Wednesday, September 20, 2023

चर्चा प्लस | श्रीगणेश के प्रथमपूज्य देवता होने का समसामयिक महत्व | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
श्रीगणेश के प्रथमपूज्य देवता होने का समसामयिक महत्व           
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
          चाहे हिन्दू हों अथवा किसी अन्य धर्म को मानने वाले, किन्तु सभी जानते हैं कि हिन्दू पूजाविधि में श्रीगणेश की पूजा से ही हर अनुष्ठान आरम्भ होता है। हिन्दू धर्म में श्रीगणेश को कार्य आरम्भ करने का पर्याय माना गया है। इसीलिए किसी भी कार्य को आरम्भ करते हुए कहा जाता है कि ‘‘श्रीगणेश किया जाए’’। गणेश को विघ्नविनाशक देवता माना गया है अतः कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व यह विघ्नहर्ता की प्रार्थना भी आवश्यक है। किन्तु श्रीगणेश ही क्यों प्रथमपूज्य देवता माने गए, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो स्वयं में सर्वशक्तिमान देवता हैं? तो चलिए देखते हैं उन पौराणिक कथाओं को जो यह बताती हैं कि गणेश प्रथमपूज्य देवता कैसे बने। ये कथाएं वर्तमान जीवन को भी महत्वपूर्ण सबक देती हैं।
हिन्दू धर्म संस्कृति में हर शुभकार्य एवं पूजाविधि का आरंभ श्रीगणेश पूजा से ही होता है। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम ‘‘श्रीगणेशाय नमः’’ लिखते हैं। यहां तक कि चिट्ठी और महत्वपूर्ण कागजों में लिखते समय भी ‘‘ऊं’’ या ‘‘श्रीगणेश’’ का नाम अंकित करते हैं। क्योंकि यह माना जाता है कि श्रीगणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। शुभकार्यों के आरंभ एवं पूजन के पूर्व श्रीगणेश पूजा ही क्यों की जाती है? इस संबंध में पौराणिक ग्रंथों में विविध कथाएं मिलती है।
कहा जाता है कि कोई भी जीत बल से नहीं वरन बुद्धि से हासिल होती है। एक पहलवान शारीरिक दृष्टि से कितना भी बलशाली क्यों न हो, यदि उसमें दांव-पेंच की बुद्धि नहीं है तो उसका पटखनी खाना तय है। इसी बात को प्रमाणित करती है यह कथा कि श्रीगणेश प्रथमपूज्य देवता कैसे बने।
कथा के अनुसार एक बार सभी देवता इंद्र की सभा में बैठे हुए थे। बात पृथ्वीलोक की होने लगी। तब यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर किस देवता की पूजा सबसे पहले होनी चाहिए? सभी देवता स्वयं को बड़ा बताते हुए दावा करने लगे कि उनकी पूजा सबसे पहले होनी चाहिए। तब देवर्षि नारद ने हस्तक्षेप किया और सलाह दी कि सभी देवता अपने-अपने वाहन से पृथ्वी की परिक्रमा करें। जो देवता सबसे पहले परिक्रमा पूरी कर लेगा, वही पृथ्वी पर प्रथमपूज्य होगा। देवर्षि नारद ने शिव से निणार्यक बनने का आग्रह किया। सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। विष्णु गरुड़ पर, कार्तिकेय मयूर पर, इन्द्र ऐरावत पर सवार हो कर तेजी से निकल पड़े। जबकि श्रीगणेश मूषक पर सवार हुए और अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। माता पार्वती ने गणेश का यह कृत्य देखा तो उनसे पूछा कि ‘‘गणेश यह तुम क्या कर रहे हो? सभी देवता परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं और तुम हमारी परिक्रमा कर के यही खड़े हो? क्या तुम्हें पृथ्वी का प्रथमपूज्य देवता नहीं बनना है?’’
इस पर गणेश जी ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया,‘‘माता! मैंने आप दोनों की परिक्रमा कर के पृथ्वी ही नहीं अपितु पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर ली है। माता-पिता में ही पूरा ब्रह्मांड समाया होता है। अब मुझे पृथ्वी की परिक्रमा कर के क्या करना है!’’
  पुत्र गणेश का उत्तर सुन कर शिव और पार्वती दोनों प्रसन्न हो गए। वे समझ गए कि उनका यह पुत्र सबसे अधिक बुद्धिमान है और एक सबसे बुद्धिमान देवता की पूजा से ही हर कार्य आरम्भ होना चाहिए।
तभी सभी देवताओं में कार्तिकेय सबसे पहले लौटा और उसने गर्व से कहा कि ‘‘पिताश्री! मैं पृथ्वी की परिक्रमा कर के सबसे पहले आया हूं अतः अब पृथ्वीवासी सबसे पहले मेरी पूजा किया करेंगे। मैं ही प्रथमपूज्य देवता हूं।’’  
तब शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘‘हे पुत्र कार्तिकेय, तुम प्रथम नहीं आए हो! तुमसे पहले तुम्हारा भाई गणेश परिक्रमा कर चुका है। वह भी पृथ्वी की ही नहीं वरन पूरे ब्राम्हांड की। अतः यही प्रथमपूज्य होगा।’’
कार्तिकेय को यह सुन कर बहुत गुस्सा आया। उसे लगा कि माता-पिता पक्षपात कर रहे हैं। उसने शिव को उलाहना दिया कि ‘‘आप गणेश को इस लिए विजयी कह रहे हैं न क्योंकि वह आपका प्रिय पुत्र है? वह मोटा है और उसका वाहन छोटा चूहा है, इसलिए आपको उस पर दया आ रही है। यही बात है न?’’
यह सुन कर शिव ने पूर्ववत मुस्कुराते हुए कार्तिकेय को समझाया कि ‘‘नहीं पुत्र कार्तिकेय! मैं कोई पक्षपात नहीं कर रहा हूं। मेरे लिए मेरी सभी संतानें समान रूप से प्रिय हैं। तुम तथा अन्य देवता महर्षि नारद का प्रयोजन नहीं समझे जबकि गणेश ने समझ लिया। गणेश जान गया कि नारद बुद्धि की परीक्षा ले रहे हैं, परिक्रमा की गति की नहीं। अतः उसे बुद्धि से काम लिया और मेरी तथा तुम्हारी मां पार्वती की परिक्रमा करते हुए ब्रह्मांड की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त कर लिया। इस प्रकार उसने प्रतियोगिता भी जीत ली।’’
जब कार्तिकेय ने यह विवरण सुना तो वह लज्जित हो उठा और उसने श्रीगणेश को उनकी विजय पर बधाई दी। तब तक सभी देवता परिक्रमा कर के लौट आए थे। उन्होंने भी सर्व सम्मति से बुद्धि के देवता गणेश को प्रथमपूज्य देवता स्वीकार कर लिया।
       एक अन्य कथा भी है जो श्रीगणेश के जन्म से जुड़ी हुई है। एक बार माता पार्वती स्नान करने के लिए स्नानघर में प्रवेश करने वाली थीं। किन्तु वहां आस-पास कोई नहीं था जिसे वे द्वार पर पहरा देने का काम सौंपतीं। वे नहीं चाहती थीं कि जब वे स्नान कर रही हों तो कोई आ कर उनके स्नानकर्म में व्यवधान डाले। तब माता पार्वती को एक उपाय सूझा। उन्होंने अपने शरीर के उबटन से एक बालक की प्रतिमा बनाई और उसमें प्राण फूंक कर उसे जीवित कर दिया। प्राण प्राप्त होते ही बालक ने हाथ जोड़ कर पूछा,‘‘मेरे लिए क्या आज्ञा है माता?’’
‘‘तुम इस महल के द्वार पर पहरा दोगे। जब तक मेरा स्नान पूर्ण न हो जाए तब तक किसी को भी महल में प्रवेश मत करने देना।’’ पार्वती ने आज्ञा दी।
‘‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य माता!’’ कहते हुए वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा।
कुछ देर में भगवान शिव वहां आ पहुंचे। द्वार पर बैठा बालक तो सद्यः जन्मा था अतः शिव अथवा किसी अन्य व्यक्ति के बारे में उसे ज्ञान नहीं था। उसने शिव को महल में प्रवेश करने से रोका। शिव ने उसे सामझाया कि वे इसी महल में रहते हैं और जिस माता की आज्ञा का तुम पालन कर रहे हो वह मेरी अद्र्धांगिनी है।
‘‘तो क्या अद्र्धांगिनी की कोई अपनी इच्छा या प्रतिष्ठा नहीं होती है? यदि वे चाहती हैं कि इस समय महल में कोई प्रवेश न करे, तो उनकी यह इच्छा आप पर भी लागू होती है।’’ उस बालक ने तर्क दिया। यह सुन कर शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोधावेश में बालक का सिर काट दिया। तब तक झगड़े की आवाज सुन कर पार्वती द्वार तक आ पहुंची थीं। उन्होंने उस बालक को सिरविहीन देखा तो दुख और क्रोध से भर उठीं।
‘‘यह आपने क्या किया? आपने मेरे पुत्र का सिर क्यों काटा? मेरा पुत्र आपका भी पुत्र हुआ अतः आपने अपने पुत्र का सिर काट कर आप पुत्रहंता बन गए।’’ पार्वती ने कहा।
‘‘मुझे नहीं मालूम था कि यह आपका पुत्र है? यह हठ कर रहा था और मुझे महल में प्रवेश नहीं करने दे रहा था इसीलिए मुझे क्रोध आ गया।’’ शिव ने पार्वती को शांत करना चाहा।
‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती हूं! आप मेरे आज्ञाकारी पुत्र को जीवित करिए, अन्यथा मैं भी प्राण त्याग दूंगी।’’ पार्वती ने शिव को चेतावनी दी।
तब शिव ने हाथी के सद्यःमृत बच्चे के सिर को उस बालक धड़ से जोड़ दिया जिससे वह बालक पुनर्जीवित हो उठा। सूंड़धारी उस बालक को माता पार्वती ने प्रसन्नता से गले लगा लिया। उस बालक ने भगवान शिव को प्रणाम करते हुए कहा,‘‘पिताश्री, जिस प्रकार माता पार्वती ने मुझे बनाया और मुझे प्राण दिए उसी प्रकार आपने मुझे पुनर्जीवन दिया अतः आप दोनों मेरे जन्मदाता माता-पिता हैं, मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूं।’’
यह सुन कर भगवान शिव समझ गए कि यह बालक सामान्य नहीं है अपितु सभी देवताओं में बुद्धिमान है अतः उन्होंने उस बालक का नामकरण करते हुए उसे आर्शीवाद दिया कि ‘‘तुम आज से गणेश, गणपति एवं गजानन, गजवदन आदि नामों से जाने जाओगे और तुम बुद्धि के देवता होने के कारण सभी देवताओं से पहले पूजे जाओगे।’’
   यह सुन कर माता पार्वती का क्रोध शांत हो गया तथा उन्होंने अपने पुत्र गणेश को ‘‘श्रीगणेश’’ कह कर संबोधित किया।
         श्रीगणेश के प्रथम पूज्य होने के संबंध में प्रचलित तीसरी कथा इस प्रकार है कि एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनका एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा भगवान शिव को बताई। इस पर शिव ने उन्हें पुष्पक व्रत करने की सलाह दी। पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। शुभ मुहूर्त पर यज्ञ का आरम्भ हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र सनत कुमार यज्ञ की पुरोहिताई कर रहे थे।
यज्ञ पूर्ण होने पर विष्णु ने पार्वती को आशीर्वाद दिया कि जिस प्रकार यह यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ है उसी प्रकार आपकी इच्छानुरूप विध्नविनाशक पुत्र आपको प्राप्त होगा। विष्णु से यह आशीर्वाद पा कर माता पार्वती प्रसन्न हो उठीं। यह देख कर सनत कुमार ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘‘मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। पुरोहित हूं। यज्ञ भले ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाएगा, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।’’
‘‘बताइए आपको दक्षिणा में क्या चाहिए?’’ माता पार्वती ने सनत कुमार से पूछा।
‘‘माता भगवती, मैं आपके पतिदेव शिव जी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।’’ सनत कुमार ने विचित्र मांग की।
‘‘ऋत्विक सनत कुमार!, आप एक स्त्री से उसका पति अर्थात् उसका सौभाग्य मांग रहे हैं जो देना मेरे लिए संभव नहीं है। अतः आप कुछ और मांगिए।’’ माता पार्वती ने सनत कुमार की मांग ठुकराते हुए कहा।
सनत कुमार अपनी मांग पर अड़ गए। पार्वती ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि यदि मैं आपको अपना पति सौंप दूंगी तो मुझे पुत्र की प्राप्ति कैसे होगी? यज्ञ का फल तो उस स्थिति में भी नहीं मिलेगा। अतः आप हठ छोड़ दें। किन्तु सनत कुमार अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं थे। तब शिव ने पार्वती को समझाया कि ‘‘आप मुझे सनत कुमार को दक्षिणा में दान कर दें और विश्वास रखें कि आपकी इच्छा भी पूर्ण होगी।’’
पार्वती सनत कुमार को दक्षिणा में शिव का दान करने ही वाली थीं कि एक दिव्य प्रकाश के रूप में विष्णु प्रकाशित हुए तथा अगले ही पल श्रीकृष्ण का रूप धारण कर के सनत कुमार के सामने आ खड़े हुए। सनत कुमार ने विष्णु के कृष्ण रूप का दर्शन किया और कहा,‘‘मेरी इच्छा पूर्ण हुई अब मुझे दक्षिणा नहीं चाहिए। मैं जानता था कि आपको दान देने से रोकने के लिए विष्णु मेरी इच्छा पूर्ण अवश्य करेंगे।’’
इसके बाद सभी देवता तथा यज्ञकर्ता पार्वती को आशीर्वाद देकर वहां से चले गए। पार्वती अभी अपनी प्रसन्नता से आनन्दित ही हो रही थीं कि एक विप्र याचक वहां आ गया। उसने खाने को कुछ मांगा। पार्वती ने उसे मिष्ठान्न दिए। उतना खा लेने के बाद वह याचक बोला,‘‘मां अभी भूख नहीं मिटी है, थोड़ा और दो!’’
पार्वती ने और मिष्ठान्न दे दिया। इसके बाद याचक खाता जाता और मांगता जाता। पार्वती उसे खिला-खिला कर थक गईं। उन्होंने शिव से कहा कि ‘‘ये न जाने कैसा याचक आया है जिसका पेट ही नहीं भर रहा है। मैं तो खिला-खिला कर थक गई।’’
‘‘कहां है वह याचक?’’ कहते हुए शिव याचक को देखने निकले तो वहां कोई नहीं था। पार्वती चकित रह गईं कि अभी तो वह याचक भोजन की मांग कर रहा था और पल भर में कहां चला गया? तब शिव ने पार्वती को उस याचक का रहस्य समझाया कि वह कोई याचक नहीं बल्कि तुम्हारे उदर से जन्म लेने की तैयार कर रहा गणेश है जो जन्म के बाद लंबोदर कहलाएगा और देवताओं में प्रथम भोग पाने वाला प्रथम पूज्य होगा।’’
ये तीनों कथाएं न केवल अयंत रोचक हैं बल्कि यह बताती हैं कि बुद्धि का उपयोग करने वाला ज्ञानी ही प्रथम पूज्य बनता है। इन कथाओं को मात्र धार्मिक भावना से नहीं, वरन ज्ञान भावना से भी समझने का प्रयास करना चाहिए। बुद्धि ही है जो जीवन में सुख, संपदा और सफलता दिलाती है तथा बुद्धि के देवता हैं श्री गणेश इसीलिए तो वे ही प्रथम पूज्य देवता हैं।  
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