चर्चा प्लस
अकादमिक हिंदी, बोलचाल की हिंदी और हाशिए की हिंदी
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं पर समुचित ध्यान दिया गया है। किन्तु इससे सर्व स्वीकार्य भाषा के रूप में हिंदी पर कोई सहमति बन पाएगी या नहीं, यह कहना जल्दबाजी होगी। भाषाओं की जिस विविधता को लेकर हम गर्व करते हैं वही विविधता कभी-कभी मुश्किलें खड़ी कर देती है। या फिर यह कहे की भाषा को लेकर हमारा आग्रह हमारी मुश्किलों को बढ़ा देता है। नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र दिया गया है। त्रिभाषा सूत्र में शास्त्रीय भाषाएं जैसे संस्कृत, अरबी, फारसी, राष्ट्रीय भाषाएं तथा आधुनिक यूरोपीय भाषाएं हैं। इन तीनों श्रेणियों में किन्हीं तीन भाषाओं को पढ़ाने का प्रस्ताव है। आग्रह तो यह भी है कि हिन्दीभाषी राज्यों में दक्षिण की कोई भाषा पढ़ाई जानी चाहिए। वैसे, फिलहाल देखते हैं कि ‘हिंदी पट्टी’ में हिंदी की वर्तमान दशा कैसी है?
वर्तमान में तीन तरह की हिंदी प्रचलन में है- अकादमिक हिंदी, बोलचाल की हिंदी और हाशिए की हिंदी।
अकादमिक हिंदी वह है जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा विषय के रूप में पढ़ाई जा रही है। अकादमिक हिंदी का दायित्व सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण क्योंकि यहीं से हिंदी की नींव सुदृढ़ होती है। महाविद्यालयीन एवं विश्वविद्यालयीन स्तर पर अनेक शोध कार्य किए जाते हैं ताकि हिंदी का विकास हो सके। फिर भी यह देखने में आता है कि उन्हीं परिसरों में हिंदी की दशा संतोषजनक नहीं रहती है। आखिर ऐसी क्या कमी हैं कि विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी की अपेक्षा हिंदी का चलन घटता दिखाई देता है। हिंदी भाषा पढ़ने में छात्रों का रुझान घटा है। इसका सबसे बड़े दो कारण हैं जो मुझे समझ में आते हैं- (1) छात्रों की शैक्षिक बुनियाद अंग्रेजी की बनी होती है। अबोध अवस्था से ही आंग्ल भाषा के विद्यालयों में बच्चों को शिक्षा दिलाने के बाद हम यह कैसे आशा कर सकते हैं कि वे आगे चल कर उच्च शिक्षा में हिंदी भाषा का चयन करेंगे? जिस भाषा के संस्कार एवं शिक्षा उन्हें मिली ही नहीं, उसे वे क्यों अपनाना चाहेंगे? आज माता-पिता भी अपने बच्चों को अंग्रेजी में गिटपिट करते देख कर गौरव का अनुभव करते हैं, साथ ही इस बात से आश्वस्त रहते हैं कि अंग्रेजी के ज्ञान से उनके बच्चे का भविष्य सुरक्षित रहेगा। आज एक युवा मां अपने बच्चे को घर में ‘रुमाल’ कहना नहीं सिखाती है अपितु ‘‘हैंकी’’ कहना सिखाती है। इसका कारण यहीं है कि उस युवा मां ने भी अपने भाषाई संस्कार के रूप में अंग्रेजी को पाया है और उसी में सामाजिक गौरव और आर्थिक सुरक्षा अनुभव करती है।
दूसरा कारण जिससे हिंदी पिछड़ती जा रही है, वह है (2) हिंदी का आर्थिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा से दूर रखा जाना। हम हिंदी पर चाहे राष्ट्रीय सम्मेलन करें अथवा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन करें, सम्मेलन में सहभागी विद्वतजन की परस्पर संपर्क भाषा अंग्रेजी ही बनी रहती है। यह सुनी-सुनाई बात नहीं, वरन मेरा स्वयं का अनुभव है कि माईक पर हिंदी की पक्षधारिता की दुंदुभी बजाने वाले हिंदी के विद्वान माईक से हटते ही मंच पर बैठ कर अपने माथे पर चिंता की रेखाएं गढ़ते हुए कहते हैं-‘‘वी नीड टू डू ए लाॅट आॅफ वर्क फाॅर हिंदी। आई हेव आलसो सबमिटेड ए प्रोजेक्ट इन दिस रिगार्ड टू द गवर्नमेंट।’’ अर्थात् हमें हिन्दी के लिए बहुत काम करने की आवश्यकता है। मैंने तो इस संबंध में सरकार के पास एक प्रोजेक्ट भी सबमिट किया हुआ है।
क्या प्रोजेक्ट मिल जाने पर वे विद्वान हिंदी का विकास कर सकेंगे? यदि ऐसा संभव होता तो इस दिशा में सरकार द्वारा फूंके गए करोड़ों रुपयों के बदले हिंदी आज रानी बनी दिखाई देती, नौकरानी नहीं। हिंदी को व्यक्तिगत धनार्जन का साधन बना कर ऐसे लोग हिंदी से ही धोखा करते हैं। वे अंग्रेजी में ही योजना बनाते हैं कि हिंदी के विकास के नाम पर कैसे पैसे कमाए जाएं? देखा जाए तो हिंदी के विकास में अकादमिक तबके से कहीं अधिक निजी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों ने योगदान दिया है। निःसंदेह वे अपना उत्पाद बेचने के लिए हिंदी का सहारा लेते हैं किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से जनमानस को हिंदी से जोड़े रखने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। फिल्म जगत को ही ले लिया जाए। हाॅलीवुड की फिल्मों से ले कर अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों तक को हिन्दी में डब कर के हिंदी में संवाद और सामगं्री की उपलब्धता को बनाए रखा जा रहा है।
यदि बात अनुवाद की जाए तो तकनीकी शब्दावली के अनुवाद ने हिंदी को कठिन बना कर उसे बहुत क्षति पहुंचाई है। तकनीकी शब्दावली में संस्कृतनिष्ठ कठिन शब्दावली के बजाए सरल पर्याय रखे जाएं तो पढ़ने वालों को तुरंत ग्राह्य होगी। उन्हें यह महसूस नहीं होगा कि इससे तो अंग्रेजी के शब्द ही अधिक आसान हैं।
नई शिक्षा नीति में अकादमिक हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति संपर्क पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। एक त्रिभाषा फार्मूला दिया गया है। यद्यपि त्रिभाषा का सूत्र 1964 के कोठारी कमीशन में भी रखा गया था। कोठारी कमीशन ने ‘‘त्रिभाषा सूत्र’’ इस प्रकार प्रतिपादित किया था - (1) मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, (2) केन्द्र की राजभाषा या सहराजभाषा, (3) एक आधुनिक भारतीय भाषा या विदेशी भाषा जो नं. (1), (2) के अंतर्गत न चुनी गई हो और जो शिक्षा का माध्यम न हो । फिर त्रिभाषा का फार्मूला पहली बार 1968 में केंद्र सरकार द्वारा तैयार किया गया था और इसे तत्कालीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शामिल किया गया था। योजना के पीछे का विचार यह सुनिश्चित करना था कि छात्र अधिक भाषा सीखें। 1968 के बाद 1992 में इसमें संशोधन किया गया था। नई शिक्षा नीति में जिस तरह से प्राथमिक तौर पर मातृभाषा के प्रभाव को समायोजित करते हुए हिंदी भाषा के महत्व को भी सम्मिलित किया हैं वह हिंदी के प्रभुत्व को स्थापित करते हुए भविष्य में हिंदी युग की स्थापना का कारक बनेगा। हिंदी के साथ-साथ भारतीय भाषाओँ का भी महत्व बने और अंग्रेजी का आधिपत्य समाप्त हो यही मूल ध्येय रहा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भाषा शिक्षा और भाषा को बहुभाषावाद के रूप में वर्णित करती है। एनईपी के अध्याय चार के अनुसार स्कूल में छटी कक्षा से शुरू कर कम से कम दो वर्षों के लिए संस्कृत तथा शास्त्रीय भाषाओं का अध्ययन कराया जायेगा। उच्च शिक्षा में भी संस्कृत पर बल दिया जायेगा। वर्तमान नई शिक्षानीति हिंदी के उत्थान एवं संरक्षण में कितनी सफल रहती है, यह तो भविष्य ही बताएगा।
अब बात आती है बोलचाल की हिंदी की। इसमें कोई संदेह नहीं कि मातृभाषा के बिना व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति अधूरी है। मातृभाषा वह है जिसे बालक सबसे पहले अपनी मां से सीखता है और फिर परिजनों के साथ उसका विकास करता है। मातुभाषा के रूप में यही बोलचाल की हिंदी है जिससे हम भाषाई समृद्ध तो होते ही हैं, साथ ही दैनिक कार्यों में परस्पर संवाद को आसान बनाते हैं। लेकिन व्यवहारिक रूप में हो यह रहा है कि आंग्ल माध्यम से पढ़े-लिखे प्रबुद्धवर्ग ने दैनिक संपर्क में आने वाले हिंदी भाषियों को भी अंग्रेजी के शब्दों का सहारा लेने पर विवश कर दिया है। आज हिंदी अथवा आंचलिक भाषा का समर्थ जानकार सब्जीवाला प्रयास करता है कि वह अपनी सब्जियों का अंग्रेजी नाम ले कर उन्हें अधिक से अधिक बेंच सके। ये अंग्रेजी नाम उसके अपने ज्ञानवर्द्धन के लिए नहीं होते हैं, वह एक और भाषा का ज्ञान प्राप्त करने की लालसा से इन्हें नहीं सीखता है, अपितु उसे इस बात का विश्वास है कि यदि वह टमाटर को ‘टमैटो’, अन्नानास को ‘पाईनेप्पल’ बोलेगा तो उसके अंग्रेजीदां ग्राहक उससे खरीददारी करेंगे। यानी हम हिंदी की पैरवी में चाहे जितने राग अलाप लें किन्तु जाने-अनजाने हमने आम बोलचाल की हिंदी में भी अंग्रेजी का दबाव बना दिया है। हंा, यह जरूर है कि बोलचाल की हिंदी में बहुभाषी शब्दों के समावेश ने जो उसे लचीलापन दिया हैॅ उससे बोलचाल की हिंदी प्रवाहमान है। हिन्दी की क्रियाएं हिंदेत्तर शब्दों को आत्मसात कर के अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं।
अब रहा प्रश्न हाशिए की हिंदी का तो जब तक हिंदी राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं पा जाएगी तब तक हाशिए पर ही रहेगी। किसी भी देश या राष्ट्र द्वारा किसी भाषा को जब अपने राजकार्य के लिए भाषा घोषित किया जाता है तो उसे उसकी राष्ट्र भाषा कहा जाता है। भारतीय संविधान में कोई भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में उल्लिखित नहीं है। कई बार हिंदी को राष्ट्रभाषा कह दिया जाता हैै, लेकिन वास्तविकता यह है कि संविधान के सत्रहवें अध्याय में हिंदी को राजभाषा अर्थात राजकाज की भाषा के रूप में अंकित किया गया है। अन्य राज्यों या प्रदेशों की 22 भाषाओं को भी राज्य की राजभाषा के रूप में रखा गया है। भाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा को लेकर देश में अनेक आंदोलन, प्रदर्शन और विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं, फलतः देश की कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नहीं पा सकी है। भारत की आधिकारिक भाषा, हिन्दी है और अंग्रेजी सहायक या गौण आधिकारिक भाषा है, भारत के राज्य अपनी आधिकारिक भाषा या भाषाएं विधिक रूप से घोषित कर सकते हैं। भारतीय संविधान और भारतीय कानून किसी भाषा को देश की राष्ट्रभाषा के रूप में परिभाषित नहीं करता है। उल्लेखनीय है कि जिस समय संविधान लागू किया जा रहा था, उस समय अंग्रेजी आधिकारिक रूप से केन्द्र और राज्य दोनो स्तरों पर उपयोग में थी। संविधान द्वारा यह परिकल्पित किया गया था कि अगले 15 वर्ष में अंग्रेजी को चरणबद्ध रूप से हटा कर विभिन्न भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी, को उपयोग में लाया जाएगा, लेकिन तब भी संसद को यह अधिकार दिया गया था कि वह विधिक रूप से उसके बाद भी अंग्रेजी का उपयोग हिन्दी के साथ केन्द्र स्तर पर और अन्य भाषाओं के साथ राज्य स्तर पर चालू रख सकती है।
भारतीय संविधान द्वारा, 1950 में, देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया। यदि संसद द्वारा तुष्टिकरण वाला निर्णय नहीं लिया जाता, तो 15 वर्षों बाद अर्थात 26 जनवरी, 1965 को अंग्रेजी का उपयोग आधिकारिक कार्यों के लिए समाप्त होना था। लेकिन अहिन्दी-भाषी राज्यों में विरोध की लहर चली। परिणामस्वरूप संसद द्वारा आधिकारिक भाषा अधिनियम के तहत आधिकारिक कार्यों के लिए अंग्रेजी के उपयोग को हिन्दी के साथ-साथ 1965 के बाद भी जारी रखने को स्वीकृति दी गई। परिणामस्वरूप, भारत की कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है। जबकि 22 आधिकारिक भाषाएं हैं।
पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगों को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी। बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्रभाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं। स्वतंत्र भारत में अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
हिन्दी के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमने वह वातावरण निर्मित होने दिया है जहां अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दे कर ही इस बुनियादी बाधा को दूर किया जा सकता है। हिन्दी लोकप्रिय भाषा तो है ही, बस, राष्ट्रभाषा बन जाए तो वह दुनिया में देश की भाषाई पहचान बन सकती है। सहयोगी भाषा के रूप में अंग्रेजी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं को यथास्थिति बने रहने दिया जा सकता है किन्तु हिंदी को हाशिए से निकाल कर गौरव के साथ जीवित रखने के लिए राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाना आवश्यक है।
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