संस्मरण | नवभारत | 11.09. 2022
जानवरों के बाड़े-सी आमसभा
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
चुनाव और आमसभा का चोली- दामन का साथ होता है. चुनाव का समय निकट आते ही प्रत्येक राजनीतिक दल भीड़ जोड़ने की जुगत में लग जाता है. यह कोई आज की बात ही नहीं है, मेरे विचार से देश की स्वतंत्रता के बाद से प्रत्येक आमसभा चुनावों के समय यही परिदृश्य रहता रहा होगा. मैंने अपने अब तक के जीवन में कुल तीन आमसभाएं ही देखी, सुनी हैं, वह भी छोटे शहर या ग्रामीण अंचल में. सबसे पहली आमसभा में मुझे जाने का अवसर मिला था अपनी मां डॉ. विद्यावती ‘‘मालविका जी के साथ. वे कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं थीं. मेरी मां तो ईमानदार एवं समर्पित शिक्षिका थीं. लेकिन उन दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का भारी क्रेज था. उनकी साड़ियों, उनकी हेयर स्टाईल सभी कुछ महिलाओं के बीच चर्चा का विषय बना रहता था. मेरी मां और उनके साथ की शिक्षिकाएं अकसर इस विषय पर बातचीत किया करती थीं. निश्चित रूप से उस दिनों छोटे शहरों की महिलाएं भी इंदिरा जी जैसी हेयरस्टाईल रखने के स्वप्न देखा करती रही होंगी, जो वास्तविक में उनके लिए संभव नहीं था. मैं उस समय छोटी थी. स्कूल में पढ़ती थी. मुझे याद है कि जब यह पता चला कि इंदिरा गंाधी पन्ना में एक आमसभा में आने वाली हैं तो हमारे घर में ही मां की पांच-छः महिला सहकर्मियों की एक छोटी-मोटी टी-पार्टी हो गई. पार्टी में इस पर विचार-विमर्श किया गया कि उस आमसभा में कैसे पहुंचा जाए. उन दिनों पन्ना में मात्र पैडल रिक्शा चला करते थे और एक रिक्शे पर अगर तन्दुरुस्त सवारी हुई तो दो, यदि दुबली-पतली सवारी हुई तो तीन ही बैठ पाती थीं. सो, तय हुआ कि चार रिक्शे कर लिए जाएंगे क्यों कि मां ने स्पष्ट बता दिया कि मैं अपने साथ अपनी दोनों बेटियों को भी ले जाऊंगी. यानी एक रिक्शे पर दो महिलाओं के साथ मुझे और वर्षा दीदी को भी सवारी करनी थी अतः तीसरी महिला के लिए उसमें गुंजाइश नहीं थी. उसमें भी हम दोनों को सीट के सामने लगी लकड़ी की पट्टी पर बैठना था. मां चाहती थीं कि हम दोनों बहनें उस ‘‘लौह महिला’’ को देखें. यह बात और है कि ‘‘आयरन लेडी’’ की उपाधि बाद में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थ्रेचर को दी गई लेकिन वास्तविक ‘लौह महिला’ निःसंदेह इंदिरा गांधी ही थीं. क्योंकि भारतीय राजनीति पर दीर्घकाल तक अपना प्रभाव जमाए रखने का काम एक लौह महिला ही कर सकती थी. बहरहाल, नीयत तिथि पर पर हम लोग सभा-स्थल पर पहुंचे. अपार जनसमूह था. ऐसा लग रहा था कि मानो पूरा पन्ना शहर ही नहीं वरन पूरा पन्ना जिला सभा स्थल में उमड़ पड़ा हो. हमें बहुत पीछे जगह मिली थी. उतनी दूर से इंदिरा जी की बहुत स्पष्ट झलक नहीं मिल पा रही थी. फिर भी सभी महिलाएं प्रसन्न थीं कि उन्होंने एक झलक तो पा ली. हम लोग पूरे समय सभा में नहीं रुके. भाषण सुनना हमारा उद्देश्य नहीं था, मात्र देखना उद्देश्य था और वह उद्देश्य पूरा हो गया था. शीघ्र ही हम अपने घर लौट आए. तब मुझे पता नहीं था कि यह भी मेरी मां और उनकी सखियों की योजना का एक हिस्सा था. हमारे घर में चाय-भजियों का दौर चलता रहा. लगभग एक-डेढ़ घंटे बाद हम दोनों बहनों को घर के बाहर खड़े होने को कहा. बल्कि हमारे लिए मां ने दो कुर्सियां भी रख दी थीं और उन पर खड़ी करते हुए कहा था कि,‘‘देखना गिरना नहीं, सम्हल कर खड़ी रहना. अभी इंदिरा जी सर्किटहाउस जाएंगी और फिर कुछ ही देर में वहां से लौटेंगी भी, तब हम उन्हें फिर से देख सकेंगे.’’ तो सभास्थल से जल्दी लौट आने के पीछे यह थी योजना.
चूंकि जहां हमारा घर था हिरणबाग में, वह ठीक उस जगह पर था जहां से सर्किटहाउस के लिए रास्ता पहाड़ी की ओर चढ़ता था. उन दिनों उस रास्ते के किनारे कोई घर नहीं बने थे अतः दूर तक हम लोग उस रास्ते पर आने-जाने वालों को देख पाते थे. सचमुच कुछ देर बाद इंदिरा जी की कार उस रास्ते से गुजरी. उनके सर्किट हाउस जाते समय हमें निराशा हाथ लगी क्योंकि वे विपरीत दिशा में बैठी थीं किन्तु उनकी वापसी पर वे हमारी दिशा में ही थीं. तब हमने उन्हें देखा भी और हाथ हिला-हिला कर उनका अभिवादन भी किया.
दूसरी आम सभा बहुत बाद देखने को मिली. उन दिनों मैं दमोह में बीए फाईनल में पढ़ रही थी. उस दौरान हम स्टूडेंट्स को पता चला कि देश के दिग्गज नेता चंद्रशेखर वहां आमसभा करने आने वाले हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के बाद उनके भाषणों की भी बहुत प्रशंसा की जाती थी. उस समय चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री नहीं बने थे और कई लोग उनके भाषणों के मुरीद थे. मेरे सहपाठियों में दो-तीन को छोड़ कर राजनीतिक विषयों अथवा समसामयिक विषयों में किसी की तनिक भी रुचि नहीं थी. जब मैंने उनसे आमसभा में चलने को कहा तो सबने मना कर दिया. बस, सखी धर्म निभाती हुई मेरी मात्र एक सहेली मेरे साथ चलने को सहमत हुई. सो, मैंने और मेरी सहेली रीता धगट ने आमसभा में जाने का निर्णय किया. सभा दोपहर को थी और हमारा काॅलेज सुबह के समय का रहता था. काॅलेज के बाद हम दोनों वहां पहुंचीं. चंद्रशेखर जी का कुछ देर भाषण सुना. किन्तु पता नहीं क्यों मुझे उनका भाषण उतना प्रभावी नहीं लगा जितना कि मैंने सुन रखा था और सोच रखा था. संभवतः मैंने कुछ अधिक उम्मींद लगा ली थी. रीता को यूं भी भाषणबाजी में रुचि नहीं थी, वह तो मेरा साथ देने वहां पहुंच गई थी. उस दिन की आमसभा की उपलब्धि यह रही कि हमने सभास्थल के बाहरी हिस्से में खड़े चाट के ठेले पर जी भर कर चाट खाई. रीता ने तीखे गोलगप्पे भी खाए थे पर मैंने नहीं. क्योंकि मुझे गोलगप्पों के उस पानी से समस्या हो जाती है जिसमें बार-बार नंगे हाथों को डुबाया जाता है. मुझे तो लगता था कि मैं बाजार के गोलगप्पे कभी खा ही नहीं सकती हूं. फिर एक बार एक बड़े माॅल में गोलगप्पे खाने पड़ गए. डरते-डरते मैंने गोलगप्पे खाए कि अब तो पक्का बीमार पडूंगी. लेकिन आश्चर्य की बात थी कि मुझे कुछ नहीं हुआ. तब मेरा ध्यान गया कि वहां के कर्मचारी दस्ताने पहने हुए थे, उस पर भी गोलगप्पे के पानी में बार-बार हाथ डुबाने के बजाए एक डिस्पोजल गिलास में पानी भर कर गोलगप्पों के साथ दे रहे थे. उस दिन मुझे समझ में आ गया कि गड़बड़ी कहां थी. नंगे हाथों को गोलगप्पे के पानी में बार-बार डुबाने से पानी में जो प्रदूषण पनपता होगा उससे मुझे फूडप्वाइजन होने लगता था. हां, तो हम लोगों ने उस दिन जम कर चाट खाई और इस तरह आमसभा के आनन्द की भरपाई की.
तीसरी आमसभा एक बार फिर पन्ना में देखने को मिली जिसने आमसभाओं में नेताओं और आम जनता के बीच की बढ़ती दूरियों को दिखा दिया. उस समय मैं पत्रकारिता की दुनिया में प्रवेश कर चुकी थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आने की सूचना मिली. वे पन्ना के एक ग्रामीण क्षेत्र में आने वाले थे. हमारे प्रवेश-पत्र जारी कर दिए गए. सूचना प्रकाशन विभाग की एक तयशुदा गाड़ी में हम कुछ पत्रकारों को सभा स्थल में पहुंचना था. यद्यपि देश की बड़ी-बड़ी समाचार ऐजेंसियों से भी बड़े-बड़े पत्रकार वहां पहुंचने वाले थे. सभास्थल पर राजीव गांधी के पहुंचने के लगभग तीन घंटे पहले हमें सभास्थल पर पहुंचा दिया गया. तरह-तरह के डिटेक्टर्स से कड़ी जांच-पड़ताल. वहां पहुंच कर मैं अवाक रह गई. वहां लकड़ी के मोटे-मोटे लट्ठों को आपस में बांध कर अनेक खंड बनाए गए थे. लट्ठे भी ऐसे कि उनके लिए समूचे हरे-भरे खड़े पेड़ों को काटा गया था. एक खंड पत्रकारों के लिए था तो दूसरा वीआईपी व्यक्तियों के लिए के लिए. एक खंड स्थानीय, छोटे नेताओं के लिए और इन सब के पीछे एक बड़ा खंड आम जनता के लिए. आमजनता में भी उतने ही व्यक्यिों को उसमें प्रवेश की अनुमति थी जितने उस खंड में समा सकें. शेष को बहुत दूर खड़े रहने की छूट थी. राजीव गांधी के सभास्थल पर पहुंचने के ठीक एक घंटे पहले सभी खंड लकड़ी के लट्ठों से ‘‘लाॅक’’ कर दिए गए. पुलिस बलों के अतिरिक्त पैरा मिलिट्री फोर्स भी वहां थी. विचित्र माहौल था. मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम सभी को जानवरों के बाड़े में जानवरों की भांति कैद कर दिया गया है. इससे पहले जिन दो आम सभाओं का मुझे अनुभव था उसमें इस तरह की व्यवस्था नहीं थी. मंच से लगभग दस मीटर की दूरी के बाद से ही आमजन के लिए पूरा मैदान समान रूप से खुला रहता था. किन्तु राजीव गांधी की सभा में ऐसा नहीं था. उस समय इस बाड़ाबंदी ने मेरे मन को भारी ठेस पहुंचाई थी. मुझे प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिल गया था कि किस प्रकार आमजन से बड़े नेताओं की दूरियां बढ़ने लगी हैं. हो सकता है कि इसे पहले इंदिरा जी के मारे जाने और तत्कालीन आतंकी गतिविधियों के भय के कारण इस प्रकार की व्यवस्था की गई हो. फिर भी जन के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि के सामने जन को बाड़े में बंद रखा जाए, यह लोकतांत्रिक स्वरूप उस समय मेरे लिए हजम करना कठिन था. इसके बाद मैं और किसी आमसभा में नहीं गई. मेरा मन भी नहीं हुआ. अब तो टीवी के पर्दे पर ही आमसभाओं की बारीकियां देखने को मिल जाती हैं, ‘‘विथ स्पेशलिस्ट्स स्पेशल कमेंट’’. जिसमें ढेर सारे कामर्शियल ब्रेक्स के साथ आग उगलती बहसों की कांव-कांव भी शामिल रहती है.
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