Friday, May 30, 2025

शून्यकाल | हिंदी पत्रकारिता दिवस और हिंदी टीवी पत्रकारिता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
 शून्यकाल
हिंदी पत्रकारिता दिवस और हिंदी टीवी पत्रकारिता
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह     
                                     
30 मई हिंदी पत्रकारिता दिवस। अब हिंदी पत्रकारिता के 200 वर्ष पूरे होने के करीब हैं। हिंदी पत्रकारिता दिवस पर हमें इस पर विचार करना चाहिए कि हमारी हिंदी पत्रकारिता विशेष रूप से हिंदी टीवी पत्रकारिता किस दौर में चल रही है? क्योंकि आज पत्रकारिता का स्वरूप वह नहीं है जो देश की स्वंतत्रता के पूर्व या देश की स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद तक रहा। डिज़िटल क्रांति ने सबकुछ उलट-पलट दिया है। आज का पत्रकार नोटबुक और कलम ले कर नहीं घूमता है, उसके हाथ में एंड्रायड फोन और आईपैड होता है। वह लाईव स्ट्रीमिंग करता है और स्टूडियो में मुद्दे की बखिया उधेड़ता है। हाल ही में कुछ 'स्टूडियो घमासान' वायरल भी हुए। जिसने बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया।


*न खींचो कमान,  न तलवार निकालो।*
*जब तोप हो मुकाबिल, तब अखबार निकालो।*
       - इस शेर के माध्यम से अकबर इलाहाबादी ने पत्रकारिता के बारे में बिल्कुल ठीक कहा था क्योंकि अखबार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को न केवल स्थापित किया बल्कि मुखर भी किया। लेकिन समय के साथ पत्रकारिता में आमूल चूल परिवर्तन आए हैं जब से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और टीवी पत्रकारिता का प्रचार प्रसार बड़ा तब से पत्रकारिता को अपना वास्तविक स्वरूप बचाने के लिए भी जमकर संघर्ष करना पड़ रहा है। अभी हाल ही में कुछ ऐसे वीडियो वायरल हुई जिसमें समाचार टीवी चैनल पर होने वाले डिबेट में जिस तरह की तू-तू-मैं-मैं और घमासान दिखी वह अत्यंत अशोभनीय थी। क्या चींख-चींख कर किसी बात को दोहराया जाना उसे हर हाल में सच ठहर सकता है? यह किसी से प्रश्न करने के बाद उसे उत्तर देने से पहले ही चुप करने के लिए उसे पर लगभग झपट पड़ना क्या उचित तरीका है? यही सब हो रहा है अधिकांश हिंदी समाचार टीवी चैनल्स में। जब इस तरह की बाइट्स वायरल होती है तो उस पर जो टिप्पणियां की जाती हैं, उन्हें यदि वे टीवी पत्रकार या एंकर्स एक बार पढ़ने का कष्ट करने तो शायद उन्हें आईने में अपना असली चेहरा दिखाई देने लगे। हाल ही में जो डिबेट बाइट्स  वायरल हुए थे, उन पर एक व्यक्ति ने टिप्पणी की थी कि अब बस एंकर के हाथों में एके-47 होने की कमी है। वहीं दूसरे व्यक्ति ने कमेंट किया था कि ऐसे डिबेट्स देखकर मन में हिंसा जागने लगती है और टीवी तोड़ देने का मन करता है। क्या 200 साल पहले हिंदी पत्रकारिता का जो सफर शुरू हुआ था उसे इस बिंदु पर पहुंचना चाहिए था?
       जी हां, 30 मई अर्थात हिंदी पत्रकारिता दिवस।  इसी तिथि को सन 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने पहला हिन्दी समाचार पत्र "उदन्त मार्तण्ड" का प्रकाशन शुरू किया था। उन दिनों कोलकाता से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र अंग्रेज़ी, बंगाली या उर्दू में होते थे। हिंदी बोलने वालों के लिए उनकी मूल भाषा में कोई अखबार नहीं था। मूल रूप से कानपुर के रहने वाले पं. शुक्ल ने इस कमी को पहचाना और अखबार निकालने का निर्णय किया। "उदंत मार्तंड जिसका मतलब है “उगता हुआ सूरज”। हर मंगलवार को प्रकाशित होता। यह एक ऐतिहासिक कदम था क्योंकि जो लोग अंग्रेज़ी नहीं जानते थे, वे अपने लिए महत्वपूर्ण समाचार पढ़, समझ और उससे जुड़ सकते थे। "उदन्त मार्तण्ड" के पहले अंक की 500 प्रतियां छपी थीं, लेकिन इसे ज्यादा पाठक नहीं मिल सके। 
एक अहिंदी भाषा क्षेत्र से प्रकाशित होने के कारण इसकी पाठक संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम थी दूसरे प्रति की हिंदी पाठकों तक इसे पहुंचाना भी एक कठिन कार्य था। इसके लिए डाक खर्च भी वहन करना पड़ता था। सरकारी व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से अखबार को कोई विशेष सहायता नहीं मिली। यद्यपि वित्तीय कठिनाइयों और सीमित पहुंच के कारण अखबार को मात्र 79 अंकों के बाद ही बंद करना पड़ा, लेकिन इसने हिंदी पत्रकारिता के जो मानक स्थापित किया वह आज भी एक गाइडलाइन के समान हैं।
    हिंदी पत्रकारिता प्रिंट तक ही सीमित नहीं रही। 90 के दशक के अंत में टेलीविजन के उदय ने एक नए युग की शुरुआत की। आजतक, एबीपी न्यूज़, ज़ी न्यूज़ और न्यूज़18 इंडिया जैसे हिंदी समाचार चैनल्स ने हिंदी टीवी पत्रकारिता की मुखरता एवं  लोकतांत्रिक स्वरूप से आमजन को परिचित कराया। डिजिटल क्रांति के कारण टीवी पत्रकारिता की तमाम सामग्री आज स्मार्टफ़ोन और सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर भी तुरंत उपलब्ध हो जाती है। हिंदी न्यूज़ पोर्टल, यूट्यूब चैनल और मोबाइल ऐप अब एक बड़े दर्शक वर्ग को अपनी सेवाएँ दे रहे हैं जो हिंदी में जानकारी रखना पसंद करते हैं। यह बदलाव खास तौर पर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हर साल गैर-मेट्रो क्षेत्रों से ज़्यादा भारतीय डिजिटल स्पेस से जुड़ रहे हैं।
     इस प्रगति के साथ एक बात और याद रखने की जरूरत है कि देश की स्वतंत्रता के बाद सन 1956 में प्रथम प्रेस आयोग ने पत्रकारिता की नैतिकता और प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक समिति गठित करने का विचार किया। इस विचार को क्रियान्वित होने में लगभग 10 वर्ष लग गए और 10 वर्ष बाद सन् 1966 में एक प्रेस परिषद का गठन किया गया। भारतीय प्रेस परिषद अथवा प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया देश में जहां पत्रकारिता के दायित्वों पर नज़र रखती है, वहीं पत्रकारिता जगत के अधिकारों की रक्षा के प्रति भी सचेत रहती है। भारतीय प्रेस परिषद यह भी सुनिश्चित करता है कि भारत में प्रेस किसी दबाव में काम करने को विवश न किया जाए। यूं तो 4 जुलाई 1966 को भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना हुई थी लेकिन 16 नवंबर 1966 को इसने विधिवत काम करना शुरू किया था। प्रेस काउंसिल ने प्रिंट मीडिया की न केवल रक्षा की बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उस पर लगाम भी लगाई। सच कहा जाए तो आज कई हिंदी टीवी न्यूज़ चैनल्स को भी कड़े लगाम की आवश्यकता है। बहस का भद्दा संस्करण अथवा भूत प्रेत के अंधविश्वासी किस्से दिखाने पर रोक लगाई जाने की जरूरत है।
         इस पर विचार करना जरूरी है कि क्या कतिपय हिंदी टीवी चैनल्स अपनी टीआरपी बढ़ाने की लालसा के चलते हिंदी पत्रकारिता की साख को निरंतर दांव पर लगा रहे हैं? आज भी हर हिंदी दर्शक इतना प्रबुद्ध या समर्थ नहीं है कि वह झूठ और सच को धैर्य पूर्वक समझ सके और छन्नी से छान सके। इस बात को भी टटोलना होगा कि हिंदी टीवी पत्रकारिता में यह भद्दा ट्रेंड कहां से आया क्योंकि अंग्रेजी टीवी पत्रकारिता अभी भी उसे गिरावट के स्तर पर नहीं पहुंची है जिस पर हिंदी टीवी पत्रकारिता पहुंच गई है।  आज पत्रकारिता का स्वरूप वह नहीं है जो देश की स्वंतत्रता के पूर्व या देश की स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद तक रहा। डिज़िटल क्रांति ने सबकुछ उलट-पलट दिया है। आज का पत्रकार नोटबुक और कलम ले कर नहीं घूमता है, उसके हाथ में एंड्रायड फोन और आईपैड होता है। यदि आज के पत्रकार के साथ प्रेस फोटोग्राफर न भी हो तो भी वह अपने मोबाईल से इवेंट या मूवमेंट को कैप्चर कर सकता है। यहां तक कि लाईव स्ट्रीमिंग भी कर सकता है। आज बाईनरी दुनिया के सहारे सक्रिय पत्रकारिता का आकलन भी जनरेशन के रूप में ही किया जाना चाहिए। जैसे कम्प्यूटर टेक्नाॅलाॅजी के विकास की प्रक्रिया को दर्शाने के लिए जनरेशन शब्द का प्रयोग किया जाता है। जनरेशन यानी पीढ़ी। मनुष्य की पीढ़ी और कम्प्यूटर की पीढ़ी में बहुत अंतर है। हमने अपनी एक ही पीढ़ी में कम्प्यूटर की अनेक पीढ़ियां देख ली हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम इसी दौरान पत्रकारिता की भी कुछ पीढ़ियों से गुज़र चुके हैं।
        टेक्नोलॉजी के विकास के साथ पत्रकारिता को भी सही दिशा में विकसित होना चाहिए था किंतु ऐसा हुआ नहीं है। डिजिटल माध्यम के कई ऐसे कथित न्यूज चैनल्स और अखबारों (टोटली पीडीएफ बेस्ड) के कारण आम आदमी के मन में भी यह विचार उठने लगता है कि इन पर कोई लगाम क्यों नहीं लगाता? शायद राॅबर्ट रेडफोर्ड ने इसीलिए कहा था कि -‘‘सूचना के लोकतंत्रीकरण के कारण पत्रकारिता बहुत बदल गई है। कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर कुछ भी डाल सकता है। इसलिए सच का पता लगाना और ज्यादा मुश्किल हो गया है।’’
        हिंदी टीवी न्यूज़ चैनल्स सनसनी फैलाने की पत्रकारिता में ढल गए हैं और प्रिंट मीडिया भी पीछे नहीं है। वह भी अपराध की खबरों को इस प्रकार से छापता है जैसे कभी ‘‘मनोहर कहानियां’’ या ‘‘सत्यकथा’’ जैसी पत्रिकाएं छापा करती थीं। उस समय ये पत्रिकाएं हर घर में नहीं आती थीं, लेकिन आज समाचारपत्र हर घर में आता है और टीवी हर घर में देखी जाती है। फिर भी यह कहना होगा कि प्रिंट मीडिया में अभी भी संयम बाकी है। वही टीवी पत्रकारिता का अपना एक अलग प्रभाव है। जहां तक टीवी पत्रकारिता का प्रश्न है तो जहां एक ओर दुनिया के बड़े से बड़े आतंकी संगठन पत्रकारों के दुश्मन बने हुए हैं, बड़े-बड़े राजनेता पत्रकारिता को अपने पक्ष में करने के लिए हर तरह के प्रयास में जुटे रहते हैं क्योंकि आज पत्रकारिता का जो स्वरूप है वह सेंसेक्स को उठाने और गिराने की क्षमता रखता है। सत्ता परिवर्तन की ताकत रखता है और आमजन को सच की तस्वीर दिखाने का माद्दा रखता है। 
     हिंदी पत्रकारिता दिवस पर यह आशा की जा सकती है कि हिंदी टीवी पत्रकारिता अपने आप को उस उच्च मानक पर वापस पहुंचा सकता है जहां से हिंदी पत्रकारिता शुरू हुई थी। वह उच्च मानक था आमजन को सच्चाई से परिचित कराना और अपनी पत्रकारी अस्मिता को बिकने नहीं देना। 
वरना आज हिंदी टीवी पत्रकारिता की दशा है बाकौल मसऊद भोपाली-
*बिक रहा हूँ सर-ए-बाज़ार ज़रा देखो तो।
है कोई मेरा ख़रीदार ज़रा देखो तो।*
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