दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
शून्यकाल
प्राचीन काल में भी था स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार पर आज से कम
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
*भारतीय संविधान में पुश्तैनी अथवा खपारिवारिक संपत्ति पर स्त्रियों के अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं। अन्यथा पहले संपत्ति पर पुत्रियों के अधिकार को स्वीकार ही नहीं किया जाता था। विवाहित पुत्री तो पैतृक संपत्ति से और भी वंचित कर दी जाती थी। जिससे विधवा होने की स्थिति या अन्य कोई भी विपत्ति आने पर उसकी स्थिति आर्थिक रूप से दयनीय हो जाती थी। किन्तु प्राचीन काल में ऐसा नहीं था। प्राचीन भारतीय समाज में संपत्ति पर स्त्रियों के अधिकार सुनिश्चित किए गए थे। वेदों, महाकाव्यों एवं स्मृतियों में इस संबंध में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। लेकिन ये अधिकार उतने नहीं थे जितने कि अब हैं।*
वैदिक ग्रंथों, महाकाव्यों, स्मृतियों और धर्मसूत्रें में संपत्ति पर स्त्रियों के अधिकार के संबंध में अनेक व्यवस्थाओं का उल्लेख मिलता है जिनमें कहीं-कहीं परस्पर विरोध भी विद्यमान है। इसका कारण संभवतः यह था कि भारत के सब प्रदेशों में उत्तराधिकार विषय नियम एक समान नहीं थे और विभिन्न समयों में उनमें परिवर्तन भी होता रहा। यही कारण है कि मनु, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य, गौतम और बृहस्पति के विचार इस प्रश्न पर एक जैसे नहीं हैकि स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार किस अंश तक हो।
सिंधु सभ्यता में स्त्रियों के संपत्ति के अधिकार के संबंध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है किन्तु वैदिक काल में स्त्रियों को संपत्ति पाने का अधिकार था। वैदिक काल वैदिक काल में सामान्य रूप से पुत्रियों का संपत्ति पर अधिकार नहीं होता था। यदि पुत्री भाई विहीन हो तब उसे पिता की संपत्ति मिल सकती थी। वैदिक काल में पिता पुत्री के विवाह के समय वर से कुछ धन ले सकता था जिसका कुछ भाग उसे अपनी पुत्री को स्त्रीधन के रूप में देना पड़ता था। विवाह के समय मिलने वाले भेंट-उपहार वधू को दे दिए जाते थे। इन भेंट-उपहारों पर वधू का अधिकार होता था। इसके साथ ही यह भी प्रथा थी कि पुत्री का पिता अपने दामाद से यह वचन लेता था कि वह अपना पहला पुत्र (नाती) उसे वंश चलाने तथा संपत्ति को सम्हालने के लिए सौंप देगा। अविवाहित स्त्री को अपने पिता की संपत्ति में कुछ भाग मिलता था।
रामायणकाल में पति की संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता था किन्तु वह उस संपत्ति का उपयोग पति की अनुमति के बिना नहीं कर सकती थी। धर्मार्थ दान अथवा भिक्षा देने का पत्नी को अधिकार होता था। दान अथवा भिक्षा में भी वह अचल संपत्ति नहीं दे सकती थी। विवाह के समय मिले उपहारों पर वधू का अधिकार होता था तथा पिता की ओर से पुत्री को उसके विवाह के समय कुछ धन, दासियां आदि दी जाती थीं। पति की मृत्यु के उपरान्त पत्नी जीवनयापन के योग्य धन की अधिकारिणी होती थी। शेष संपत्ति पुत्रें को मिलती थी। संपत्ति का कुछ भाग अविवाहित पुत्रियों को भी दिया जाता था।
महाभारत काल में स्थिति रामायण काल से भिन्न नहीं थी। वेद व्यास के अनुसार पत्नी पति की अचल संपत्ति होती थी। इसके विपरीत पत्नी का उस संपत्ति पर ही अधिकार होता था जो उसे अपने पिता से मिली हो अथवा पति ने उसे प्रदान की हो। वैसे महाभारत काल में पुत्रियों को पुत्रों के समान माना गया। जैसा पुत्र होता है वैसी ही पुत्री भी होती है। दोनों की स्थिति एक समान है। पिता की संपत्ति को पुत्र और पुत्रियों में बराबरी से बंाटा जाजा था। किन्तु यदि किसी पुरुष के मात्र पुत्रियां हों तो वे पिता की समग्र संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकती थीं।
सूत्र ग्रंथों के अनुसार पति और पत्नी दोनों हीे संपत्ति के संयुक्त स्वामी होते थे। पति की अनुपस्थिति में चल संपत्ति में से पत्नी आवश्यक धन खर्च कर सकती थी किन्तु अचल संपत्ति व्यय करने का अधिकार उसे नहीं था। बौधायन के अनुसार पति जो धन उपहार के रूप में पत्नी को देता था उसकी स्वामिनी पत्नी होती थी। आपस्तंबसूत्र के अनुसार मृत पति की संपत्ति पर पत्नी का अधिकार नहीं होता था। आपस्तंब धर्मसूत्र में पुत्र के अभाव में पुत्री को तो पिता की संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकार दिया गया किन्तु विधवा स्त्री के संपत्ति पर अधिकार को स्वीकृत नहीं किया गया।
स्मृति ग्रंथों में स्त्री को दी जाने वाली संपत्ति के रूप में स्त्री धन का उल्लेख मिलता है। मनु स्मृति के अनुसार विवाह के समय पिता, माता, भाई व अन्य संबंधियों द्वारा दिए गए उपहारों और विवाह के बाद पति द्वारा दिए गए उपहारों पर वधू का अधिकार होता था। पत्नी को यह अधिकार नहीं था कि वह अपने पति से अनुमति लिए बिना अपने पति की संपत्ति में से किसी अन्य को कुछ दे सके अथवा व्यय कर सके। मनु ने मृत पति की संपत्ति पर पत्नी के अधिकार को स्वीकृत नहीं किया है। नारद स्मृति में कन्या को पिता की संपत्ति का अधिकारी तो माना गया है पर उसी समय तक जब तक उसका विवाह न हो जाए। विष्णु ने स्त्री धन के रूप में उन उपहारों के बारे में भी वधू को सौंपे जाने का निर्देश दिया जो विवाह के बाद पुत्र द्वारा दिए गए, अन्य संबंधियों द्वारा दिए गए अथवा निर्वाह के लिए धन के रूप में दिए गए। याज्ञवल्क्य गुजारेभत्ते के रूप में पति की एक तिहाई संपत्ति पत्नी को दिए जाने के पक्ष में था। पुत्र के अभाव में संपत्ति का उत्तराधिकार इस क्रम से होगा- पत्नी, कन्या या कन्याएं, माता-पिता, भाई, भतीजे, सगोत्र व्यक्ति, बंधु-बांधव, शिष्य और सहपाठी। नारद के अनुसार पत्नी का अधिकार मात्र चल संपत्ति पर होता था। वह उसे बेच सकती थी अथवा उसका अपनी इच्छानुसार उपभोग कर सकती थी। जबकि कात्यायन के अनुसार स्त्री अचल संपत्ति को भी बेच सकती थी। कात्यायन के अनुसार स्त्रीधन में वे सभी उपहार सम्मिलत थे जो पिता,माता व पति द्वारा दिए गए हों। इन पर पत्नी का पूर्ण अधिकार था और वह इन्हें चाहे किसी को दे सकती थी। लगभग सभी स्मृतिकारों ने अचल संपत्ति पर पति के अधिकार का पक्ष लिया है तथा पत्नी को अचल संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा।
कौटिल्य ने पिता की संपत्ति में पुत्री के अधिकार को उचित बताया। उसके अनुसार जिसका कोई पुत्र न हो उसकी सचल संपत्ति उसके सगे भाई अथवा उसके सहजीवी प्राप्त करें तथा उसकी अचल संपत्ति उसकी पुत्री उत्तराधिकार के रूप में दी जाए। कौटिल्य ने पुत्रियों को भी अपने पिता की संपत्ति में अधिकार पाने योग्य ठहराया। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में स्त्रीधन का विस्तार किया गया। देवल के अनुसार निर्वाह के लिए प्राप्त धन और लाभ को भी स्त्रीधन में सम्मिलित कर दिया। विज्ञानेश्वर ने पिता से दाय रूप में मिली संपत्ति, खरीदी हुई संपत्ति, बंटवारे में मिली संपत्ति और जिस पर अधिक समय तक अधिकार रहने के कारण रह स्वामित्व हो गया हो, ऐसी समस्त संपत्ति को स्त्रीधन में माना। विज्ञानेश्वर के अनुसार विधवा स्त्री अपनी अचलसंपत्ति को अपनी पुत्री को दे सकती थी। वह अपना स्त्रीधन भी अपनी पुत्रियों को दे सकती थीं। उनमें भी पहले अविवाहित पुत्री को और फिर विवाहित पुत्रियों को। यदि किसी कारणवश पति को अपनी पत्नी के स्त्रीधन का उपयोग करना पड़े तो पति से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह समर्थ होने पर व्यय किया गया स्त्री धन अपनी पत्नी को वापस कर दे। गुप्तोत्तर काल में पुत्री को पिता की संपत्ति में कुछ भाग दिया जाता था किन्तु पुत्री को अचल संपत्ति देने की व्यवस्था नहीं थी। यह अपेक्षा की जाती थी कि यदि पिता अपने जीवन काल में अपनी संपत्ति का बंटवारा करे तो उसमें से एक भाग पत्नी को, प्रत्येक पुत्र को समान भाग तथा पुत्री को पुत्र से आधा भाग प्रदान करे। यद्यपि गुप्तोत्तरकाल के सभी विद्वान पुत्री को संपत्ति में से हिस्सा दिए जाने के पक्ष में नहीं थे।
विधवा स्त्री को जीविका चलाने के लिए दाय के रूप में संपत्ति का कुछ भाग दिया जाता था। विधवा स्त्री का अचल संपत्ति पर अधिकार सीमित था। वह अचल संपत्ति की आय को खर्च कर सकती थी किन्तु उसे बेच नहीं सकती थी। दक्षिण भारत के राज्यों में विधवा को संपत्ति पर अधिकार दिया जाता था किन्तु उत्तर भारत में यह अधिकार बहुत देर से स्वीकार किया गया। गुजरात में 12 वीं शती ई. तक विधवा को संपत्ति का अधिकारी नहीं माना जाता था।
इस तरह देखा जाए तो संपत्ति पर अधिकार को ले कर वर्तमान समय में स्त्रियों की स्थिति सबसे सुदृढ़ है।
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