Tuesday, September 20, 2022

पुस्तक समीक्षा | ‘गोपी विरह’: आध्यात्म, दर्शन एवं काव्य का सुंदर समन्वय | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 20.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि रामकुमार तिवारी के काव्य  संग्रह  "गोपी विरह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
---------------------------------------
पुस्तक समीक्षा
‘गोपी विरह’: आध्यात्म, दर्शन एवं काव्य का सुंदर समन्वय
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
-------------------------------
काव्य संग्रह -  गोपी विरह
कवि       - रामकुमार तिवारी
प्रकाशक    - पाथेय प्रकाशन, 112, सराफा, जबलपुर (म.प्र.)
मूल्य       - 100/-
--------------------------------


आज की समीक्ष्य कृति है ‘‘गोपी विरह’’। इसके रचयिता हैं कवि रामकुमार तिवारी। प्रत्येक कृति कवि से समर्पण मांगती है। उस पर यदि विषय भक्ति से जुड़ा हुआ हो तो यह समर्पणभाव दोहरा हो जाता है। भक्तिकाव्य वही व्यक्ति रच सकता है जो ईश्वर के किसी भी रूप के प्रति अपनी आस्था और विश्वास रखता हो। इस दिशा में कृष्ण की भूमिका कवियों द्वारा प्रायः सखावत ग्रहण की गई है। बात चल रही है कृष्ण संबंधी काव्य की तो तनिक अतीत पर भी दृष्टिपात कर लेना समीचीन रहेगा।   
श्रीकृष्ण का उल्लेख प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के प्रथम, अष्टम और दशम मंडल में मिलता है। इसके बाद छांदोग्योपनिषद में पहली बार कृष्ण का उल्लेख मिलता है। कृष्ण भक्ति पर रचित सबसे महत्वपूर्ण दक्षिण भारत में रचित पुराण ‘‘श्रीमद्भागवत पुराण’’ है। ‘‘श्रीमद्भागवत पुराण’’ में श्रीकृष्ण की रासलीला का मोहक चित्रण होने के पर भी राधा का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। हिंदी का कृष्ण भक्ति साहित्य महाभारत से नहीं बल्कि पुराणों से प्रभावित है। महाभारत के कृष्ण कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, द्वारिकाधीश, लोक रक्षककारी श्री कृष्ण है। पुराणों के कृष्ण माखन चोर, गोपाल, लीलाधारी, लोकरंजनकारी, नंदलाल है। कृष्ण भक्ति साहित्य ने भी लोकरंजनकारी रूप को आधार बनाया है । कृष्ण भक्ति पर काव्य सृजन करने वाले बहुत से कवि हुए हैं। जिनमें कुंभनदास, सूरदास, परमानंददास, चतुर्भुज दास, गोविंद स्वामी, छीत स्वामी, नंद दास, कृष्णदास, रसखान, मीरा बाई, रहीम, कवि गंग, बीरबल, होलराय, नरहरि बंदीजन, नरोत्तम दास स्वामी आदि कवियों का नाम प्रमुख रूप से आता है। कृष्ण भक्ति पर काव्य रचने वाले कवियों में आठ कवियों का प्रमुख स्थान रहा है। इन्हें ‘‘अष्टछाप’’ कवि कहा जाता है। ये कवि हैं- कुम्भनदास, परमानन्द दास, कृष्ण दास, सूरदास, गोविंद स्वामी, छीत स्वामी, चतुर्भुज दास एवं नंददास। इनमें सूरदास को कृष्णभक्ति का सर्वश्रेष्ठ कवि माना गया है। सूरदास द्वारा रचित ‘‘सूरसागर’’ का सबसे पहला व प्रामाणिक संपादन नंददुलारे वाजपेयी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से किया। ‘‘सूरसागर’’ को कृष्णभक्ति साहित्य का हृदय कहा जाता है और ‘‘सूरसागर’’ का हृदय ‘‘भ्रमरगीत’’ को कहा जाता है।
समय के साथ हिन्दी काव्य में नवीन विषयों का प्रवेश हुआ और कालांतर में नई कविता के साथ काव्य में आमजन के दैनिक जीवन की पीड़ा और समस्याओं ने अपनी जगह बना ली। भक्तिकाव्य लगभग हाशिए पर पहुंच गया। किन्तु कुछ रचनाकार जिनका सरोकार धर्म, आघ्यात्म एवं दर्शन से था, वे भक्तिकाव्य का सृजन करते रहे। भक्ति की दुनिया में कृष्ण का चरित्र एक ऐसा चरित्र है जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। सागर जिले के बंडा तहसील मुख्यालय में निवास करने वाले उर्दू के ख्यातिलब्ध शायर मायूस सागरी जब कृष्ण के प्रति आकृष्ट हुए तो उन्होंने ‘‘ब्रजरज’’ का सृजन कर डाला। इस कृति ने उन्हें विशेष पहचान दी।
कवि रामकुमार तिवारी की कृति ‘‘गोपी विरह’’ कृष्ण भक्ति में लिखा गया एक अनुपम काव्य है, जिसमें संवेदनाएं, संवेग, आध्यात्म एवं दर्शन सभी समंवित रूप से उपस्थित है। ‘‘गोपी विरह’’ में कुल 164 पद हैं। इस कृति पर तीन विद्वानों ने भूमिकास्वरूप अपने विचार लिखे हैं जिन्हें पुस्तक के आरम्भिक पन्नों पर रखा गया है। पहली सम्मति डाॅ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी जबलपुर द्वारा लिखी गई है। डाॅ. चतुर्वेदी लिखते हैं कि-‘‘ तिवारी जी की यह कृति मध्यकालीन और रीतिकालीन संत कवियों की ध्वनियों को समेटे हुए हैं जिसके कारण वह संत परंपरा के इस वाचिक प्रयोग में न केवल जुड़ सके अपितु साहित्य के मूल्यों की दृष्टि से इस कृति के माध्यम से उन्होंने अपने सहृदय कवित्व को साहित्य में स्थापित किया है।’’
दूसरी भूमिका संस्कृतिविद डाॅ. श्यामसुंदर दुबे की है। उनके अनुसार-‘‘गोपी विरह शीर्षक कृति श्री राम कुमार तिवारी ने अपने संपूर्ण मनोयोग एवं अनुभूति की आवेगमयी काव्यस्फूर्ति के ग्रहण क्षणों में रची है। श्री तिवारी के कवि ने एक संपूर्ण काव्य परंपरा को अपने मनोलोक में एक प्रवाह की तरह अनुभव किया है। इस परंपरा में वे निरंतर अवगाहन करते रहे हैं। एक तरह से वे अपने काव्य पुरुष को हिंदी काव्य की जातीय स्मृतियों से अनुप्राणित करते हुए अपने लिए एक स्वतंत्र व्यक्तित्व अपनी कहन के माध्यम से निर्धारित करने वाले कवि हैं।’’
तीसरी सम्मति पाथेय समूह के संस्थापक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ राजमुमार ‘‘सुमित्र’’ की है। वे लिखते हैं कि-‘‘भक्तकवि श्री राम कुमार तिवारी का काव्य ग्रंथ ’गोपी विरह’ भावों की मार्मिकता और विविधता से परिपूरित है। श्री तिवारी को मैं मध्यकालीन कवि परंपरा का कुशल संवाहक मानता हूं। श्री तिवारी ने 164 पदों में अपने हृदय की भक्ति और समर्पण का नैवेद्य अर्पित कर दिया है।’’
मध्यप्रदेश के दमोह निवासी कवि रामकुमार तिवारी ने कृष्णकथा के उस पक्ष को अपने काव्य में पिरोया है जब कृष्ण ब्रज को छोड़ कर चले जाते हैं तथा ब्रज का कण-कण उनके विरह से व्याकुल हो उठता है। देखा जाए तो कृष्णकथा का यह सबसे मार्मिक पक्ष है। विरह की व्याकुलता से बड़ी कोई व्याकुलता नहीं होती और विछोह की पीड़ा से बड़ी कोई पीड़ा नहीं होती है। संग्रह का पहला ही पद देखिए -
अब तौ सब सुख हरि संग जात।
जिमि उड़ि पिंजरे का पंछी पुनि हाथहिं नहीं आत।।
को अब जाए उलहिनौ दै है, पकरि यशोदहिं हाथ।
केवल एकहि काज बचो है, पीटो सब निज माथ।
सब भूषण जमुना बिच डारो, केहि लगि सजहे गात।
अंगराग की गंध ना उड़ि है, पाय परस अब वात।
नेह वारि बिनु, नेह तरुहिं के, झड़ि गिरिहैं सब पात।
‘रामकुमार’ अब नाहिं दिखत हैं, केहि विधि निज कुशलात।
   कृष्ण के जाने के बाद अब न तो यशोदा को उलाहना दिया जा सकता है और न ही अंगराग लगाने का आनन्द बचा है। कृष्ण के जाने से सारे सुख इस तरह चले गए हैं जैसे पिंजरे का पंछी यदि एक बार पिंजरे से बाहर उड़ जाए तो फिर कभी दोबारा नहीं मिलता है। इस प्रकार का वर्णन स्वतःमेव भक्तिकालीन कृष्णकाव्य की याद दिलाने लगता है। सुंदर बिम्ब और मानवीय मन की विवशता का हृदयस्पर्शी वर्णन।
कृष्ण चले गए हैं। सभी जानते हैं कि वे अब लौटकर नहीं आएंगे लेकिन आशा है कि टूटती ही नहीं है और दृष्टि मार्ग पर टिकी हुई है। इस मनोदशा का सुंदर वर्णन इस कवि रामकुमार तिवारी के पद में अनुभव किया जा सकता है-
नैन ना चैन परत पल एक।
अपलक हरि आवन मग पेखत, तजत नाहिं निज टेक।।
अपने मन की सबहिं करत हैं, बात ना मानत नेक।
निशदिन ढरत रहत झरना से, ज्यों मेघ सावनहिं मास।
आतुर हुव्ये उड़िबे खैं चाहत, जियत लै दर्शन आस।
चातक सब तिनहुं तौ केवल, धरौं एकहिं ध्यान।
हरि स्वाती जल जबहिं मिलेगौ, करि हैं बिहिं पान।
ओस बिन्दु तैं नाहिं मिटी है, कबहुं काहु की पियास।
‘रामकुमार’ चकोर सचु पावै, केबल इन्दु उछास।
       इस पद में कवि ने कृष्ण की छवि-दर्शन की तुलना स्वाति नक्षत्र के उस जल से की है जिसे पीकर चातक पक्षी अपनी प्यास बुझाता है। वे कृष्ण की तुलना चन्द्रमा के उस सौंदर्य से करते हैं जिसे देख कर चकोर के मन की प्यास बुझती है। साथ ही बड़ा कोमल-सा उलाहना है अपनी इन्द्रियों के प्रति कि वे अब बात ही नहीं मानती हैं और इसीलिए लाख रोकने पर भी हर समय आंखों से झार-झार आंसू बहते रहते हैं।
अंत में 162 वां पद, जिसमें विरह के चर्मोत्कर्ष की पीड़ा से उपजी व्याकुलता भरा बहुत कोमल शब्दों में निवेदन है-
अब तौ वेगि दरस हरि देहु।
आगे अब हमरे धीरज की, नाहिं परीक्षा लेहु।
तुम्ह बिनु कतहुं, सुखहिं नहिं पावत, वन, बीथिन अरु गेहु।
मीन नीर सम, हमहुं तलफत, हे हरि तुमहिं सनेहु।
नेह तरनि, मझंधारहिं अटकी, आ करिकैं तेहि खेहु।
‘रामकुमार’ तोहि नाहिं बरजि हैं, जो चाहौ सो लेहु।
       कवि तिवारी ने ब्रज, बुंदेली और खड़ीबोली के शब्दों का संतुलित और प्रवाहपूर्ण प्रयोग करते हुए प्रभावी गेय पद रचे हैं। मनोवेगों की यह कोमलता कविता से कहीं फिसलती जा रही है। जीवन के खुरदरे यथार्थ ने कविता के कथ्य को भी कठोर शब्दों और सपाटपन में ढाल दिया है। ऐसे समय में ‘‘गोपी विरह’’ जैसी काव्यकृति बहुत महत्वपूर्ण है। यह आरोप गढ़ना उचित नहीं है कि भक्तिकाव्य में धार्मिक आडम्बर का भाव होता है। वस्तुतः भक्तिकाव्य अपने इष्ट, अपने कर्तव्य, अपने प्रिय के प्रति समर्पण के भाव को जगाता है। यदि भक्तिकाव्य में दिखावा नहीं है और एक सच्चा आग्रह है तो उसमें काव्य का समुचित सौंदर्य देखा जा सकता है। इस आधार पर कवि रामकुमार तिवारी का काव्य संग्रह (जो कि वस्तुतः खण्ड काव्य के समान है) ‘‘गोपी विरह’’ विशिष्ट कृति है और अंधाधुनिकता का चश्मा उतार कर इसका मूल्यांकन करते हुए इस कृति को साहित्य की एक अनुपम कृति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
           ----------------------------              
#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण 

No comments:

Post a Comment