दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल जातीय जनगणना यानी जाति ही पूछो साधु की …
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
74 साल बाद होगी देश में जातीय जनगणना, मोदी कैबिनेट के इस फैसले के फायदे-नुकसान क्या हैं? मोदी कैबिनेट ने एक बड़ा फैसला लिया है। सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का निर्णय लिया है। जातीय जनगणना को लेकर लंबे वक्त से विपक्षी दल मांग कर रहे थे। सरकार उसके पक्ष में नहीं थी किंतु अब सरकार ने जाति जनगणना को स्वीकार कर लिया है। मीडिया कह रही है कि सरकार ने विपक्ष का मुद्दा छीन लिया। वहीं विपक्ष का रहा है कि सरकार ने उनका मुद्दा मान लिया। मगर उनके क्या विचार हैं जिनकी जातिगत गणना होगी? समाज पर क्या होगा जातीय जनगणना का असर?
संत कबीर ने कहा कि -
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का,पड़ा रहन दो म्यान।।
परंतु अब सरकारी कर्मचारी जिनकी जातीय जनगणना में ड्यूटी लगाई जाएगी वह घर-घर जाकर प्रत्येक व्यक्ति से उसकी जाति पूछेंगे। सरकार ने घोषणा की है कि जातिगत जनगणना कराई जाएगी। इस गणना का अच्छा पक्ष भी है और चिंताजनक पक्ष भी। इस बात को लेकर मीडिया द्वारा हैडलाइंस बनाई गई कि सरकार ने जनगणना कराए जाने की घोषणा करके विपक्ष से उसका एक बड़ा मुद्दा छीन लिया। वह मुद्दा जिस पर पहले स्वयं सरकार ही अनिश्चितता की स्थिति में थी। राजनीति को छोड़कर समाज और परिवार की बात की जाए। मेरे परिचय में एक ऐसा उच्चशिक्षित परिवार है जिसमें परिवार के दो बेटों ने दूसरी जाति की लड़कियों से शादी करके घर बसाया है। उनमें से एक बेटा ऑस्ट्रेलिया में रह रहा है और दूसरा सिंगापुर में बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहा है। उस परिवार की बेटी ने एक अन्य जाति के लड़के से विवाह रचाकर अपना सुखमय संसार बसाया है और वह भारत में ही नोएडा में रह रही है जहां पति-पत्नी दोनों एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं। जातिगत गणना के बाद उस परिवार की भावनात्मक स्थिति क्या होगी?
जातिगत जनगणना एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें देश की आबादी को उनकी जाति के आधार पर बांटा जाता है। भारत में हर दस साल में होने वाली जनगणना में आमतौर पर आयु, लिंग, शिक्षा, रोजगार और अन्य सामाजिक-आर्थिक मापदंडों पर डेटा इकट्ठा किया जाता है। हालांकि, 1951 के बाद से जातिगत डेटा को इकट्ठा करना बंद कर दिया गया था, ताकि सामाजिक एकता को बढ़ावा मिले और जातिगत विभाजन को कम किया जा सके। फिलहाल केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या का डेटा इकट्ठा किया जाता है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग की जातियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
74 साल बाद होगी देश में जातीय जनगणना, मोदी कैबिनेट के इस फैसले के फायदे-नुकसान समझ लीजिए सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का महत्वपूर्ण फैसला लिया है। इस कदम का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देना है, साथ ही नीति निर्माण में पारदर्शिता लाना है। जातिगत जनगणना से सामाजिक और आर्थिक समानता बढ़ाने की कोशिश 1951 के बाद पहली बार जातिगत डेटा इकट्ठा करने का फैसला जातिगत आंकड़े राजनीतिक ध्रुवीकरण और सामाजिक तनाव का कारण बन सकते हैं।
सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का निर्णय लिया गया। जातीय जनगणना को लेकर लंबे वक्त से विपक्षी दल मांग कर रहे थे। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देगा, साथ ही नीति निर्माण में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा।
भारत में जातिगत जनगणना का इतिहास औपनिवेशिक काल से जुड़ा है। पहली जनगणना 1872 में हुई थी, और 1881 से नियमित रूप से हर दस साल में यह प्रक्रिया शुरू हुई। उस समय जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामान्य था। हालांकि, आजादी के बाद 1951 में यह फैसला लिया गया कि जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामाजिक एकता के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके बाद केवल एससी और एसटी का ही डेटा इकट्ठा किया गया।
पिछले कुछ वर्षों में जातीय जनगणना की मांग तेजी से उठी। ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं की मांग काफी बढ़ गई है। ऐसे में जातिगत जनगणना की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी। 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना की थी, लेकिन इसके आंकड़े विसंगतियों के कारण सार्वजनिक नहीं किए गए। बिहार, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों ने स्वतंत्र रूप से जातिगत सर्वे किए, जिनके नतीजों ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर पर एक मांग के रूप में खड़ा कर दिया। कांग्रेस, आरजेडी और सपा आदि विपक्षी दल लंबे समय से इसकी मांग कर रहे थे। बीजेपी का सहयोगी दल जेडीयू भी जातीय जनगणना के पक्ष में था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय का आधार बताते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया था। क्षेत्रीय दलों का मानना है कि जातिगत आंकड़े नीति निर्माण में मदद करेंगे, जबकि केंद्र सरकार ने पहले इसे प्रशासनिक रूप से जटिल और सामाजिक एकता के लिए खतरा माना था।
जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। उनका कहना है कि जातिगत आंकड़े सरकार को विभिन्न समुदायों की सामाजिक,आर्थिक स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे। उनके अनुसार जातिगत स्थिति के आधार पर शिक्षा स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाएं निर्धारित की जा सकेंगी। लेकिन यह कहां तक उचित होगा यह अभी से कह पाना कठिन है।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता है की जातिगत जनगणना के बाद सभी जातियों की वास्तविक स्थिति एवं संख्या का पता चल सकेगा किंतु इस प्रकार की गणना को अनुचित मानने वालों का कहना है कि यह सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कई चुनौतियां पैदा कर सकता है। उदाहरण के लिए जातिगत जनगणना समाज में पहले से मौजूद जातिगत विभाजन को और गहरा कर सकती है। राजनीतिक आकलनकर्ता मानते हैं कि जातिगत आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है। क्षेत्रीय दल और जातिगत आधार पर संगठित पार्टियां इसका लाभ उठाकर सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकती हैं। इससे सामाजिक तनाव और हिंसा की संभावना बढ़ सकती है। जातिगत जनगणना से कुछ समुदायों की जनसंख्या अपेक्षा से अधिक हो सकती है, जिससे आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठ सकती है, जिससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है।
जनवरी 2020 में केरल में श्रद्धालु सम्मेलन के शुभारंभ के अवसर पर उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने जातिगत भेदभाव खत्म करने की बात कही थी। उपराष्ट्रपति ने कहा था कि आर्थिक और तकनीकी मोर्चे पर देश ने महत्वपूर्ण कामयाबी अर्जित की है, लेकिन जाति, समुदाय और लिंग के आधार पर भेदभाव के बढ़ते मामले बड़ी चिंता का कारण हैं। देश से जाति व्यवस्था खत्म होनी चाहिए और भविष्य का भारत जातिविहीन और वर्गविहीन होना चाहिए। उन्होंने गिरजाघरों, मस्जिदों और मंदिरों के प्रमुखों से जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म करने के लिए काम करने को कहा था।
उस समय जाति व्यवस्था को लेकर विशेषज्ञों ने अपनी-अपनी चिंताएं व्यक्त की थीं तथा जाति व्यवस्था को समाप्त किए जाने के पक्ष में विमर्श किया था। उनके अनुसार निःसंदेह जाति प्रथा एक सामाजिक कुरीति है। ये विडंबना ही है कि देश को आजाद हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश के नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है। लेकिन विरोधाभास है कि सरकारी पदों के लिए आवेदन या चयन की प्रक्रिया के समय जाति को प्रमुखता दी जाती है।
जाति प्रथा न केवल हमारे मध्य वैमनस्यता को बढ़ाती है बल्कि ये हमारी एकता में भी दरार पैदा करने का काम करती है। अमुक जाति का सदस्य होने के नाते किसी को लाभ होता है तो किसी को हानि उठानी पड़ती है। जाति श्रम की प्रतिष्ठा की संकल्पना के विरुद्ध कार्य करती है। उस समय समाजशास्त्रियों द्वारा यह भी कहा गया था कि जाति प्रथा से आक्रांत समाज की कमजोरी विस्तृत क्षेत्र में राजनीतिक एकता को स्थापित नहीं करा पाती तथा यह देश पर किसी बाहरी आक्रमण के समय एक बड़े वर्ग को हतोत्साहित करती है। स्वार्थी राजनीतिज्ञों के कारण जातिवाद ने पहले से भी अधिक भयंकर रूप धारण कर लिया है, जिससे सामाजिक कटुता बढ़ी है।
'जाति प्रथा उन्मूलन' नामक ग्रंथ में अंबेडकर लिखा है कि 'प्रत्येक समाज का बुद्धिजीवी वर्ग यह शासक वर्ग न भी हो फिर भी वो प्रभावी वर्ग होता है।' केवल बुद्धि होना यह कोई सद्गुण नहीं है। बुद्धि का इस्तेमाल हम किस बातों के लिए करते हैं इस पर बुद्धि का सद्गुण, दुर्गुण निर्भर है और बुद्धि का इस्तेमाल कैसा करते हैं यह बात हमारे जीवन का जो मकसद है उस पर निर्भर है। यहां के परंपरागत बुद्धिजीवी वर्ग ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल समाज के फायदे के लिए करने की बजाए समाज का शोषण करने के लिए किया है। अर्थात अंबेडकर यह कहना चाहते थे की शासन बुद्धि के आधार पर बन सकते हैं न कि जाति के आधार पर।
यह भी सच है कि जातिवाद राष्ट्र के विकास में मुख्य बाधा है। जो सामाजिक असमानता और अन्याय के प्रमुख स्रोत के रूप में काम करता है। जातीय जनगणना के बाद इस तरह के विचारों को कौन से परिणाम मिलेंगे यह भविष्य ही बताएगा।
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