Wednesday, May 7, 2025

चर्चा प्लस | दुख-सुख के आभासीय रिश्तों का कड़वा सच | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
दुख-सुख के आभासीय रिश्तों का कड़वा सच 
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       सोशल मीडिया ने जाने-अनजाने अनेक लोगों को परस्पर जोड़ रखा है। ऊपर से देखने में यह एक सुंदर संसार लगता है। बेहद क़रीबी। कोई अपनी बीमारी की एक पोस्ट डालता है तो उसके सारे आभासीय मित्र उसके स्वस्थ होने की टिप्पणी करते हैं। ये टिप्पणियां उस बीमार का सचमुच मानसिक उत्साहवर्द्धन करती हैं। ये आभास देती हैं कि कोई उनका अपना सगा है। कोई उनकी चिन्ता करता है। यह अहसास आंतरिक शक्ति बढ़ाता है, उत्साह बढ़ाता है। लेकिन क्या सचमुच आभासीय रिश्ते प्रत्यक्ष रिश्तों की बाराबरी कर सकते हैं? क्या आभासीय रिश्ते बुखार से तड़पते उस व्यक्ति के माथे पर पट्टी रख सकते हैं? 
पिछले दिनों मेरे एक परिचित ने मुझे हंसते हुए एक घटना सुनाई। उनके लिए वह हंसी का विषय था, एक चुटकुले की तरह लेकिन मैं उस घटना को सुन कर सोच में पड़ गई। चलिए आप भी सुनिए! मेरे उस परिचित ने बताया कि उनके पास व्हाट्सएप्प पर एक शादी का ई-कार्ड आया। साथ में यह संदेश था कि ‘‘समयाभाव के कारण मैं स्वयं निमंत्रणपत्र ले कर उपस्थित नहीं हो पा रहा हूं अतः इस ई-कार्ड को ही मेरा निवेदन समझें और अवश्य पधारें।’’ यह सुन कर मैंने उनसे कहा कि यह तो आजकल आम बात हो गई है। अब तो अधिकतर निमंत्रणपत्र व्हाट्सएप्प पर ही आते हैं, इसमें विशेष क्या है? तब उन्होंने मुझसे कहा कि ‘‘इसमें विशेष कुछ नहीं है, विशेष तो आगे सुनिए जो मैंने इस कार्ड के जवाब में किया।’’ फिर उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने एक मित्र से एक कार्टून टाईप का ई-कार्ड बनवाया जिसमें गिफ्ट ले कर शादीघर में पहुंचने और गिफ्ट देने का दुश्य था। उसे उस शादी का निमंत्रण वाले ई-कार्ड के जवाब में भेजते हुए संदेश लिखा कि ‘‘मैं भी व्यस्तता के कारण विवाह समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूं अतः इस ई-कार्ड को ही मेरी उपस्थिति मानें। मेरी भेंट स्वीकार करें। वर-वधू को आशीर्वाद।’’
मैं दंग रह गई उनकी इस हरकत को सुन कर। यह कोई काल्पनिक चुटकुला नहीं था, बल्कि सचमुच घटित घटना थी। मेरे परिचित ने मुझे वे दोनों ई-कार्ड्स और संदेश दिखाए। साथ में उन्होंने एक बात और कही जो वाकई सोचने पर मजबूर करती है। मैंने उन्हें जब टोका कि आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था तो उन्होंने गंभीरतापूर्वक यह कहा कि,‘‘शादी-विवाह तो होते ही वे समारोह हैं जिनमें सभी नाते-रिश्तेदारों एवं परिचितों-मित्रों को पीले चावल के साथ निमंत्रण दिया जाता है ताकि सभी लोग इकट्ठे हो सकें और जो सालों-महीनों से परस्पर नहीं मिल पाए हों वे भी इस बहाने आपस में मिल लें।’’
‘‘आप बिलकुल सही कह कहे हैं। यही तो मूल उद्देश्य होता है ऐसे समारोहों का। इनसे सामाजिकता बढ़ती है।’’ मैंने उनकी बात का समर्थन किया।
‘‘लेकिन आप ही देखिए कि आजकल क्या हो रहा है? लोगों के पास निमंत्रणपत्र देने आने या किसी व्यक्ति से भिजवाने का भी समय नहीं है या फिर अब इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की जाती है।’’ मेरे परिचित ने कहा।
‘‘आप सही कह रहे हैं लेकिन ज़िन्दगी भी तो इतनी व्यस्त हो चली है।’’ मैंने तर्क दिया। 
‘‘तो क्या मेरे मां-बाप की पीढ़ी के लोग फुर्सतिया थे कि जिनके पास कार्ड बंाटने और बंटवाने के अलावा और कोई काम नहीं था। आज से तीस साल पहले जब मेरी शादी हुई थी तो मेरे पापा अपने हर परिचित के घर खुद निमंत्रण पत्र ले कर गए थे। जहां वे नहीं जा पा रहे थे वहां दूसरे रिश्तेदारों और नाऊन को भेजा गया था। जबकि उस जमाने में शादी वाले घर में अनगिनत काम रहते थे। आजकल तो इवेन्ट एजेंसीज़ को सब कुछ सौंप दो और फुर्सत हो जाओ।’’ मेरे परिचित ने यह जो कुछ कहा उसमें वज़न था। उनकी बात को काटा नहीं जा सकता था। आज तो सामाजिक दायरा भी पहले की अपेक्षा सीमित हो गया है। मेहमान भी शादी समारोह के खर्चे के हिसाब से कम ही बुलाए जाते हैं। तो फिर उन सीमित लोगों के घर क्या निमंत्रणपत्र नहीं भिजवाए जा सकते हैं? या फिर ई-कार्ड भेज कर यह दायित्व पूरा मान लिया जाता है कि हमने तो आपको न्योता भेज दिया, यदि यह न्योता बुरा न लगे तो आ जाना, नहीं तो आपकी मरजी। यह बात कठोर लग रही है न? लेकिन है तो सोचने वाली। क्योंकि निमंत्रण एक सामाजिक व्यवहार होता है। यदि आप नहीं पहुंच पा रहे हैं तो कुछ घंटे का समय निकाल कर परिचितों की लिस्ट उठाएं और एक काॅल कर के निमंत्रण दे दें कि ‘‘कार्ड व्हाट्सएप्प किया है जिसमें पूरा विवरण है लेकिन मैं स्वयं आपसे प्रार्थना कर रहा हूं/ कर रही हूं कि आपको शादी में आना अवश्य है।’’ क्या जीवन में इतना भी समय नहीं निकाला जा सकता है? यदि नहीं तो वैवाहिक समारोह के सामाजिक व्यवहार का क्या अर्थ शेष रहा?

मेरा घर शहर के तनिक बाहरी हिस्से में है। कई बार मेरे साथ भी ऐसा हुआ कि मुझे फोन या व्हाट्सएप्प मैसेज पर सूचना मिली कि शहर में फलां के घर आपका निमंत्रण पत्र रखवा दिया गया है, या तो वे आपके पास भिजवा देंगे या फिर आप उधर जाइएगा तो उनसे ले लीजिएगा। यह स्थिति मुझे भी बड़ी विचित्र और असामाजिक लगती है। एकाध बार तो मेरे भी जी में आया कि मैं उन्हें उत्तर भेजूं कि ‘‘आपने जिनके घर मेरा निमंत्रण पत्र रखवाया था, उन्हीं के घर मैंने व्यवहार का लिफाफा/उपहार रखवा दिया है, कृपया किसी को भेज कर मंगवा लीजिएगा।’’ यद्यपि मैंने अपने उस परिचित की भांति ऐसा कभी किया नहीं लेकिन ऐसे समारोह में जाने का फिर मन भी नहीं हुआ।

क्या सोशल मीडिया पर संवाद ही सब कुछ है? एक दिन मेरी एक परिचित ने मुझे बताया कि उनके फेसबुक मित्रों की संख्या पांच हजार हो गई है इसलिए वे अपना एक दूसरा अकाउंट खोलने जा रही हैं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि आपके कितने मित्र हैं? मैंने कहा कि मेरे भी पांच हजार से अधिक आभासीय मित्र हैं। यह सुन कर उन्होंने मुझे टोका कि ‘‘आभासीय मित्र’’ से मतलब?
‘‘वचुएल फ्रेंड।’’ मैंने कहा। तो वे बोलीं कि यह तो आपने उसी का अंग्रेजी शब्द बता दिया। मित्र तो मित्र होते हैं, चाहे वर्चुएल हों या रियल हों।’’ मैंने कहा कि ‘‘यही तो अंतर है। आभासीय मित्र अपने होने का आभास भर दे सकते हैं जबकि प्रत्यक्ष मित्र आपका हाथ पकड़ कर आपको हिम्मत बंधा सकते हैं।’’ उनके जाने के बाद मैंने विचार किया कि स्थितियां कितनी तेजी से बदलती जा रही हैं। हम खुद को अकेला करते जा रहे हैं। यह सच है कि सोशल मीडिया पर हमारे अनेक मित्र होते हैं। लेकिन यह भी सच है कि उनमें बहुत लोगों के बारे में हमें ठीक से पता भी नहीं होता है। कई तो फेक आईडी बना कर हमसे जुड़े होते हैं। हम उनकी वास्तविकता से बेखबर रहते हैं। बस, यही है कि जब हम अपना दुख या खुशी जाहिर करते हैं तो वे हमारे साथ खड़े महसूस होते हैं। ‘‘महसूस होने’’ और ‘‘होने में’’ यही फ़र्क होता है। 

अभी हाल ही का मामला है। मेरी एक परिचित की तबीयत जरा खराब थी। उन्हें लू लग गई थी। वे कार्यक्रमों में नहीं जा सकीं। इसके बाद उनके पास फोन और मैसेज तो कई आए लेकिन उनके घर पहुंच कर पूछने वालों में दो-चार लोग ही थे। जब मैं उनसे मिली तो उन्होंने हंस कर कहा कि ‘‘अब देखना जब मैं किसी कार्यक्रम में पहुंचूंगी तो कई लोग मुझे उलाहना देंगे कि मैंने उनका फोन रिसीव नहीं किया या उनके मैसेज का उत्तर नहीं दिया। यानी बीमारी की अवस्था में भी यह मेरी ही ड्यूटी है कि मैं उनका फोन रिसीव कर के अपनी हालत का ब्यौरा उन्हें दूं। क्या उनका फर्ज नहीं बनता कि एक ही शहर में रहते हुए वे मेरे घर आ कर पता करें कि यदि मैं फोन नहीं उठा रही हूं तो कहीं कोई गंभीर स्थिति तो नहीं है? लोग कितने असामाजिक और स्वार्थी हो चले हैं।’’ उनका यह कहना उचित था क्योंकि वे अधिकांश लोगों के सुख-दुख में शामिल होती हैं लेकिन उनके कष्ट में इस तरह औपचारिकता बरता जाना उनके लिए पीड़ादायक ही होगा। 

ऐसा नहीं है कि समाज अभी पूरी तरह से आभासीय हो गया है, समाज में अभी भी ऐसे कई लोग हैं जो सामाजिकता को बचाए हुए हैं। मेरे शहर में ही कई ऐसे लोग हैं जो सोशल मीडिया पर कम समय रहते हैं लेकिन समाज के बीच अपना पूरा समय देते हैं। पिछले दिनों एक छोटा-सा उदाहरण मेरे दिल को छू गया। मेरे शहर सागर में श्रीराम सेवा समिति नामक संस्था है जो सभी का सहयोग और सेवा करने के लिए तत्पर रहती है। यह संस्था प्रति वर्ष गर्मियों में रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को निःशुल्क ठंडा पेयजल उपलब्ध कराती है। उसके वर्तमान अध्यक्ष डाॅ विनोद तिवारी यूं तो अनके सामाजिक कार्य करते रहते हैं लेकिन यहां मैं उनके एक फेसबुक पोस्ट भर का उल्लेख करूंगी जो कि सामाजिकता के प्रति दायित्व भाव को बताता है। यह पोस्ट 2 मई 2025 की है जिसको उनकी बिना अनुमति अक्षरशः यहा साझा कर रही हूं। उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा कि ‘‘आदरणीय मित्रो जैसा कि आप सभी को विदित है कि गर्मी के दिनों में सागर रेलवे स्टेशन पर 24 घंटे निःशुल्क जल सेवा की जवाबदारी मेरे ऊपर रहती है इस कारण से मैं आपके किसी भी फेसबुक व्हाट्सएप मैसेज का उत्तर नहीं दे पाता हूं तो आप कृपया मुझे क्षमा करेंगे। क्योंकि आप सभी को मालूम है कि यह सेवा बहुत बड़ी है इसमें आप सभी का सहयोग है और आप सभी का सहयोग हमेशा हमे रहता है ऐसा मैं मानता हूं इसलिए मैं आपके जो भी व्हाट्सएप मैसेज आते हैं मैं उनका उत्तर नहीं दे पाता हूं इसलिए आप मुझे क्षमा करें मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है आप मुझे क्षमा करेंगे जय श्री राम!’’
सोशल सर्विस के लिए सोशल मीडिया से कुछ अरसे के लिए किनारा करना क्या यह सबके लिए संभव है? शायद उनके लिए नहीं जो हर समय आभासीय दुनिया में खोए रहते हैं। दिलचस्प बात ये है कि श्रीराम सेवा समिति की टीम में अनेक ऐसे सेवादार हैं जो एकदम युवा हैं और जो रील बनाने का मोह छोड़ कर रियल लाईफ सेवा में जुटे रहते हैं। शायद ऐसे लोगों से ही सामाजिकता अभी बची हुई है। यहां विचारणीय यह भी है कि सोशल मीडिया ने जाने-अनजाने अनेक लोगों को परस्पर जोड़ रखा है। ऊपर से देखने में यह एक सुंदर संसार लगता है। बेहद क़रीबी। कोई अपनी बीमारी की एक पोस्ट डालता है तो उसके सारे आभासीय मित्र उसके स्वस्थ होने की टिप्पणी करते हैं। ये टिप्पणियां उस बीमार का सचमुच मानसिक उत्साहवर्द्धन करती हैं। यह आभास देती हैं कि कोई उनका अपना सगा है। कोई उनकी चिन्ता करता है। यह अहसास आंतरिक शक्ति बढ़ाता है, उत्साह बढ़ाता है। लेकिन क्या सचमुच आभासीय रिश्ते प्रत्यक्ष रिश्तों की बाराबरी कर सकते हैं? क्या आभासीय रिश्ते बुखार से तड़पते उस व्यक्ति के माथे पर पट्टी रख सकते हैं? बुखार में तपड़पते व्यक्ति के माथे पर पट्टी रखने का काम रियल व्यक्ति ही कर सकते हैं। इसलिए सामाजिकता के महत्व को समझना जरूरी है। जरूरी है उन सभी सामाजिक मूल्यों को फिर से सहेजने की जो हमारे हाथ से रेत की भांति फिसलते जा रहे हैं। आभासीय के साथ वास्तविक को जीना भी जरूरी है। 
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