"बे इसरो वारे कोन-सी चक्की को आटा खा रए?" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
बे इसरो वारे कोन-सी चक्की को आटा खा रए?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘काए भैयाजी अपने इते को चंद्रयान चंदा पे पौंच गओ के नईं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘कब को पौंच गओ! तुमने तो खुदई टीवी पे देखी रई औ आज पूछ रईं। का याददाश्त हिरा गई?’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘कछू नई हिराओ! आप तो जे बताओ के अब अपने इसरो वारे सूरज के लिंगे यान भेज रए, के नईं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ! अब तो सूरज वारो अभियान चल रओ।’’ भैयाजी ने शान से कई।
‘‘मने चार दिना पैले चंदा पे पौंचे औ अब आठ दिनां में सूरज की फोटुए लेन लगहें, है के नई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ! तुमें तो सोई पतो आए। सुभै से अखबार पढ़त रैत आओ औ हमसे पूछें जा रईं? का हमाओ आईक्यू टेस्ट ले रईं?ं’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘मोए का करने आपको आई क्यू टेस्ट ले के। मोय तो जे जानने आए के बे ओरें जो चंदा औ सूरज पे जा रए, बे कोन सी चक्की को आटा खात आएं?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘कोनऊं चक्की को खा रए होंय, तुमें ईसे का?’’ भैयाजी बोले। उने समझ ने पर रई हती के मैंने जे काय पूछ रई?
‘‘मोय ई लाने जानने आए के जोन चक्की को आटा बे ओरें खा रए, बोई चक्की को आटा मंगवाबे के लाने सरकार को चिट्ठी लिखने मोय।’’मैंने कई।
‘‘काय, तुम का रहो बोई चक्की को आटा खा के? का तुमें नेप्च्यून औ प्लूटो पे जाने?’’ भैयाजी ठिठोली करत भए बोले।
‘‘ईमें कोनऊं हंसी-ठट्ठा की बात नोईं। औ मोय अपने लाने नोई चाउने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो, कोन के लाने चाउने?’’ भैयाजी ने पूछी। अब जानबे के लाने उनको पेट पिरान लगो।
‘‘अपने इते के लाने चाउने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘मने?’’
‘‘मने जे के अपने इते ऐसी कोनऊं चक्की नोईं जीको पिसो आटा अपने तला को उद्धार कर सके।’’ मैंने भैया जी से कई।
‘‘तला से आटा को का लेबोदेबो? औ वो बी इसरो वारन की चक्की को आटा को?’’ अब भैयाजी को माथा भिन्ना गओ।
‘‘भौतई लेबोदेबो आए! आपई सोचो के इसरो वारन ने कित्ती जल्दी चंदा औ सूरज निपटा दे रए औ एक इते अपने तला वारे आएं के पांच बरस में तला ने संवार पाए। पूर दओ, सो अलग। देखो सो ऐसो लगत आए के लंक्लाथ के थान के कपड़ा को काट के पजामा बना दओ गओ होय। वा बी एक टांग छोटी औ एक बड़ी कर दई। ऊपे पुल ऐसो बना दओ के ई तरफी से ऊ तरफी ने दिखाए। अब जो कटाई कर दई सो कर दई, मनो, पैजामा की सिलाई सो पूरी कर देते। तनक नाड़ा-माड़ा डार देते। ऊंसई सो छोड़ दओ। तला तरफी जाओ सो तला की दसा देख के रोबो आत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ ! जा सो तुम सई कै रईं! कां तो तला समुन्दर घांई दिखात्तो, अब तलैया घांई भऔ जा रओ। कोन ने करी ऐसी पिलानिंग?’’ भैयाजी को मुंडा सोई भिन्ना गओ।
‘‘तलैया बी नोंई अभईं सो बा दसा आए के ऊंमें भैंसियां बी ने घुंसें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘का कएं, उते अपने बे शिवराज भैया कछू अच्छो-अच्छो सो बोलत रैत आएं औ इते अपने भैया हरें कछू ने कछू तोड़त रैत आएं। एक दार में इते कछू नईं होत।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ तो भैयाजी! अपन ओरें तो देखई रए के जो कोनऊं अपने शहर की सल्ल अकेली नोई, जे सबरी जांगा की सल्ल आए। के पैले सड़क बनाई, फेर ऊको खोद-खाद के पाईप लाईन डारी। फेर सड़क बनाई औ फेर ऊको खोद के नारी बनाऊंन लगे। कभऊं टाटा वारन खों कै दओ के ‘जा टाटा खोद ले सगरी सड़क!’ औ कभऊं रिलायंस वारन खों बोल दओ के ‘‘जा रिलायंस पटा दे सगरी सड़क!’ मनो टाटा औ रिलायंस ने भए सिमरन हो गए। बाकी फिलम में जे डायलाॅग से सिमरन के दिन फिर गए रए, पर अपने इते जे बोले से सड़कन के बुरए दिन आ जात आएं।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ बिन्ना! हमें सोई समझ नईं परत के अपन ओरन को का हुइए!’’ भैयाजी तनक निराश होते भए बोले।
‘‘का हुईए? कछू ने हुइए! कोन जे आज पैली बार हो रओ। आप तनक याद करो। जे जो अपनो लाखा बंजारा तला आए ऊमें एक जमाना में नावें चलत्तीं औ नांव पे बैठ के कवि सम्मेलन करो जात्तो। फेर बा दिन आए के तला सूका दओ गओ औ उते क्रिकेट मैच खेलो गओ औ बेड़नियां नचाई गईं। फेर तला में पानी भर गओ, सो ऊंमे जलकुंभी फैल गईं रईं। फेर जलकुंभी साफ करबे को अभियान चलो। सबई ने तसला ले-ले के खूब फोटू खेंचवाईं औ छपवाईं। फेर राम-राम कर के तला के दिन फिरे। सो, ऊमें क्रूज चलाओ गओ। हमने सोई तला पे चक्कर मारो हतो क्रूज पे चढ़ के। मने, ऊ टेम पे लगत्तो के अब तला के अच्छे वारे दिन आ गए। मनो तब कां पता रओ के तला पे पुल खेंचों जैहे, के तला खों पांच बरस को बनवास खों भेज दओ जैहे।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई।
‘‘अबे का पता के पांच बरस में बनवास खतम हो रओ के पंद्रा बरस में? कोनऊं पूछत नइयां के काए भैया कब तक लौं तला खों ठीक कर दैहो?’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, अबे तो पूरो पुर गओ आए। ऊको गहरो करबे में टेम लगहे। को जाने कब तक लो पूरो हुइए? मोय तो लगत आए के जब ईको पूरो करबे वारे खा-कमा के चांद पे अपनो महल ने खड़े कर लैंहे तब तक लौं काम पूरो ने हुइए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘कै सो तुम ठीक रई बिन्ना! मनो तुम ओरे का करए? तुम ओरे मने जोन उते नांव पे बैठ के कविता-मबिता पढ़त रए, तुम ओरे काए नई पूंछत?’’ भैयाजी ने मोय ठेन करी।
‘‘मैंने नईं पढ़ी उते कविता। मनो पढ़ो तो चात्ती, पर मोरी मताई ने साफ मना कर दई रई के तुमें तैरत तो बनत नइयां, कऊ कविताई करत-करत तला में टपक गईं सो हम का करबी। सो, मोय कभऊं उते नांव पे कविता पढ़बे खों नई मिलो। औ रई बाकी कविता पढ़बे वारन की सो कओ तो नई चाइए पर सांची जेई जाए के बे सबरे भौत बड़ी उम्मर के रए, सो आधे तो निपट गए औ जोन बचे आएं बे बिचारे अपनोई कछू कर लेबें उत्तई भौत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई। औ मोय याद आओ के,‘‘भैयाजी, उते चकराघाट पे तो नांव पे ठाड़ो कर के रावण सोई मारो जात्तो।’’
‘‘हऔ, हम सो हर साल जात्ते देखबे के लाने।’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘सच्ची सबई की यांदें जुड़ी जें तला से। जो ईको मिटाबे वारे कभऊं चैन से ने रै पांहें।’’ मैंने कई।
‘‘शाप दे रईं!’’
‘‘नई, अपनो जी हल्को कर रई।’’
सो आप ओरन में जोन को अपनो जी हल्को करने होय सो ऐसई शाप-माप टाईप को बोल लओ करे, औ कछू तो अपने ओरन से करत बनत नइयां। मनो, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। औ सोचो अपनी-अपनी जांगा की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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