दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
शून्यकाल
वे चार वैदिक कालीन स्त्रियां जो विलक्षण व्यक्तित्व की धनी थीं
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
...नारीवाद, स्त्रीविमर्श, स्त्री स्वातंत्र्य जैसे कई शब्द हैं जो स्त्री के अधिकारों के प्रति विश्वास जगाते प्रतीत होते हैं। किन्तु कोई भी शब्द या वाद इतना चमत्कारी नहीं होता है कि रातों-रात किसी स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन ला दे। सदियों पहले स्त्री को जो अधिकार प्राप्त थे वे उसने अपनी क्षमता से प्राप्त किए थे किसी कथित क्रांति के द्वारा नहीं। एक बार फिर स्त्रियां अपनी क्षमताओं को पहचानने के उस दौर में पहुंच चुकी हैं जहां वे अपने अधिकार पुनः पाती जा रही हैं। ऐसे समय में उन चार वैदिक स्त्रियों के बारे में याद रखना जरूरी है जो अपने ज्ञान के बल पर कालजयी बनीं।
वैदिककाल में स्त्रियों को पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं थे किन्तु उन्हें आगे बढ़ने से नहीं रोका जाता था यदि उनमें ज्ञान की श्रेष्ठता दिखाई देती थी। ऐसी ही चार स्त्रियां जिन्हों ने अपने ज्ञान के बल पर अपने अस्तित्व को वैदिक काल से आज के आधुनिक काल तक स्मरणीय बना दिया। वे चार स्त्रियां थीं- मदालसा, अनसूया, मैत्रेयी और गार्गी। आइए इन चार महान स्त्रियों का संक्षेप में पुनः स्मरण करते हैं-
मदालसा - मदालसा गंधर्व राजा विश्वसु की बेटी थी। वह अपने बेटों के लिए भी एक बड़ी प्रेरणा थीं। शक्तिशाली राजा शत्रुजीत का पुत्र ऋतध्वज उसका पति था। जब शत्रुजीत की मृत्यु हो गई, तो ऋतध्वज ने राजा का पद संभाला और शाही कर्तव्यों में लग गए। मदालसा ने यह सिद्ध कर दिया कि मां के ज्ञान, शिक्षा और संस्कारों से ही बच्चों का भविष्य तय होता है। समय आने पर मदालसा ने एक पुत्र विक्रांत को जन्म दिया। जब विक्रांत रोता थे तो मदालसा उन्हें चुप कराने के लिए जीवन दर्शन पूर्ण गाती थी जिसका आशय था कि ‘‘वह एक शुद्ध आत्मा है, उसका कोई वास्तविक नाम नहीं है और उसका शरीर केवल पांच तत्वों से बना एक वाहन है। वह वास्तव में शरीर का नहीं है, फिर रोता क्यों है?’’
विक्रांत बड़ा होने पर मां के दिए हुए ज्ञान से प्रेरित हो कर सांसारिक मोह-माया या राजसी गतिविधियों से मुक्त होकर एक तपस्वी बन गया। दूसरे पुत्र सुबाहु और तीसरे पुत्र शत्रुमर्दन के साथ भी यही हुआ। तब ऋतुध्वज ने मदालसा से निवेदन किया कि वह चौथे पुत्र अलर्क को संसार से विरत होने का ज्ञान न दे अपितु ऐसा ज्ञान दे कि वह बड़ा हो कर राजपाट सम्हाले और एक प्रतापी राजा बने। इस पर मदालसा ने अपने चौथे पुत्र अलर्क को वह गीत सुनाया जिसमें उसके एक महान शासक बनने का वर्णन था। उस गीत का भावार्थ था -‘‘ एक महान राजा होने का गीत गाया जो दुनिया पर शासन करेगा, और इसे कई वर्षों तक समृद्ध और दुष्टों से मुक्त बनाएगा। ऐसा करने से वह जीवन का भरपूर आनंद उठाएगा और अंततः अनश्वरों में में गिना जाएगा।’’ अलर्क ने अपनी शैशवावस्था से जो गीत अपनी मां मदासला से सुना था उसके प्रभाव के अनुरूप उसका जीवन बना और वह एक प्रतापी राजा के रूप में अनेक वर्ष तक शासन करता रहा।
अनसूया - अनसूया एक ऐसी महिला थीं जो अपनी तपस्या से एक मृत ऋषि के जीवन को वापस ला सकती थीं। वह अनसूया ऋषि अत्रि की पत्नी थी। अनसूया की मां ऋषि स्वायंभुव की बेटी थी और उसके पिता कर्दम मुनि थे। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, मंडस्या नाम के एक ऋषि थे जिन्होंने कौशिक नाम के एक ब्राह्मण को श्राप दिया कि वह प्रातः सूर्योदय के समय मर जाएगा। जब कौशिक की पत्नी कौशिकी श्राप के बारे में पता चला तो उसने तय कि कि वह अपने सतीत्व के बल पर सूर्य को उदय ही नहीं होने देगी। जब प्रातः सूर्योदय ही नहीं होगा तो उसके पति की मृत्यु भी नहीं होगी। परिणामस्वरूप कई दिनों तक सूर्य नहीं निकला। पृथ्वी के जीवन के लिए यह उचित नहीं था अतः ब्रह्मा ने अन्य देवताओं को अनसूया के पास जाने के लिए कहा। क्योंकि ब्रह्मा जानते थे कि एक अनसूर्या ही है जो अपनी नैतिक शक्ति के बल पर सूर्य को कौशिकी के तप के बंधन से मुक्त करा सकती है और सूर्योदय करा सकती है। अनसूया ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करते हुए सूर्य को कौशिकी के तप से मुक्त करा दिया जिससे सूर्योदय हो गया। किन्तु इसके साथ ही कौशिकी के प्रति ऋषि कौशिक की मृत्यु हो गई। तब अनसूया ने कौशिकी को दिए गए अपने आश्वासन को पूरा करते हुए अपने तपोबल से कौशिकी के पति को पुनर्जीवित कर दिया। इससे प्रसन्न होकर, देवताओं ने अनुसूया को तीन पुत्रों की इच्छा पूरी करने का आशीर्वाद दिया जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अवतार होंगे। इस प्रकार, ब्रह्मा सोम के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और शिव दुर्वासा के रूप में जन्में। अनसूया ने कभी अपने ज्ञान या शक्ति का अनावश्यक प्रदर्शन नहीं किया किन्तु आवश्यकता पड़ने पर सिद्ध कर दिया की वह कितनी क्षमतावान और विलक्षण थी।
मैत्रेयी- मैत्रेयी ऋषि याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं। उनकी दूसरी पत्नी कात्यायनी थीं। दोनों उच्च चरित्र वाली और ज्ञान की धनी थीं। यद्यपि मैत्रेयी कात्यायनी की अपेक्षा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान रखती थी। बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार ऋषि याज्ञवल्क्य गृहस्थ जीवन को त्याग कर संन्यास जीवन को स्वीकार करना चाहते थे, और अपनी संपत्ति को अपनी दोनों पत्नियों के बीच बांटना चाहते थे। तब मैत्रेयी ने स्वयं से प्रश्न किया कि यदि उनके पति गृहस्थ जीवन में अपनी वर्तमान स्थिति को त्यागने को तैयार हैं तो उन्हें इससे बड़ी कौन सी चीज मिली होगी। निश्चित रूप से कोई भी अपना पद तब तक नहीं छोड़ेगा जब तक उसे कुछ उससे बड़ा न मिल जाए। इसलिए उसने अपने पति से पूछा कि यदि उसके पास दुनिया की सारी संपत्ति हो, तो क्या वह फिर भी अमरत्व प्राप्त कर सकती है? ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा कि बिल्कुल नहीं! यह संभव नहीं है। संपत्ति और सुख-सुविधाएं मोक्ष नहीं दिला सकती हैं। तो मैत्रेयी ने फिर पूछा कि उन्हें धन क्यों अर्जित करना चाहिए यदि यह उन्हें भविष्य में जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं दिलाएगा?
तब याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को आत्मा के दिव्य ज्ञान के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने उसे बताया कि इस दुनिया में किसी भी प्राणी के भीतर आत्मा की उपस्थिति के बिना दूसरे का प्रिय होने की क्षमता नहीं है। यहां तक कि इस दुनिया की सुंदरता का आनंद लेने का भी हमारे शरीर के भीतर आत्मा के बिना कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा ही हम सब कुछ है। आध्यात्मिक ज्ञान की गहराई को समझना मोक्ष, जन्म और मृत्यु के निरंतर दौर से मुक्ति पाने का तरीका है। इस प्रकार याज्ञवल्क्य से मैत्रेयी ने आध्यात्म का विशद ज्ञान प्राप्त किया और फिर याज्ञवल्क्य को संन्यासमार्ग में जाने दिया। मैत्रेयी जानती थी कि मानवीय संबंधों की अंतिम परिणिति मोक्ष हो तो उत्तम है किन्तु इससे पहले ज्ञान को सहेज लिया जाना और भी अधिक उत्तम है।
गार्गी- गार्गी ऋषि गर्ग के वंश से ऋषि वचक्नु की पुत्री थीं। प्राचीन भारतीय दार्शनिक थी। वेदिक साहित्य में, उन्हें एक महान प्राकृतिक दार्शनिक, वेदों के प्रसिद्ध व्याख्याता, और ब्रह्मा विद्या के ज्ञान के साथ ब्रह्मवादी के नाम से जाना जातीं है। गार्गी का पूरा नाम गार्गी वाचक्नवी था। गार्गी परम विदुषी थीं, वे आजन्म ब्रह्मचारिणी रहीं। वृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी का याज्ञवल्क्यजी के साथ शास्त्रार्थ का विवरण मिलता है। एक बार महाराज जनक ने श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की परीक्षा के निमित्त एक सभा की और एक सहस्त्र सुवर्ण की गौएँ बनाकर खडी कर दीं। सबसे कह दिया-जो ब्रह्मज्ञानी हों वे इन्हें सजीव बनाकर ले जाए। तब याज्ञवल्क्यजी ने अपने एक शिष्य से कहा- ‘‘शिष्य! इन गौओं को अपने यहाँ हाँक ले चलो।’’ इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्यजी से शास्त्रार्थ करने लगे। याज्ञवल्क्य ने सबके प्रश्नों का उत्तर दिया। उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी भी उपस्थित थी। सबके पश्चात् याज्ञवल्क्य से गार्गी ने शास्त्रार्थ किया। एक दीर्घ शास्त्रार्थ के बाद याज्ञवल्क्य ने कहा- ‘‘गार्गी! अब इससे आगे मत पूछो।’’ इसके बाद महर्षि याज्ञवक्ल्य ने वेदान्ततत्त्व के ज्ञान की चर्चा की जिसे सुनकर गार्गी परम सन्तुष्ट हुई और सब ऋषियों से बोली- ‘‘याज्ञवल्क्य सच्चे ब्रह्मज्ञानी हैं। गौएँ ले जाने के वे अधिकारी हैं।’’ तब याज्ञवल्क्य गौएं ले जा सके।
इन चारो महान स्त्रियां समाज में रहते हुए, अपने विलक्षण ज्ञान के कारण तत्कालीन समाज में सम्मानित रहीं अपितु सदियों बाद आज भी स्मरणीय हैं। अतः स्त्री का ज्ञान एवं प्रतिभा ही उसे उच्चता प्रदान करती है, कोई नारा या वाद नहीं।
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