"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
सुव्यवस्था की चौपाल की बजाए हैशटैग बनती राजनीति
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
'राजनीति’ शब्द अब उतना विशिष्ट नहीं रहा जितना प्राचीनकाल में हुआ करता था। तब इस शब्द का अर्थ व्यापक था किन्तु अब संकुचित हो गया है। आज छल, कपट, झूठ और विवाद वर्तमान राजनीति के चैखंबे बन गए हैं। वर्तमान राजनीति को इन्हीं चारों खंबों पर टिकाए रखा जाता है। आज जब सरकारी रिक्त कोष पर आर्थिक राजनीति का ताना-बाना बुना जाता है तब चार्वाक का ‘‘कर्ज लेकर घी पियो’’ का सिद्धांत चरितार्थ होने लगता है। राजनीति का वह स्वरूप और वह अर्थ सभी लगभग भूल चुके हैं जो प्राचीन ग्रंथों में लिखा है। आज राजनीति की हर इकाई गोया वह राजदरबार हो गई है जिसमें चौसर की फड़ बिछी रहती है और जुए के पांसे फिंकते रहते हैं। आज राजनीति सुव्यवस्था की चौपाल की बजाए ‘‘हैशटैग’’ बनती जा रही है।
पाश्चात्य विचारकों के आधार पर प्रायः यह मान लिया जाता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास युद्धों का इतिहास है। जबकि पश्चिमी देशों में स्थिति इससे अलग नहीं थी। ‘‘मैग्नाकार्टा’’ संधियों के बावजूद भी युद्ध होते रहे। यह मानवीय प्रवृत्ति है कि वह अपने लिए नाना प्रकार के नियम बनाता है, नियमानुसार रहने का प्रण करता है और फिर जल्दी ही अपने बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाने लग जाता है। प्राचीन काल में हमारे राजनीतिक विचारकों ने अनेक नियम बनाए और उन्हें दण्ड के आधीन रखा। अर्थात् राजनीति भी दण्ड के आधीन थी। बस, दोष यह था कि राजा का अपना राजधर्म था, वह राजनीति का मुखिया था, नियामक था। प्राचीन भारत में राजनीति को भिन्न नामों से व्याख्यायित किया गया। महाभारत के ‘‘शांतिपर्व’’ में इसे ‘‘राजधर्म’’ की संज्ञा दी गई तो अन्य ग्रंथों में यह दण्डनीति, नीतिशास्त्र या फिर अर्थशास्त्र आदि कहा गया।
प्राचीन भारत में राज-शासन का ही अधिक महत्व था। राजाओं के अपने नियम-कानून और कर्तव्य थे, जो वे पुरोहितों एवं सलाहकारों से विचार-विनिमय कर के बनाते थे जिन्हें राजधर्म कहा जाता था। वर्तमान परिभाषाओं में भी देखें तो राजनीति शास्त्र का मतलब राज्य और शासन के अध्ययन से ही है। इस तरह राजधर्म ही राजशास्त्र अथवा राजनीतिशास्त्र है। राजधर्म के साथ ही ‘‘दण्डनीति’’ का उल्लेख मिलता है। इसका सम्बन्ध भी शासन के कार्यों अथवा शासन तन्त्र से ही रहा। कौटिल्य का कहना था कि मनु, वृहस्पति और शुक्राचार्य द्वारा वर्णित चार विद्याओं में से दण्डनीति एक है। प्राचीन भारतीय विचारकों का मानना था कि प्रभुसत्ता ही राज्य का आधार है। इसलिए भारतीय विचारक मानते थे कि बिना दण्ड के किसी प्रकार के राज्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है। दण्डनीति का समर्थक मनु कहते हैं कि ‘‘जब सभी लोग सो रहे होते हैं तो दण्ड उनकी रक्षा करता है। उसी के भय से लोग न्याय का मार्ग अपनाते हैं।’’
पंचतंत्र में इसे नृपतंत्र कहा गया। नृपतंत्र अर्थात राजा का तंत्र, राजतंत्र। प्राचीन ग्रंथों अर्थात् वेद, पुराण धर्मशास्त्रों, उपनिषदों, महाकाव्यों, जैन ग्रन्थों तथा बौद्ध जातकों में भी राजधर्म के रूप में राजनीति के स्वरूप की व्याख्या मिलती है। इनके बाद अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, शकनीति में भी राजनीति के स्वरूप की विस्तृत चर्चा है। भारतीय चिन्तन में राज को आवश्यक माना जाता है। इसमें राज का कार्यक्षेत्र अत्यंत व्यापक है। इसमें दण्ड की कठोर की व्यवस्था है। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय चिन्तन का दृष्टिकोण व्यावहारिक है और राजा का कार्यक्षेत्र व्यापक है।
.राजनीतिक को राजधर्म, राजशास्त्र, दण्ड नीति, नीतिशास्त्र अर्थशास्त्र आदि नामों से प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उल्लेख किया गया। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों में इसके विविध नाम दिखायी पड़ते हैं जैसे विभिन्न स्मृतियों में इसे राजधर्म, महाभारत में इसे राजशास्त्र, दण्डनीति तथा अर्थशास्त्र कहा गया। पंचतंत्र में इसे नृपतंत्र कहा गया। इसको दण्डनीति पुकारने का आधार भी बहुत स्पष्ट है। बहुत से विद्वान राजसत्ता का अंतिम आधार दण्ड को ही मानते है। वे मानते है कि राजनैतिक सत्ता यदि कानून तोड़ने वालों को दण्ड नहीं देगी तो अराजकता उत्पन्न हो जायेगी। अतः दण्ड द्वारा ही भय उत्पन्न कर व्यवस्था लायी जा सकती है। अतः राजनीतिक चिन्तन को दण्ड नीति का पुकारा गया।
कौटिल्य राजनीति में भी दण्ड के प्रबल पक्षधर थे। कौटिल्य के अनुसार दण्ड से भय उत्पन्न होता है और भय नियमों का पालन कराता है। वे कहते हैं कि कानून तोड़ने वालों को दण्डित करने से जनता स्वतः कानूनों का पालन करने की ओर बढ़ती है। मनु ने दण्ड देने वाली मानवीय सत्ता को राजा नहीं माना वरन दण्ड को शासक माना। ऐसे में शासक को कर्तव्य तथा समाज को बताने वाले शास्त्र को दण्डनीति के नाम से जाना जाता है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र वास्तव में शासननीति का ही विवरण था। नीतिशास्त्र शब्द में नीति का अर्थ सही मार्ग दिखाने से लिया जाता है। उचित अनुचित में अंतर बताने वाला शास्त्र नीतिशास्त्र के नाम से जाना जाता है। भर्तृहरि का प्रसिद्ध ‘‘नीति शतक’’ उस विशाल अर्थ में नीति की चर्चा करता है। कामदंक एवं शुक्र के शासन संबंधी ग्रन्थ नीतिशास्त्र के नाम से जाना जाता है। वे इसे राज्य शास्त्र या दण्ड नीति के नाम से नहीं पुकारते हैं। कौटिल्य ने अपने शासन संबंधी ग्रन्थ को ‘अर्थशास्त्र’ कहा। कौटिल्य की मान्यता थी कि अर्थश् शब्द से व्यक्ति का व्यवसाय स्पष्ट होता है। साथ ही वह भूमि भी इंगित होती है जिस पर रहकर व्यवसाय किया जाता है। अतः उस भूमि को प्राप्त को भी स्थापित करना है। कामन्दक के समय में जो नीति शब्द राज्य की नीति के संबंध में प्रयुक्त किया जाता था वहीं जब सामान्य आचरण के लिये प्रयुक्त किया जाने लगा है। राजनीति तो इसका एक हिस्सा है। ऐसे में राज्य से संबंध रखने वाले नियमों तथा तथ्यों को आचरण के अन्य पहलूओं से अलग दिखाने के लिये नीति शब्द के साथ ‘‘राज’’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। प्राचीन भारत में राजशास्त्र का व्यापक प्रभाव रहा है।
आधुनिक काल में राजनीति का पर्याय बदलता चला गया। लोकतंत्र यानी ‘‘डेमोक्रेसी’’ ने विस्तार किया। इस लोकतंत्र ने समय-समय पर राजनीति में बड़े उतार-चढ़ाव आते देखे हैं। एक व्यक्ति, किसी दल के कुछ सदस्य या फिर कभी-कभी पूरा का पूरा दल ही दूसरे दल के पक्ष में जाते देखा है। इसे हमने हमेशा अपने लोकतंत्र की विशेषता माना है। क्योंकि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है कि मतदाता यदि एक राजनीतिक दल की नीतियों से रुष्ट हो कर दूसरे राजनीतिक दल के उम्मीदवार को अपने अमूल्य मतदान से विजय दिलाता है, इस आशा के साथ कि वह उसकी आशाओं पर खरा उतरेगा और पराजित दल की खामियों को दूर करेगा। किन्तु अचानक मतदाता को यह पता चलता है कि उसके द्वारा जिताया गया उम्मीदवार न केवल अकेले अपितु अपने दल-बल सहित उसी राजनीतिक दल की शरण में चला गया जिसे मतदाता ने पराजय का मुंह दिखाया था। तब मतदाता स्वयं को ठगा हुआ अनुभव करता है और यह सोच कर स्वयं को दिलासा देने का प्रयास करता है कि यही तो लोकतंत्र है।
यह मानना ही होगा कि वर्तमान दौर राजनीतिक अवमूल्यन का दौर है। आज राजनीति व्यापक से संकुचित पर आ पहुंची है। भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, झूठे वादे, आदि ‘‘ट्रेंड’’ बन चुका है। आज राजनीति सुव्यवस्था की चौपाल की बजाए ‘‘हैशटैग’’ बनती जा रही है। बेहतर है कि हम राजनीति के प्राचीन मानकों के दोषपूर्ण पक्ष को छोड़ कर अच्छे पक्ष को दोहराएं तभी राजनीति अपने मौलिक रूप को पा सकेगी।
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