चर्चा प्लस
अलौकिक कृष्ण का लौकिक जन्म और भक्त कवि सूरदास
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
हिन्दी के अधिकांश भक्त कवियों ने ईश्वर के प्रति अपनी आस्था और विश्वास व्यक्त करते हुए स्वयं को दास अथवा सेवक घोषित किया है। किन्तु सूरदास ने श्रीकृष्ण को सखाभाव से स्वीकार किया। सूरदास के लिए श्रीकृष्ण का अस्तित्व ईश्वरीय होते हुए भी मित्रवत है। इसीलिए सूरदास के काव्य में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम के साथ उलाहना और रोष भी मिलता है। सूरदास जब अपने मित्र श्रीकृष्ण के जन्म की कल्पना करते हैं तो विवरण अत्यंत उल्लासमय होता है। अब प्रश्न उठता है कि जब बेहद विपरीत परिस्थितियों में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो कवि सूरदास ने किसकी प्रसन्नता का वर्णन किया होगा? इस प्रश्न का उत्तर उनके उन पदों में मिलता है जिनमें श्रीकृष्ण के जन्म की प्रसन्नता के अद्भुत वर्णन है।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोर्जुन।।
(श्रीमद् भगवद्गीता 2/9)
भावार्थ है- हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर त्यागने के पश्चात् जन्म को प्राप्त नहीं होता,अपितु मुझे ही प्राप्त होता है।
भक्त कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण के जन्म पर व्याप्त उल्लास, उमंग और प्रसन्नता का जो वर्णन किया है वह स्वाभाविक एवं मानवीय होते हुए भी अलौकिक और अद्भुत प्रतीत होता है। श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग के भाद्रपद मास में अष्टमी तिथि के दिन रोहिणी नक्षत्र में मध्य रात्रि के समय हुआ था। द्वापर युग के अंत में मथुरा में अग्रसेन नामक राजा का शासन था। उनका पुत्र था कंस, जिसने बलपूर्वक अपने पिता से सिंहासन छीन लिया और स्वयं मथुरा का राजा बन गया। कंस की बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वसुदेव के साथ हुआ। एक दिन जब कंस देवकी को उसकी ससुराल छोड़ने जा रहा था, तभी आकाशवाणी हुई, ‘‘हे कंस! जिस देवकी को तू इतने प्रेम से उसकी ससुराल छोड़ने जा रहा है, उसी का आठवां बालक तेरा संहारक होगा।’’ आकाशवाणी सुन कंस घबरा गया। उसने देवकी की ससुराल पहुंचकर जीजा वसुदेव की हत्या करने के लिए तलवार खींच ली। तब देवकी ने अपने भाई कंस से निवेदन किया कि ‘‘हे भाई! मेरे गर्भ से जो भी संतान होगी, उसे मैं तुम्हें सौंप दिया करूंगी, उसके साथ तुम जैसा चाहे व्यवहार करना पर मेरे पति को मत मारो।’’
कंस ने देवकी की विनती स्वीकार कर ली। वसुदेव एवं देवकी को मथुरा के कारागार में डाल दिया। कारागार में देवकी ने अपने गर्भ से पहली संतान को जन्म दिया, जिसे कंस के सामने लाया गया। देवकी के गिड़गिड़ाने पर कंस ने आकाशवाणी के अनुसार देवकी की आठवीं संतान की बात पर विचार करके उसे छोड़ दिया पर तभी देवर्षि नारद वहां आ पहुंचे और उन्होंने कंस को समझाया कि क्या पता, यही देवकी का आठवां गर्भ हो, इसलिए शत्रु के बीज को ही नष्ट कर देना चाहिए। नारद जी की बात सुनकर कंस ने संतान को मार डाला। इस प्रकार कंस ने देवकी के गर्भ से जन्मे एक-एक कर 7 संतानों की हत्या कर दी। जब कंस को देवकी के 8वें गर्भ की सूचना मिली तो उसने बहन और जीजा पर पहरा और कड़ा कर दिया। भाद्रपक्ष की कृष्णाष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। उस समय घोर अंधकार छाया हुआ था तथा मूसलाधार वर्षा हो रही थी। तभी वसुदेव जी की कोठरी में अलौकिक प्रकाश हुआ। उन्होंने देखा कि शंख, चक्र, गदा और पद्मधारी चतुर्भुज भगवान उनके सामने खड़े हैं। भगवान के इस दिव्य रूप के दर्शन पाकर वसुदेव और देवकी उनके चरणों में गिर पड़े। तब उन्होंने वसुदेव से कहा, ‘‘अब मैं बालक का रूप धारण करता हूं। तुम मुझे तत्काल गोकुल में नंद के घर पहुंचा दो, जहां अभी एक कन्या ने जन्म लिया है। मेरे स्थान पर उस कन्या को कंस को सौंप दो। मेरी ही माया से कंस की जेल के सारे पहरेदार सो रहे हैं और कारागार के सारे ताले भी अपने आप खुल गए हैं। यमुना भी तुम्हें जाने का मार्ग अपने आप देगी।’’
सूरदास ने इस प्रसंग को कुछ इस प्रकार लिखा है-
देवकी मन मन चकित भई।
देखहु आइ पुत्र-मुख काहे न, ऐसी कहुँ देखी न दई।।
सिर पर मुकुट, पीत उपरैना, भृगु-पद-उर, भुज चारि धरे।
पूरब कथा सुनाइ कही हरि, तुम माँग्यौ इहिं भेष करे।।
छोरे निगड़, सोआए पहरू, द्वारे की कपाट उर्धयौ।
तुरत मोहि गोकुल पहुँचावहु, यह कहिकै किसु वेष र्धयौ।।
तब बसुदेव उठे यह सुनतहिं, नँद-भवन गए।
बालक धरि, लै सुरदेवी कौं, आइ सूर मधुपुरी ठए।।
वसुदेव ने भगवान की आज्ञा पाकर शिशु को छाज में रखकर अपने सिर पर उठा लिया। यमुना में प्रवेश करने पर यमुना का जल भगवान श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श करने के लिए हिलोरें लेने लगा। गोकुल पहुंचकर वसुदेव सीधे नंद बाबा के घर पहुंचे। घर के सभी लोग उस समय गहरी नींद में सोये हुए थे पर सभी दरवाजे खुले पड़े थे। वसुदेव ने नंद की पत्नी यशोदा की बगल में सोई कन्या को उठा लिया और उसकी जगह श्रीकृष्ण को लिटा दिया। उसके बाद वसुदेव कन्या रूपी योगमाया को ले कर कालकोठरी में मथुरा लौट गए। कालकोठरी में पहुंचते ही कारागार के द्वार अपने आप बंद हो गए और पहरेदारों की नींद खुल गई। कंस को कन्या के जन्म का समाचार मिला तो वह तुरन्त कारागार पहुंचा और कन्या को अपने हाथों में उठा कर शिला पर पटककर मारने के लिए ऊपर उठाया लेकिन कन्या अचानक कंस के हाथ से छूटकर आकाश में पहुंच गई। आकाश में पहुंचकर उसने कहा, ‘‘मुझे मारने से तुझे कुछ लाभ नहीं होगा। तेरा संहारक गोकुल में सुरक्षित है।’’ यह सुनकर कृष्ण के मामा कंस के होश उड़ गए। वह कृष्ण को ढ़ूंढ़कर मारने के लिए तरह-तरह के उपाय करने लगा। कंस ने उन्हें मारने के लिए अनेक प्रयास किए। उसने श्रीकृष्ण का वध करने के लिए अनेक भयानक राक्षस भेजे परन्तु श्रीकृष्ण ने उन सभी का संहार कर दिया। कंस का वध करने के बाद श्रीकृष्ण ने उसके पिता उग्रसेन को राजगद्दी पर बिठाया और अपने माता-पिता वसुदेव तथा देवकी को कारागार से मुक्त कराया।
अब प्रश्न उठता है कि जब इतनी विपरीत परिस्थितियों में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तो कवि सूरदास ने किसकी प्रसन्नता का वर्णन किया होगा? इस प्रश्न का उत्तर उनके इस पदों में मिलता है जो श्रीकृष्ण के जन्म की प्रसन्नता का अद्भुत वर्णन करते हैं। मथुरा में श्रीकृष्ण के जन्म लेने पर कंस के भय से नर-नारी प्रसन्न नहीं हो सकते थे किन्तु जब देवताओं, विद्याधर और किन्नरों ने खुशी मनानी शुरू कर दी तो मथुरा के नर-नारी भी प्रसन्नता से झूम उठे।
आनंदै आनंद बढ्यौ अति ।
देवनि दिवि दुंदुभी बजाई,सुनि मथुरा प्रगटे जादवपति ।
विद्याधर-किन्नर कलोल मन उपजावत मिलि कंठ अमित गति ।
गावत गुन गंधर्व पुलकि तन, नाचतिं सब सुर-नारि रसिक अति ।
बरषत सुमन सुदेस सूर सुर, जय-जयकार करत, मानत रति ।
सिव-बिरंचि-इन्द्रादिअमर मुनि, फूले सुखन समात मुदित मति।।
सुबह हुई तो गोकुल में हर्ष की लहर दौड़ गई। देवता तो पहले से जानते थे कि असुरों का संहार करने वाले कृष्ण ने जन्म ले लिया है किन्तु सुबह होते ही गोकुल के वासियों को भी पता चल गया कि यशोदा और नंद के घर बालक जन्मा है। नंद बाबा तो अपने पुत्र का मुख देखने के लिए दौड़ कर बार-बार पुत्र के निकट जा पहुंचते हैं और माता यशोदा पुत्र को अपनी गोद में ले कर दूध पिला रही हैं।
गोकुल प्रगट भए हरि आइ
अमर-उधारन, असुर-सँहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ।
माथै धरि बसुदेव जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ।
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ।
गदगद कंठ, बोल नहिं आवै, हरषवंत ह्वै नंद बुलाइ।
आवहु कंत, देव परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ।
दौरि नंद गए, सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मोपै बरनि न जाइ।
सूरदास पहिलैं ही माँग्यौ, दूध पियावत जसुमति माइ।।
पूरे गोकुल में इस बात का ढिंढोरा पिट गया कि यशोदा को पुत्र की प्राप्ति हुई है। गोप-गोपियां प्रसन्नता से नाचने लगे।
हौं इक नई बात सुनि आई।
महरि जसौदा ढोटा जायौ, घर-घर होति बधाई।
द्वारैं भीर गोप-गोपिन की, महिमा बरिन न जाई।
अति आनन्द होत गोकुल मैं, रतन भूमि अब छाई।
नाचत वृद्ध, तरुन अरु बालक, गोरस-कीच मचाई।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, सुन्दर स्याम कन्हाई।।
नंद बाबा के द्वार पर भीड़ उमड़ पड़ी है। सभी नवजात श्रीकृष्ण के दर्शन करना चाहते हैं। सभी अपने-अपने ढंग से प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं-
आजु नन्द के द्वारें भीर।
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाड़े मन्दिर कैं तीर।
कोउ केसरि कौ तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचकी सरीर।
एकनि कौं गो-दान समर्पत, एकनि कौं पहिरावत चीर।
एकनि कौं भूषन पाटंबरय एकनि कौं जु देत नग हीर।
एकनि कौं पुहपनि की माला, एकनि कौं चन्दन घसि नीर।
एकनि मथैं दूध-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर।
सूरदास धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर।।
कवि सूरदास के अनुसार श्रीकृष्ण का जन्म साधारण नहीं बल्कि असाधारण घटना है। पूरा गोकुल उमंग से भर उठा है-
सोभा-सिन्धु न अन्त रही री।
नंद-भवन भरि उमँगि चलि, ब्रज की बीथिन फिरति बही री।
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचति फिरति दही री।
कहँ लगि कहौं बनाइ बहुत विधि, कहत न मुख सहसहुँ निबही री।
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं उपजी ऐसी सबनि कही री।
सूरश्याम प्रभु इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री।।
श्रीकृष्ण जन्म का ऐसा सुंदर और सजीव वर्णन और किसी भक्त कवि के काव्य में नहीं है। वस्तुतः सूरदास ही ऐसे कवि थे जो अलौकिक कृष्ण के लौकिक जन्म का मानवीय संवेगोयुक्त इतना सुंदर वर्णन कर सकते थे क्योंकि सखाभाव असंभव को भी संभव बना देता है।
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