मकता में भी काव्य के तत्व पिरोने में माहिर हैं। उनके ललित निबंध किसी रोचक महाकाव्य की तरह अथवा किसी खांटी लोक गाथा की भांति चेतना एवं बौद्धिकता को स्पर्श करते हैं। यही कारण है की डॉ दुबे की यह पुस्तक पठनीय है जातीय स्मृति एवं परंपराओं की लोक-चेतना के ब्रह्मांड से परिचित कराने में सक्षम है।
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